रहीसुद्दीन ‘रिहान‘
‘मछली जल की रानी है… जीवन उसका पानी है… हाथ लगाओगे डर जाएगी… बाहर निकालोगे मर जाएगी.’
भारत में प्रत्येक चौथे व्यक्ति ने बचपन में इस नन्हीं सी कविता को खूब गुनगाया है और इसी के साथ ही पढ़ना, लिखना और बोलना सीखा. इन चार लाईनों में माता-पिता ने मछली के अलावा जीवन में पानी का महत्व भी बताया. थोड़े बड़े हुए, समाज को परखना-समझना सीखा तो जीवन में पानी की अहमियत खुद-ब-खुद मालूम हुई. काका-अम्मा को पानी के प्याऊ लगाकर सरल रास्तें से पुण्य कमाते देखा तो हमनें भी बड़े होकर राहगीरों के लिए अपने घरों के बाहर पानी की टोंटी लगाकर पुण्य कमाने की सोची.
लेकिन इक्कीसीवीं सदीं में राहगीरों को पानी पिलाकर या पड़ोसी को दो बाल्टी पानी देकर बुर्जगों के पुण्य कमाने के तरीके पर चलना आसान नहीं है, और आम आदमी के लिए तो कतई संभव नहीं है कि वह इस तरह से पुण्य कमा सकें. क्योंकि कमर्शियलाइजेषन के इस दौर में सबकुछ कमर्शियल हो रहा है. तो फिर भला लोग पानी को कमर्शियलाइज की कैटेगरी में शामिल किये बिना कैसे रह सकते हैं. इसका उदाहरण सड़कों पर खड़ी पानी की ठेलियां और बोतलों में कैद पानी को देखकर लगाया जा सकता है.
अब दिल्ली की मुख्यमंत्री ने भी पानी के निजीकरण को लेकर दिये बयान से साफ हो गया है कि आम आदमी के लिए तो दिल्ली में फ्री पानी पिलाकर पुण्य कमाना संभव नहीं है. देश के अन्य हिस्सों में बेशक संभव हो.
दरअसल, दिल्ली की मुख्यमंत्री ने समय के साथ चलने का तर्क देकर इस बार पानी को निजी हाथों में सौंपने की वकालत की है. मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का कहना है कि दिल्ली की जनता की प्यास तभी बुझ सकती है जब उनके घरों के नलों में चौबीसों घंटे पानी रहे, और यह तभी संभव हो सकता है जब पानी का निजीकरण हो. महंगाई के बोझ तले पहले से ही दबी चली आ रही दिल्ली की जनता ने जहां मुख्यमंत्री के इस बयान के बाद से अपनी कमर को और मजबूत कर पाने में सरकार के सामने असमर्थता जतायी है वहीं विपक्ष ने शीला के इस बयान का विरोध किया है.
शीला दीक्षित का यह बयान कोई नया नहीं है. अपने दूसरे कार्यकाल के शुरूआत में ही शीला ने पानी का निजीकरण करने का मन बना लिया था. इसके लिए शीला ने चौबीस घंटे पानी उपलब्ध करवाने के नाम पर दिल्ली जल बोर्ड के लिए नियामक आयोग के गठन की घोषणा भी की थी. इसके बाद सितंबर 2005 में दिल्ली जल बोर्ड (संशोधन) विधेयक लाकर भूजल के दोहन पर रोक लगाने की कोशिश की थी. लेकिन भारी विरोध के बाद तब फरवरी 2006 में उसे रद्द कर दिया गया.
शीला दीक्षित इससे पहले, अपने पहले कार्यकाल यानि जुलाई 2002 में बिजली का निजीकरण कर चुकी है. तब बिजली के निजीकरण के बारे में शीला ने तर्क दिया था कि दिल्ली की जनता की साढ़े पांच हजार मेगावाट बिजली की मांग को पूरा करने के लिए बिजली का निजीकरण करना ज़रूरी है. इस तर्क के साथ शीला ने बिजली की जिम्मेदारी निजी कंपनियों के कंधों पर टेक दी थी. निजी कंपनियों ने अपने कंधों को मज़बूत करने के लिए दिल्ली की जनता के कंधों का सहारा लिया और दिल्ली के घरों में गोली की रफ्तार से भागने वाले मीटरों को लगा दिया. लोगों के घरों की मीटर रीडिंग, पुराने मीटर रीडिंग की अपेक्षा कई गुना बढ़ने लगी. मीटर रीडिंग दरों के शुल्क में भी इजाफा किया गया. परिणामस्वरूप आम आदमी की जेब पर महंगाई का भार बढ़ा और ‘मैंगों मैन‘ कहे जाने वाले आम आदमी की महीने की पगार में से बिजली विभाग को जाने वाला पैसा दो से तीन गुना बढ़ गया. जनता ने सरकार के निजीकरण को कोसना शुरू किया तो सरकार ने जनता को निजीकरण के कारण 20 घंटों से ज्यादा बिजली की उपलब्धता की सुविधा को गिनाया.
अब मुख्यमंत्री का पानी को निजी हाथों में सौंपने की वकालत करने की वजह है कि दिल्ली में अभी 27 फीसदी लोगों को रोज़ तीन घंटे से भी कम पानी मिल पाता है. करीब 55 फीसद लोग है जिन्हें तीन से छह घंटे पानी मिलता है. हर घर में कम से कम दो घंटे पानी जाए इसका इंतजाम करना होगा.
पानी के निजीकरण को लेकर शीला के दिये बयान को अमलीजामा पहनाने के लिए सरकार ने भी काफी पहले ही कवायदें तेज़ कर दी थी. दिल्ली में 12 हजार किलोमीटर लाइनों को बदलने का काम शुरू किया गया. आधे से अधिक लाइनें बदली जा चुकी है. पानी के कनेक्शन लेने के लिए अदालत से आदेश करवा कर मीटर लगाना अनिवार्य किया गया. पानी की चोरी रोकने के लिए तीन पानी अदालतें बनाई गई. उसमें लाखों का जुर्माना किया गया. यह सिलसिला जारी है. सरकार ने जल बोर्ड की आर्थिक स्थिती मज़बूत करने के लिए बिल वसूली के अलावा पानी की दरों का शुल्क प्रत्येक साल दस फीसदी बढ़ाना तय किया है. यह सब निजीकरण की दिशा में ही सरकारी क़दम हैं.
शीला सरकार के तर्कों से एक तरफ आम आदमी खुश है कि निजीकरण के बाद उसे टैंकरों के पीछे लंबी लाईनों में लगने से मुक्ति मिलेंगी और नियमित पानी मिलना शुरू हो जाएगा. वहीं सरकार के प्रति उसके मन में अनेक शंकाएं हैं कि जिस तरह बिजली को निजी हाथों में सौंपने के बाद उनकी जेबों पर महंगाई का बोझ कई गुना बढ़ा है उसी तरह पानी के निजीकरण के बाद भी ऐसा न हो जाए. आम आदमी के जेह़न में ये सवाल उठना स्वभाविक है. पानी के निजीकरण के बाद आम आदमी को जहां एक तरफ अपनी रातों की नींद खोकर लंबी लाईनों में लगना नहीं पडेगा, वहीं उसे रातों को नींद से ज्यादा कीमत पानी के बढ़े बिलों के रूप में दिल्ली जल बोर्ड को न चुकानी पड़े. इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है. क्योंकि कोई भी सेवा या कंपनी का जब जब निजीकरण हुआ है, तब तब आम आदमी को मिलने वाली सुविधाओं की तुलना में उसकी जेब पर महंगाई का बोझ बढ़ा है. हमारे सामने बिजली का निजीकरण और उसके बाद सुविधाओं की तुलना में आम आदमी की जेब पर महंगाई के बोझ का बढ़ाना ताजा उदाहरण है. बहरहाल दिल्ली के आम आदमी को पुण्य कमाने के लिए बुर्जगों के दिखाये रास्तें पर चलना आसान काम नहीं है.