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जहां-तहां बापू के चेले चांदी काट रहे हैं…

Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines

आज पूरा विश्व महात्मा गांधी के नाम पर अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस मना रहा है. अख़बार बता रहे हैं बापू के मुरीद आज भी मौजूद हैं. उनके सिद्धांत आज भी प्रासंगिक हैं. सिर्फ यही नहीं, अपनी हर रणनीति में हिंसा को शामिल करने वाले अमेरिका के ह्यूस्टन में तो ‘महात्मा गांधी डिस्ट्रिक्ट’ तक है. यहां भारत व पाकिस्तान की दुकानें सजी होती हैं. नीदरलैंड में भी करीब 30 शहरों में बापू के नाम पर सड़कों और चौराहों का नामकरण किया गया है. दक्षिण अफ्रिका, फ्रांस और ईरान जैसे देशों में भी कई महात्मा गांधी रोड हैं. लगभग 80 देशों ने गांधी के चित्र वाले 250 से अधिक डाक टिकट जारी किए हैं. न्यूयॉर्क मैडम तुसाद म्यूजियम और लंदन के यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ लंदन के टैविस्टॉक स्क्वायर पर गांधी की प्रतिमा है. 30 जनवरी को ब्रिटेन ‘गांधी स्मृति दिवस’ मनाता है.

मुझे पता नहीं कि इन देशों में लोग गांधी के कितने मुरीद हैं?  ‘महात्मा गांधी डिस्ट्रिक्ट’ में लोगों की जिंदगी कैसी है? अलग-अलग देशों के महात्मा गांधी रोड पर जिंदगी किस रफ्तार से दौड़ती है? गांधी की प्रतिमा को लोग साफ करते भी हैं या नहीं?  जब लोग गांधी को म्यूजियम में देखते हैं तो उनके मन में क्या ख्याल आता है? यह सब मुश्किल सवाल हैं. लेकिन अपने भारत में मैं गांधी और उनके सिद्धांतों को रोज़ मरते देखता हूं. कत्ल और लूटमार की वारदातों में महात्मा गांधी रोड का नाम आता है. उन प्रतिमाओं को भी देखता हूं जहां साल भर सिवाए कुत्तों व दूसरे जानवरों के और कोई नहीं पूछता. हां! इतना ज़रूर है कि साल में दो बार झाड़-फूंक कर  ‘मजबूरी का नाम महात्मा गांधी’… कहते फूल की मालाएं पहना दी जाती हैं.

सबसे अजीब है गांधी की जन्मभूमि के लोगों का अहिंसा से ज़्यादा हिंसा पर यक़ीन होना. यहां की सत्ता पर भी गांधी के हत्यारे ही काबिज़ हैं. सबसे हैरत की बात यह है कि गांधी के हत्यारे ही आज गांधी को ब्रांड बनाकर बेच रहे हैं.

सौभाग्य से गांधी की कर्म-भूमि ‘चम्पारण’ मेरी जन्मभूमि है. अपने बचपन का कुछ हिस्सा स्कूल में गांधी के प्रतिमा के नीचे गुज़ारा है. लेकिन अफ़सोस गांधी की कर्म-भूमि चंपारण के लोग गांधी को भूलने लगे हैं. यहां की माटी में जन्में जवानों ने जो देश के लिए यातनाएं झेली वो भी अब किसी को याद नहीं है. और अब तो हिमालय की ओर से इधर आने वाली हवा भी गांधीवाद के खिलाफ है.

मैं गांधी को खोजने के लिए भितिहरवा आश्रम जाता हूं, जहां कुछ दिनों पहले तक गांधी उन सैकड़ों तस्वीरों में दिखाई पड़ते हैं, जो सीलन और रख-रखाव की उचित व्यवस्था के अभाव में बरबाद हो गए. गांधी उन नेताओं के वादों में भी दिख जाते हैं, जो घोषणाओं के रूप में वहां के वातावरण में घुले हुए हैं. वो नेता जो गांधीवादी होने का दंभ तो भरते हैं, लेकिन गांधी से जुड़ी स्मृतियों व धरोहरों को सहेजने व बचाने के लिए अपने स्तर से कोई प्रयास नहीं करते.  और जब भी मौका मिलता है गांधी के नाम पर अपनी पॉकेट गरम कर लेते हैं.

कंसेप्ट कमेटी राजभवन, पटना की अनुशंसा पर वर्ष 1999 में आश्रम के सौंदर्यीकरण के तहत परिसर में बनाए गए छोटे, बड़े कई भवन गांधी की बदहाली की दास्तान सुनाते हैं. करीब 20 लाख की लागत से हुए इस निर्माण-कार्य में घटिया निर्माण सामग्री का प्रयोग किया गया. अनियमितता के खिलाफ़ वहां के स्थानीय लोगों ने बड़े-बड़े सियासतदानों से लेकर विभागीय पदाधिकारियों तक से शिकायत की, लेकिन तब गांव के इन छोटे गांधीवादियों की शिकायत पर तथाकथित बड़े कद वाले रसूखदार गांधीवादियों ने ध्यान नहीं दिया. निर्माण के महज़ दस वर्षो के अंदर ही आश्रम के इन भवनों में दरारें पड़ गई हैं. सेलिंग के प्लास्तर टूट-टूट कर नीचे गिर रहे हैं. संग्रहालय भवन की खिड़कियां व दरवाजे भी टूट रहे हैं. हर भवन की यही दशा है.

गांधीवादी सियासतदानों पर कितना सटीक बैठती है हास्य-कवि ब्रजमोहन चंचल की यह पक्यिां… “दर दर देखो भीड़ लगी है, अंधे रेवड़ी बांट रहे हैं. जहां-तहां बापू के चेले देखो चांदी काट रहे हैं.”

गांधी जी की रचनात्मकता के प्रतीक राष्ट्रीय विद्यालय भी थे, जिनमें कइयों की स्थापना स्वयं गांधी जी ने की थी. पर गांधी को खोजने के लिए उन राष्ट्रीय विद्यालयों की नींव खोजनी होगी, जो पता नहीं ज़मीन की कितनी गहरी परतों में दबे हुए हैं.

अक्सर मोतिहारी के गांधी संग्रहालय व स्मारक में जाता रहता हूं.  वहां जाकर पता चलता है कि अब हिंदुस्तान में गांधी जी के आदर्शों का महत्व क्या रह गया है. वहां जा कर लगता कि अब वो सिर्फ इस्तेमाल की चीज भर रह गए हैं, जिन्हें बाजार में बेचा तो जा रहा है लेकिन सहेजा या चरित्र में उतारा नहीं जा रहा.

संग्रहालय में रखी अमर-जवान की प्रतिमा से प्रतिक चिन्ह यानि बन्दूक व टोपी गायब है. रख-रखाव की जिम्मेदारी निभा रहे लोग स्मारक की दुर्दशा का आरोप बच्चे पर मढ़ देते हैं. अगर बात युवाओं की हो तो गांधी को अब कोई नहीं पूछता, लेकिन मोतिहारी का गांधी स्मारक प्रेमी जोड़ों के लिए आदर्श स्थान ज़रूर है. परिसर में बनी कस्तुरबा गांधी स्मृति कैन्टिन में निम्बूज़, लेज़, पेप्सी, कोका कोला और न जाने क्या-क्या चीज़े बिक रही हैं. स्वदेशी का गांधी का विचार बाजारवाद में खो गया है.

देश के हर नोट पर मुस्कुराने वाले गांधी के आदर्श उनकी ही कर्मभूमि में रो रहे हैं. एक साल पहले पूर्वी चंपारण के पकड़ीदयाल में अनुमंडल मुख्यालय चौक से मधुबनी घाट जाने वाली सड़क पर स्थित गांधी स्मारक से गांधी की प्रतिमा को उखाड़ कर फेंक दिया गया. 1904 में भूकम्प के बाद इस पकड़ीदयाल में गांधी आए थे. उनकी याद में ही यह प्रतिमा लगाई गई थी. सबसे अफसोसजनक यह था कि इस प्रतिमा को तोड़ने का शक भी गांधीवाद के नारे बुलंद कर रहे लोगों पर ही किया जा रहा था.

बेतिया में हज़ारीमल धर्मशाला की हालत तो और भी जर्जर है.  यहां के व्यापारी इस बात का इंतज़ार कर रहे हैं कि कब यह इमारत गिर जाए ताकि इसे भी बिजनेस कॉम्पलेक्स में तब्दील कर दिया जाए.  जबकि सूचना के अधिकार से मिले कागज़ के टुकड़े बताते हैं कि हजारीमल धर्मशाला, बेतिया को राज्य सरकार द्वारा सुरक्षित स्मारक घोषित किया गया है. इसकी रख-रखाव की व्यवस्था संबंधित कला, संस्कृति एवं युवा (पुरातत्व निदेशालय) विभाग को है.  इस स्थल पर अतिक्रमऩण के विरूद्ध माननीय उच्च न्यायालय, पटना में एक याचिका दर्ज होने के बाद अब इसकी देख-रेख विभाग द्वारा की जा रही है.

गांधी की कर्मभूमि रहे चंपारण में उनसे जुड़ी चीजों का यह हाल हमारे समाज की असली तस्वीर दिखाता है. पिंजरापोल गोशाला की देख-रेख करने वाले गांधीवादी गौ-सेवक नरेश चन्द्र वर्मा कहते हैं कि गांधी द्वारा स्थापित इस गोशाला में गांधी के हत्यारे ही काबिज़ हैं, क्योंकि अब मक़सद सिर्फ और सिर्फ कमाना रह गया है. गाय को मां कहने वाले लोग भी गौशाला की खबर लेने नहीं आते. सुशील कुमार मोदी भी इसे देखने आए थे, पर हुआ कुछ नहीं, जबकि यहां के सांसद व विधायक दोनों ही भाजपा के हैं. नरेश कहते हैं कि सबसे अफसोसजनक यह है कि पिंजरापोल गोशाला के भूतपूर्व सचिव रामावतार सिंघानिया, जो यहां के आर.एस.एस. प्रमुख भी थे, के 2003 में माननीय भूतपूर्व प्रधानमंत्री और अपने घनिष्ट मित्र अटल बिहारी बाजपेयी जी को पत्र लिखने पर भी कुछ नहीं हुआ. इस गौशाला की अनदेखी का आलम यह है कि देश के कई बड़े घोटालों को सामने ला चुका आरटीआई कानून भी यहां बेअसर हो जाता है.

गांधी से जुड़े बाकी धरोहरों की दुर्दशा की दास्तान तो और भी अफसोसजनक है.  गांधी के सत्य-अहिंसा एवं सत्याग्रह की प्रयोगस्थली चम्पारण के ज़िला मुख्यालयों स्थित क्षेत्रीय प्रचार कार्यालय अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए ही संघर्ष कर रहे हैं.  मोतिहारी कार्यालय के गांधीवादी साहित्य को दीमक खा गई है. चम्पारण के लोगों की गांधी के नाम पर विश्वविद्यालय की मांग अब दम तोड़ने लगी है. बनकट में गांधी खुला विश्वविद्यालय का बोर्ड उन लोगों का दिल दुखा रहा है जिन्होंने इसके निर्माण के लिए अपनी जमीन दी. सिर्फ बोर्ड लगा है, प्रस्ताव पास होने के बाद भी विश्विद्यालय हकीकत से कोसों दूर है. और उससे बड़ी बात यह है कि हाल के दिनों केन्द्रीय विश्वविद्यालय खोलने का ऐलान हुआ है, लेकिन इसका नामकरण गांधी के नाम पर करने में भी कई राजनीतिक व समाजिक दलों को आप्ति है.

हां, पर इतना ज़रूर है, यहां गांधी की याद के नाम पर होने वाले आयोजन लालबत्ती के नशेड़ियों को फंड डकारने का अवसर जरूर दे देते हैं. गांधी के नाम पर राजनीति करने वाले भी अब कास्ट, क्राइम और कैश की राह पर चल पड़े है. उग्र विचारधाराओं के प्रचार तंत्र ने गांधीवाद को उसकी कर्मभूमि में ही पराजित कर दिया है. उग्रवाद ही नहीं, स्वार्थपरता भी अहिंसा के महानायक को चुनौती दे रही है. एक सच यह भी है कि चंपारण के लोगों को विश्वास है कि गांधी जी यहां दूसरा अवतार जरूर लेंगे. मुझे डर है कि कहीं गाधीवाद से अनभिज्ञ लोग बापू के हत्यारों को ही बापू का अवतार न बना दे. अख़बार गांधी के जन्म-दिवस के शुभकामनाओं से भरा पड़ा हुआ है. यह सारे विज्ञापन उन्हीं विभागों ने दिए हैं, जो गांधी के आर्दशों को सिर्फ विज्ञापन ही समझते हैं. खैर, मुझे अपने बापू की याद आ रही है. पिछले साल आज के दिन ही वो हमसे दूर चले गए. वो होते तो मैं गांधी को अपने करीब ज़रूर पाता.

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