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वो बेबस ड्राइवर मेरा कत्ल ही कर देता

Dilnawaz Pasha for BeyondHeadlines

मेरा दफ्तर मेरे किराए के घर से पूरे चार किलोमीटर दूर है. मैं कभी-कभी पैदल और अक्सर ऑटो से जाता हूं. लौटते वक्त ज्यादातर दिनों कंपनी की कार मिल जाती है और कभी-कभी पैदल या फिर ऑटो से आता हूं. जब भी ऑटो से आता हूं अपने कमजोर होते समाज की वीभत्स तस्वीर देखता हूं.

आज का अनुभव शेयर कर रहा हूं. सेक्टर 62 की चौकी को गुंडों ने पुलिसवालों से खरीद सा लिया है. यहां तीन सवारियों पर पास ऑटो पर 13 सवारियां बैठाई जाती हैं. ज़बरदस्ती… एक के ऊपर एक ठूंस कर. मैं इन ऑटो में नहीं बैठता. कुछ पीछे विजयनगर से आते हैं. उनमें बैठने की गुंजाइश होती है. मुझे अगली बत्ती (काला पत्थर) जो की एक किलोमीटर दूर है, वहां उतरना होता है. यहां का जायज़ किराया पांच रुपये लगता है. आज भी मैं ऐसे ही पीछे से आ रहे ऑटो में बैठ गया. दो चार सवारी और आईं तो ड्राइवर बोला कोई काला पत्थर जाने वाली सवारी इसमें न बैठे. मैं सिर्फ दस रुपये किराए वाली सवारी ही बिठाउंगा.

मैंने कहा भाई मैं बैठा हूं और पांच रुपये ही तुम्हें दूंगा. इस पर वो चिढ़कर बोला उतर जाइये. मैंने मना किया. उसने बहस की, मैं भी बहस में किसी से कम नहीं हूं. उसने कहा मैं नहीं चलूंगा, मैंने कहा मैं नहीं उतरूंगा. तेज़ रफ्तार जिंदगी जीने वाली बाकी सभी सवारियां एक मिनट बर्बाद होता देख उतरकर दूसरे ऑटो मं बैठने लगी. मैंने ड्राइवर से कहा भाई अपना नुक़सान मत करो, चलो लेकिन जितना किराया लगता है मैं उतना ही दूंगा. वो नहीं माना, एक मिनट के भीतर पूरा ऑटो खाली, बचा सिर्फ मैं.

ऑटो खाली देखकर ड्राइवर का पारा गरम हो गया. गालियां देने लगा. हाथ-पैर पीटने लगा, मानो किसी ने उसे दिन दहाड़े लूट लिया हो. वो जोर-जोर से चिल्लाने लगा. वो चिल्लाकर, झुंझला कर सवारियों के जाने का मातम मना रहा था. मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था. मैं अभी भी सीट पर ही बैठा था.

अचानक उसे और गुस्सा आया. ऑटो स्टार्ट करके साइड से लगाया. उसने लोहे की राड निकाल कर मुझ पर तान ली. मैंने कुछ नहीं कहा. उसकी आंखों में गुस्सा कम मजबूरी ज्यादा झलक रही थी. वो मुझ पर हमला करना चाहता था, लेकिन कर नहीं पाया. इसलिए नहीं कि वो कद काठी में मुझसे कमजोर था या मैं आक्रामक मुद्रा में था. मैं तो बस पूरे वाक्ये से सन्न सा था. समझ नहीं आ रहा था क्या करूं. और अचानक उसके मुंह से निकला, मेरे बच्चे, मेरा सौ रुपये का नुकसान हो गया.

उसने बिना वार किए ही मुझ पर वार कर दिया था. मैंने तुरंत जेब में से सौ का नोट निकाला और उसे पकड़ाना चाहा. वो बोला तुम आगे चलकर मुझे पीटोगे. मैंने कहा नहीं, मैं सिर्फ तुम्हारे नुक़सान की भरपाई कर रहा हूं, मेरा यकीन करो न तुम्हें पीटूंगा और न ही तुम्हारी शिकायत करूंगा. अगली रेडलाइट पर मुझे छोड़ दो, ये पैसे रखो और बाकी ऑटो चलाकर अपने बच्चों का पेट भरो. उसने मुझे घर छोड़ दिया. ऑटो रोककर बोला- मैं ये नहीं समझ पाया कि पांच रुपये के लिए लड़ने वाले इंसान ने 100 रुपये एकदम क्यों दे दिए. मैंने बस उससे इतना ही कहा कि हर सवारी के पास पांच रुपये की जगह देने के लिए दस रुपये नहीं होते बस आगे से इतना ध्यान रखना, बाकी बात तुम्हारी समझ में नहीं आएगी.

वो चला गया, अब मैं आपको समझाने की कोशिश करता हूं कि मैंने उसे बाद में पांच रुपये की जगह सौ रुपये क्यों दे दिए और पहले में पांच रुपये देने पर ही क्यों अड़ा था. पहले इस बात का जवाब देता हूं कि मैं पांच रुपये देने पर क्यों अड़ा था.

जैसा कि मैंने बताया कि मैं कभी-कभी पैदल और अक्सर ऑटो से आता-जाता हूं. अभी करीब एक हफ्ता पहले की ही बात है. मैं शाम को ऑफिस से वापस आ रहा था. मेरे ऑफिस के करीब से ही विजयनगर तक जाने वाले ऑटो में अगली सीट खाली थी और एक महिला सवारी, उम्र करीब 30 वर्ष, पीछे लटक रही थी. मैंने ड्राइवर से कहा कि महिला सवारी को पीछे क्यों लटका रहा है, उसने कहा मैं आगे सिर्फ दस रुपये वाली सवारी बैठाता हूं, ये सिर्फ पांच देती है इसलिए पीछे लटकी है. मेरी बात सुनकर वो महिला अपनी मजबूरी पर मुस्कुरा दी.

खैर, मैं दूसरे ऑटो से बैठ गया जो उसके पीछे ही चल रहा था. करीब एक आधा किलोमीटर दूर बाद ऑटो तेज़ रफ्तार से मोड़ पर मुड़ा और वो बेचारी महिला नीचे गिर गई. खुदा का शुक्र था कि उसे चोट नहीं आई थी, वरना हादसा ऐसा था कि मौला का रहम न होता तो जान भी जा सकती थी. उसे खरोंच तक न आना किसी चमत्कार से कम नहीं था.

खैर, वो दोबारा पीछे ही लटकर अपने घर की ओर चली गईं और मैं सोचता रह गया कि कितने लोग हैं जो भ्रष्टाचार की कीमत रोजाना अपनी जान पर खेलकर चुका रहे हैं. मैं ड्राइवर को पांच रुपये देने पर सिर्फ इसलिए ही अड़ा था क्योंकि अगर जहां के पांच लगते हैं मैं वहां के दस रुपये देता हूं तो न सिर्फ गलत प्रवृति को बढ़ावा देता हूं बल्कि उन लोगों के साथ अन्याय भी करता हूं जिनकी हैसियत पांच रुपये की जगह दस रुपये चुकाने की नहीं है.

अब मैं इस सवाल का जवाब देता हूं कि मैं क्यों पांच रुपये ज्यादा न देने पर अड़ा रहा और अंत में सौ रुपये ड्राइवर को थमा दिए. दरअसल पूरी घटना में कंडक्टर से ज्यादा गलती उस व्यवस्था की है जिसे हम रोज बद से बदतर करते जा रहे हैं. ऑटो चलाने वाले ड्राइवरों को रोजाना कम से कम 60 रुपये अलग-अलग चौकियों और नाकों के बाहर खड़े गुंडों को देने होते हैं. ये गुंडे कोई और नहीं है बल्कि इन्हें पुलिस ने ही खड़ा किया है. ऐसे में ड्राइवरों पर सवारियों से अधिक से अधिक पैसा ‘लूट’ कर किसी भी तरह अपना और परिवार का पेट भरने का दवाब होता है.

मैं जिस ऑटो में बैठा था उसका ड्राइवर भी इसी दवाब में था. जिस वक्त उसने मुझ पर हमला करने के लिए लोहे की रॉड तानी थी उस वक्त उसकी आंखों में मजबूरी झलक रही थी. वो पांच रुपये कम की सवारी नहीं बिठाना चाहता था क्योंकि उस पर आगे पैसे चुकाने का दवाब था. मेरे कारण उसका पूरा ऑटो खाली हो गया था. वो गुस्से में रो रहा था… कम से कम मैं उसके नुक़सान की भरपाई तो कर ही सकता था. मैं ज्यादा गलती उन सवारियों की मानता हूं जो मुझे मेरा हक़ मांगते देख मेरी ओर से बोलने के बजाए दूसरे ऑटो में जाकर बैठ गईं.

ये व्यवस्था ऐसे लोगों की वजह से ही ख़राब हो जो सिर्फ अपना सोचते हैं. कोई अगर सार्वजनिक स्थान पर अपने हक़ की मांग करता है तो या तो उसे तिरस्कृत नजरों से देखा जाता है या दूसरे ग्रह का प्राणी समझा जाता है. मुझे अभी भी वो नजरें याद हैं जो ड्राइवर से बहस करते वक्त मानों मुझ से कह रहीं हो- कितना फुक्कड़ इंसान है, पांच रुपये के लिए बहस कर रहा है…

यह लेख बीते गुरुवार को लिखा गया था…

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