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बलात्कार और अश्लील विज्ञापनों में मीडिया की भूमिका

Gopal Prasad for BeyondHeadlines

मीडिया का नैतिक कर्तव्य है कि समाज में फैली हुई कुरीतियों से समाज को सजग करे. देश और समाज के हित के लिए जनता को जागरूक करे. परन्तु ऐसा लगता है कि धन कमाने की अंधी दौड़ में लोकतंत्र का यह चौथा खंभा अपनी सभी मर्यादाओं को लांघ रहा है.

सभी समाचार पत्रों में संपादक प्रतिदिन बड़ी-बड़ी पांडित्यपूर्ण सम्पादकीय लिख कर जनमानस को अपनी लेखनी की शक्ति से अवगत कराते हैं, परन्तु व्यावहारिक रूप में ऐसा लगता है कि पैसा कमाने के लिए सभी कायदे कानूनों को ताक पर रख दिया गया है.

सभी समाचारपत्रों में अश्लील एवं अनैतिक विज्ञापनों की भरमार है, जिससे समाज के लोग गुमराह होते हैं. समाचारपत्र केवल एक लाइन लिखकर लाभान्वित हो जाता है. क्या कभी किसी समाचारपत्र ने ऐसे विज्ञापनों की सत्यता को जांचने की कोशिश की? क्या ऐसे अश्लील और अनैतिक विज्ञापनों को समाचारपत्रों में छपने भर से वह अपनी जिम्मेवारी से मुक्त हो सकता है?

ऐसे बहुत से विज्ञापन हैं जिनमें कोई पता नहीं होता, केवल मोबाईल नंबर दे दिया जाता है. क्योंकि लाख कोशिश करने के बाबजूद भी ऐसे विज्ञापनदाताओं ने अपना पता नहीं बताया. इस तरह की कई शिकायतें थाने में दर्ज भी कराई  गई हैं. परंतु उस पर कारवाई नहीं के बराबर होता है. ऐसे विज्ञापनदाता जनता से धन ऐंठकर चम्पत हो जाते हैं. क्या इनके दुराचार में मीडिया भी बराबर का भागीदार नहीं है?

संपादक को चरित्रवान एवं देश व समाज के प्रति जिम्मेदार होना चाहिए, तभी उनके सम्पादकीय की गरिमा का आभास जन मानस को हो सकेगा और उनके विद्वता का लाभ देश और समाज को मिल सकेगा.

आज सामाजिक पतन के लिए काफी हद तक मीडिया भी जिम्मेदार है. यदि इन्टरनेट की बात छोड़ दें तो, इस प्रकार के गुमराह करने वाले विज्ञापनों से की जाने वाली कमाई से देश में और खासकर महानगरों में बलात्कार जैसी घटनाएँ नहीं होंगी तो और क्या होगा?

पच्चीस वर्ष पहले भी जब पंजाब केसरी समाचारपत्र में विदेशी महिलाओं के अश्लील फोटो छपते थे तो कई सजग पाठकों ने इसका विरोध भी किया था परन्तु यह आज तक जारी है. खास बात यह है कि बहुत से लोग केवल इसी कारण  इस समाचारपत्र को पसंद करते हैं. अब तो प्रायः सभी अखबार यही कर रहे हैं.

खेद की बात है कि  हर आदमी धनवान बनना चाहता है, चाहे उसके लिए समाज और देश को कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े. जब हम निर्मल बाबा और दूसरे धर्म के ठेकेदारों, भ्रष्ट नेताओं को कोसते हैं, तो संपादक मंडल को भी अपने गिरेबान में झांकने की ज़रूरत है कि हम क्यों पेड न्यूज़ और भ्रामक विज्ञापन के द्वारा चंद लोगों के लाभ के लिए समाज के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं?

समाज के कई भद्र कुलीन व्यक्ति इन धोखेबाज लोगों के शिकार होते हैं, परन्तु अपनी बदनामी से बचने के लिए आवाज़ नहीं उठाते. आवश्यकता है कि जनहित में छद्म ग्राहक बनकर इनकी गतिविधियाँ जानकर उसका भंडाफोड़ करने के लिए सजग लोग अग्रसर हों. क्या संपादक मंडल राष्ट्रहित में  लिंगवर्धन, मसाज पार्लर, महिलाओं से दोस्ती जैसे भ्रामक विज्ञापनों  पर रोक लगाने का भरसक प्रयास करेगे?

(लेखक गोपाल प्रसाद स्वतंत्र पत्रकार एवं आरटीआई एक्टिविस्ट हैं) 

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