India

बम को क्या पता कि मरने वाला हिंदू है या मुसलमान?

Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines

हैदराबाद : ‘पागल लोग हिंदू-मुसलमान की बात कर रहे हैं. मैं तो फिर भी बच गया, लेकिन मेरा दोस्त रफीक़ मेरे आंखों के सामने ही चिथड़े-चिथड़े हो गया. बम को क्या पता कि मरने वाला हिंदू है या मुसलमान? न ही बम रखने वाले यह सोचते हैं कि हिंदू मरेंगे या मुसलमान? वो देखो जो मेरे सामने घायल लेटे हैं, वह भी मुसलमान हैं. ये नेता लोग तो अपनी राजनीति चमकाना जानते हैं. मुझे तो एक मुसलमान ने ही अस्पताल में भर्ती करवाया.’

यह शब्द उस 30 वर्षीय कृष्णकांत वाघमारे के हैं, जो हैदराबाद ब्लास्ट में बूरी तरीके घायल हुए हैं.  कृष्णकांत वहीं ठेला लगाकर सामान बेचते थे, जहां धमाका हुआ था. धमाके में सिर्फ उनके पैर की हड्डी ही नहीं टूटी है बल्कि हड्डी में कील भी घुस गई है. वह अब भी चल नहीं सकते. इस धमाके ने न सिर्फ कृष्णकांत को घायल किया है बल्कि उनकी रोजी-रोटी का जरिया भी खत्म हो गया. वो कहते हैं कि करीब एक लाख का सामान था, जिसका अब नामो निशान भी नहीं बचा.

Krishna Kanta Waghmare

स्पष्ट रहे कि हैदराबाद के दिलसुखनगर इलाके में हुए इस दो सिलसिलेवार धमाकों में 17 लोगों की मौत हुई और कम से कम 119 लोग घायल हुए. घायल होने वालों में अधिकतर संख्या छात्रों व युवाओं की है जो दिलसुख नगर किताबें खरीदने या कोचिंग के लिए आए हुए थे. धमाकों में घायल हुए इन नौजवानों से बात करके अहसास हुआ कि सिर्फ जिस्म ही जख्मी नहीं हुए हैं, बल्कि ख्वाबों पर भी दर्द का पैबंद लग गया है. बेहद गरीब परिवारों से हैदराबाद पढ़ाई करने आए इन नौजवानों की आंखों से धमाकों ने ख्वाब ही छीन लिए हैं और उनके परिवारों की उम्मीदें धूमिल होती नज़र आ रही हैं.

हालांकि 24 फरवरी को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी भी ब्लास्ट पीड़ितों से मिलने अस्पताल पहुंचे थे. लेकिन सच पूछिए तो घायलों को देखने लिए उनका पहुंचना औपचारिकता मात्र था. मनमोहन सिंह घायलों के जख्म पर मरहम लगाने में पूरी तरह नाकाम रहे.

30 वर्षीय कृष्णकांत कहते हैं कि ‘मैं समझ नहीं पाया मनमोहन सिंह ने क्या कहा? इतना ज़रूर याद है कि वह फ्री इलाज की बात कर रहे थे. लेकिन सिर्फ फ्री इलाज से क्या होगा? अब मैं काम कैसे करूंगा? पहले से ही 50 हजार का उधार लेकर सामान लाया था. समझ नहीं  पा रहा हूं अब जिंदगी कैसे चलेगी?’

पास बैठी अपनी मां को देखकर कृष्णकांत की आंखों में आंसू आ जाते हैं. वह कहते हैं कि ‘मेरी वजह से पूरा परिवार परेशान हो गया है. मुझे सबका बोझ उठाना चाहिए था और इस धमाके ने मुझे ही अब बोझ बना दिया है.’

फिर अचानक उसे अपने दोस्त रफीक की याद आ जाती है.उसे याद करते ही वह फफक कर रोने लगते हैं. मां नीलाबाई उनके सिरहाने आकर बैठ जाती हैं और सर दबाने लगती हैं. कृष्णकांत गुस्से में कहते हैं, ‘हमारी पुलिस और सरकार आतंकवादियों को भी राजा बना देती है. कसाब को कितने दिन बिठाकर खिलाया. ये लोग बलात्कार के मामले में तो सजा नहीं दे सकते, आतंकवादियों को क्या पकड़ेंगे? लोगों को इन नेताओं को नकार कर मिल-जुल कर रहना चाहिए.’

कृष्णकांत के पिता मानिक राव (50) पुलिस पर गुस्सा करते हुए बोलते हैं कि ‘हमारे देश की पुलिस तो एक चोर तक को नहीं पकड़ सकती, यह आतंकवादियों को क्या पकड़ेंगे? सब तो नेताओं की सेवा में लगे रहते हैं, जनता की रक्षा की किसे फिक्र है? यह नेता व पुलिस ही हमें आपस में बांटने में लगे रहते हैं,  कभी वोट के लिए भाषण देकर तो कभी बेगुनाहों को गिरफ्तार करके. आपको क्या लगता है जो असल मुजरिम हैं वो क्या अब तक पुलिस के हाथों गिरफ्तार होने के लिए बैठे होंगे?’

कृष्णकांत के बगल में ही 18 साल के शिवकुमार लेटे हैं. वह फर्स्ट ईयर बीटेक स्टूडेंट है. बुरी तरह घायल शिवकुमार की मां उनके पास ही बैठी हैं. हमारी हिम्मत शिवकुमार से बात करने की नहीं हुई. उनके पिता आंजी अलैया पेशे से सिपाही हैं. बेटे की ओर देखते हुए कहते हैं, ‘ये मेरिट वाला स्टूडेंट है, हमेशा पढ़ाई में अव्वल रहा. मैंने सबकुछ अपने बेटे की पढ़ाई पर खर्च कर दिया. इसे जिंदा देखकर ऐसा लग रहा है, जैसे मैं खुद मौत के बाद जिंदा हूं. हमें अब तक सरकार से कोई मदद नहीं मिली है. मेरा बेटा एम टेक करने के बाद नौकरी करना चाहता था ताकि परिवार को बेहतर जीवन दे सके. धमाके ने दुख ज़रूर पहुंचाया है, लेकिन हमारी उम्मीदें अभी बाकी हैं.’

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