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आज सोचने का समय किसी के पास नहीं है…

Rakshpal Abrol for BeyondHeadlines

भारत का संविधान हमारे लिए हमारे धर्म-ग्रंथ से भी अधिक महत्व रखता है. इसमें भारत के संसद को किसी भी प्रकार का संशोधन करने का अधिकार केवल अनुच्छेद-13 को छोड़ कर बाकी संपूर्ण संविधान में अनुच्छेद 368 में सबकी अनुमति लेकर दिया गया है.

यह व्यवहारिक है या नहीं, एक अलग विषय  है. सभी संशोधन इसके अन्तगर्त ही किये गये हैं. यह काम केवल सरकार ही कर सकती है, विपक्ष नहीं. भारत को आजादी देने का फैसला ब्रिटिश सरकार ने लिया था. विपक्ष इसके विरोध में था. विन्सटन चर्चिल ने इसका विरोध किया था. पर ब्रिटिश सरकार ने नहीं माना.

15 अगस्त 1947 को हमें आजादी मिली. किसने दिलवाई एक अलग विषय है. हमारा अपना संविधान है. इसे हमने मान्यता दी हुई है. व्यवहारिक है या अव्यवहारिक यह सोचना हमारा काम है.

बहरहाल, अनुव्छेद-324 के अन्तगर्त सभी प्रकार के निर्वाचन के लिए निर्वाचन आयोग का गठन करने का अधिकार राष्ट्रपति को दिया गया है. इस निर्वाचन आयोग का मुख्य निर्वाचन आयुक्त को नियुक्त करने का अधिकार व अन्य आयुक्तों को भी चुनने का अधिकार केवल राष्ट्रपति को दिया गया है, यह व्यवहारिक है या अव्यवहारिक, यह भी सोचने का समय किसी के पास नहीं है. यह एक अपने आप में सत्य है.

भूतपूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त  श्री टीएन शेषण ने राजीव गांधी के मृत्यु के बाद चुनाव प्रक्रिया को एक माह के लिए  स्थगित कर दिया  था. वह उस समय केवल एक साधारण व्यक्ति  थे. किसी ने उन पर उंगली नहीं उठाई. उन्होंने बाला साहेब ठाकरे व सुभाष देसाई को पांच वर्ष के लिए निर्वाचन प्रकिया मे भाग लेने से वंचित  किया था. ऐसे बहुत से कार्य उन्होंने अपने बल पर किये. यह सब अधिकार निर्वाचन आयुक्त को संविधान ने दिया हुआ है.

इनको कोई भी व्यक्ति अव्यवहारिक नहीं मान सकता. राष्ट्रपति भी उनके अन्तगर्त हैं. लेखक ने दो बार चुनाच लड़ा था. 1989 व 1991 में…  2004 में उनका व उनके परिवार का नाम निर्वाचक नामावली से निकाल दिया गया, इस पर कोई सुनवाई की प्रथा नहीं है. यह व्यवहारिक है या अव्वयहारिक इसका  फैसला अभी तक संसद नहीं कर सकी है.

अब निर्वाचन का फैसला दो राज्यों का 45 दिनों के बाद ही दिया जाएगा यह निश्चित हो गया है. इसको बदलने का फैसला केवल मुख्य निर्वाचक आयुक्त व दूसरे दो निर्वाचित आयुक्त ही कर सकते हैं.  इस को बदलने का अधिकार संसद व अन्य नेतागण तथा प्रिंट मीडिया या आम जनता के हाथों में नहीं है.

आपको मत देने का अधिकार संविधान में दिया गया है,उसको वापिस लेने का अधिकार भी हमारे पास नहीं है. भारत के संविधान में ऐसा नहीं कहा गया है. कुरान, बाइबल व गीता में या अन्य किसी कानून की किताब में भी ऐसा  नहीं कहा गया है, इसी कारण एक वैज्ञानिक को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा था.

भारत में विख्यात चार वेदों में भी यह नहीं कहा गया है. विश्व परिवर्तनशील है,अपने नियम परिवर्तनशील ही  होने चाहिए यह संसार सिखाता है. हम भारत के लोग इस पर ज्यादा विश्वास करते हैं. जो अव्यवहारिक पाया जाता है, उसको हम छोड़ देते हैं.

1947 में जो गलत था उसे आज भी गलत कहते हैं. अच्छे व्यक्ति की पहचान जनता करने में सक्षम है. आज  का युवक 1947 का युवक नहीं हैं. तब 18 वर्ष के व्यक्ति को अपना मत देने का अधिकार नहीं था, अब  है. इसलिए यह लोग भ्रमित नहीं हो सकते. ज्ञान की सूझबूझ इनके पास है. यह अब अज्ञानी नहीं हैं. सबके पास

ज्ञान का अपार भंडार है. अन्ना के विचारों से प्रत्येक नवयुवक सब तरह से सहमत है. सरकार को इसी बात का डर है. इसी कारण यह भ्रम फैलाने की कोशिश हो रही हैं. मां, माटी व मानुष का  सवाल है. आशा है आप हमारी इस सोच को समझ पा रहे हैं.

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