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साल बदलने से क्या कुछ बदलता है..?

Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines

आज साल 2012  हम से जुदा हो चुका है. सारे विश्व में नए साल के स्वागत में जम कर जश्न मना. नए साल के सरुर के नाम पर जमकर हंगामा हुआ,  इयर एंड पार्टियों में हर्ष-उल्लास से ओत-प्रोत नशे में धुत युवा बदमस्त नज़र आएं. धूम-धाम परोस कर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी आपको नए साल के नए सपने बेचने में लगा रहा. पांच सितारा होटलों में पेज थ्री महफिलें सजीं और आज भी सजेंगी… जाम छलकें और आज भी छलकेंगे. गिलास और बरसते नोट… एलिट क्लास और नवदौलतिया वर्ग का धन-प्रदर्शन…. गिफ्ट हैम्पर्स…. और अत्यंत महंगे कार्ड्स के आदान-प्रदान फिजूल-खर्ची और शाह-खर्ची के पुराने रिकॉडों को तोड़ देगा. हालांकि भारत में इस वर्ष यह जश्न थोड़ा फीका रहा. लेकिन उतना भी नहीं, जितना मीडिया दिखा रही है. दिल्ली के बाहर तो जश्न पहले से भी बढ़-चढ़ कर मनाया गया और आज भी मनाया जा रहा है.

कितना अजीब है कि जिस 31 दिसंबर की शाम को सर्द बर्फीली रात में जब करोड़ो रुपये आतिशबाज़ी में झोंके जा रहे थे, झुग्गी-झोंपड़ी वाले इलाके और फुट-पाथों पर रहने वाले लोग सर्दियों से ठिठुरते हुए खुदा से एक और सूरज देखने की दुआ कर रहे थे. दिल्ली के जंतर-मंतर पर लोग नए साल के जश्न के बजाए “दामिनी” के लिए इंसाफ की मांग कर रहे थे, उसी समय न जाने देश में कितनी लड़कियां मजबूरी में किसी के हवस का शिकार बन रही थी. कल की ही शाम दिल्ली के दल्लूपूरा इलाके में एक लड़की को चाकू से गोदकर मार डाला गया. उत्तर प्रदेश में शीतलहर से 15 लोग अल्लाह को प्यारे हो गए… जिस रात शहरों में पार्टियों के नाम पर हज़ारों खर्च किए जा रहे थे, न जाने उसी रात कितने लोग पेट पर पत्थर बांध कर सो गए होंगे.

बातें बहुत सारी हैं, लेकिन अहम सवाल यह है कि ये नए साल का जश्न क्यों? साल 2012 के दिसम्बर की 31 तारीख खत्म होते ही अचानक “नया” क्या हो गया? जैसे तीस दिसंबर के बाद 31 दिसम्बर सूरजा उगा था ठीक उसी तरह एक जनवरी 2013 का सूरज भी उगेगा. (हालांकि आज तो सूरज भी हम दिल्ली वालों से खफा है) फिर 31 दिसंबर और एक जनवरी के बीच इतना फर्क क्यों. एक ये दिन है जिसे आप जैसे भी हो काट देना चाहते हैं और एक कल है जिसके इंतेजार में आप इनते आतुर हैं कि ये भी भूल गए हैं कि आपको आज क्या करना है.

“नये वर्ष का आरंभ अगर खुशियों के साथ हो तो पूरा वर्ष खुशियों में गुज़रेगा” यह कथन स्वयं कितना वैज्ञानिक और कितना अंधविश्वास पर आधारित है, तर्क व विज्ञान की बात करने वालों की नज़र इस पर क्यों नहीं जाती? तथाकथित आधुनिकता और प्रगतिशीलता के राग अलापने वाले ‘महानगरीय जीवी’ इस पर विचार क्यों नहीं करते कि ये स्वयं कितना पुरातन एवं प्रतिगामी विचार है.

यदि हम पीछे ही मुड़कर देखें कि पिछले वर्ष का आरंभ भी हमने इसी हर्ष-उल्लास व मौज-मस्ती के साथ किया था. लेकिन ज़रा सोचिए कितनी खुशियां समेटी हमने पिछले वर्ष…?

लेकिन हां! यदि इस अवसर पर बीते वर्ष का विभिन्न स्तरों पर विश्लेषण हो और विभिन्न पहलुओं से सही लेखा-जोखा सामने लाया जाए और आने वाले वर्ष के लिए एरिया ऑफ़ एक्शन तलाश किए जाएं तो इस प्रकार की इयर एंड पार्टियां सकारात्मक और सार्थक हो सकती हैं. नए संकल्प के साथ हम नव वर्ष का वास्तविक अभिवादन कर सकते हैं और तब ये आने वाला वर्ष सही मायनों में हमारे लिए “नया” साल बन पाएगा.

साल 2012 में हमारे देश में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार पर ही बातें होती रहीं. जाते-जाते यह साल ‘महिलाओं पर हो रही हिंसा’ एक मुद्दा छोड़ गया. हर तबके के लोगों ने इस विषय पर अपनी राय रखी. बहुत सी बैठकें और सभाएं हुई. लेकिन एक बात यह भी रही कि 2012 में सिर्फ भ्रष्टाचार के खिलाफ बातें ही की जाती रहीं. आप 2013 में भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ ठोस करने का संकल्प लीजिए. कागज और क़लम उठाइये और क़सम लिख लीजिए की इस साल आप कम से कम हर महीने दो आरटीआई ज़रूर दायर करेंगे. आप हर उस चीज के बारे में सूचना मांगने जो परेशानी का सबब बनती है. मेरा यकीन कीजिए, आप अपने अधिकार से जानकारी मांगेगे तो जिम्मेदार लोग अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए मजबूर हो जाएंगा. प्रण लीजिए कि आप ऐसा करेंगे कि साल 2012 को अगर भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने के लिए याद रखा गया है तो आपके कामों से साल 2013 को भ्रष्टाचार के खिलाफ मज़बूती से लड़ने के लिए याद रखा जाएगा.

एक बार सर्दी में ठिठुरते उस बुजुर्ग के बारे में सोच लीजिए जिसे सिर्फ कल तक जिंदा रहने की दुआ मांग रहा है, यकीन जानिए आपके दिल में कुछ कर गुजरने का जज्बा अपने आप पैदा हो जाएगा… और वैसे भी देखो, तो हर सुबह सुखद है और सोचो तो कष्टों व सवालों की पोटली… इसमें कलेंडर बदलने से फर्क नहीं आता…

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