भ्रष्टाचार और राजनीतिक अपराधिकरण के खिलाफ विरोध कर लोकप्रिय होने वाले मनपा के तत्कालिक आयुक्त जीआर खैरनार मीडिया को समाजिक सरोकारों से दूर जाते हुए मान रहे हैं. मीडिया की बदलती कार्यशैली से वे बहुत व्यथित भी हैं. इन परिस्थितियों से निपटने के लिए के लिए खैरनार समाजिक आन्दोलन की आवश्यकता महसूस कर रहे हैं. वरिष्ठ पत्रकार डॉ. देवाशीष बोस ने BeyondHeadlines के लिए उनसे कई मसलो पर बातचीत की, प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंशः
धन के अभाव में भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम रुक-सी गयी है
जी.आर. खैरनार इन दिनों एक संस्थान में सलाहकार के रुप में कार्यरत होकर अपने पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं. खैरनार कहते हैं खरा सच काफी कड़वा होता है जिसे पचा पाना सबके लिए आसान नहीं होता है. यह उनकी सच्चाई ही है कि उनसे राजनीतिक दलों के नेता नाराज़ रहे हैं. खैरनार बेहद संजीदगी और साफगोई से कहते हैं कि उन्होंने गलत तरीके से कभी भी धन नहीं कमाया और तनख्वाह से अधिक बचत भी नहीं कर पाये हैं. परिणाण स्वरूप भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी मुहिम पैसे के अभाव में थम गयी और उसके बाद कुछ दिनों तक जब वे मुहिम को जबरन आगे बढ़ाये तो मित्रों की कतार छोटी होती चली गयी. ऐसी स्थिति में वे थक हार कर भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम को तत्काल स्थगित रखा है.
बसंत दादा पाटिल ने बाला साहब से खैरनार की हत्या करवाने को कहा था
पुराने दिनों को याद करते हुए खैरनार कहते हैं कि उन दिनों महाराष्ट्र में कांग्रेस पार्टी के बसंत दादा पाटिल मुख्यमंत्री थे और मुम्बई में ड्रग कारोबारिये अपना पांव फैला चुके थे. ड्रग माफिया सड़क के किनारे अतिक्रमण करते हुए दीवार खड़ी कर देते थे और धार्मिक स्थल के रूप में उस स्थान को प्रचारित करना शुरू करते थे और उसी की आड़ में अपना गैरकानूनी कारोबार चला रहे थे. जिसका सबसे बुरा असर नई पीढ़ी पर पड़ रहा था. ड्रग माफियाओं को ध्वस्त करने के लिए उन अतिक्रमित स्थलों को जब उनके नेतृत्व में ज़मीनदोज किया जाने लगा तो तत्कालिन मुख्यमंत्री बसंत दादा पाटिल ने उन्हें ऐसा करने से मना किया. लेकिन वे नहीं माने. अन्ततः शिवसेना प्रधान बाला साहब ठाकरे ने उन्हें बुलाकर उनके अभियान को रोकने को कहा. अगर बात नहीं माने तो कांग्रेसी बसंत दादा ने उनसे उनकी (खैरनार की) हत्या करवा देने की बात कही है. अगर बाला साहब ने यह भी कहा था कि अगर वे नहीं मैं (बाला साहब) बसंत दादा की बात नहीं मानता हूं तो वे अपनी पुलिस का इस्तेमाल शिवसेना के खिलाफ कर सकते हैं.
शरद पंवार ने रोका था दाउद इब्राहिम के अवैध निर्माण को तोड़ने से
दाउद इब्राहिम के अवैध निर्माण को जब वे तोड़ने का दुःसाहस किया तो राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता और केन्द्रीय मंत्री शरद पवार उन पर दबाव डालने लगे. शरद पवार चाहते थे कि दाउद इब्राहिम का अवैध निर्माण नहीं टूटे और उसकी क्षति न हो. खैरनार कहते हैं कि पार्टी कोई भी हो नेता आपस में मिले हुए हैं और समाजिक सरोकारों से दूर अपने हित में काम करते हैं. पूछे जाने पर खैरनार कहते हैं कि राजनीति का अपराधीकरण हो गया है, ऐसा वे नहीं मानते हैं. दरअसल समाज के लोगों के सोच और नज़रिया का अपराधीकरण हो गया है. वो पूछते हैं कि अपराधियों को विधायी निकायों में चुनकर भेजता कौन है? जनता अगर ऐसे लोगों को न चुने तो संसद और विधानसभा तथा अन्य निकायों में अपराधी कैसे पहुंचेंगे? फिर राजनीति का अपराधीकरण कैसे हो पायेगा? इसके लिए वे जनता को अधिक दोषी मानते हैं. वे कहते हैं कि अन्ना हजारे के आन्दोलन की प्रासांगिकता तो समझ में आती है, उसे अपार जनसमर्थन मिला लेकिन अरविन्द केजरीवाल के आन्दोलन से अव्यस्था फैलने की आशंका अधिक है.
चाटुकार पत्रकारिता
खैरनार बेबाक होकर कहते हैं कि आज पत्रकारिता बदलाव के दौर में है. यह पहले मुहिम था आज पेशा बन गया है. कभी जनहित की खबरें पड़ोसी जाती थी अब ऐसी खबरें दरकिनार कर दी जाती है. पूंजीपति और अतिसंपन्न लोगों से जुड़ी खबरों केा सर्वाधिक महत्व दिया जाता है और अंतिम कतार में खड़े लोगों की खबरें गायब हो रही है. पत्रकारिता का क्षेत्रीयकरण पूंजीपतियों के राजस्व को बढ़ा रहा है और रचनात्मक जनान्दोलन के धार को कुन्द किया है. अतीत को निहारते हुए खैरनार ने कहा कि पत्रकारों की प्रखर लेखनी सामाजिक वर्जनाओं के खिलाफ जहां लोक जागृति का कार्य किया वहीं सत्ता को भी हिलाते रहे. यह पत्रकारों ने अपने वर्ग स्वार्थ को भुलाकर किया और स्वयं दमन के शिकार होते रहे. लेकिन आज सत्ता सम्पोषित चाटुकार पत्रकारिता अपना स्थान बना ली है. बहरहाल आज भी चंद अच्छे पत्रकार संजीदगी के साथ लिख रहे हैं.
जनता को गोलबंद होना पड़ेगा
पत्रकारिता जगत को अब यह भरोसा नहीं है कि पढ़ने, सुनने, देखने लायक सामग्री, समाचार या विचार के बल पर वह ग्राहक पा सकेगी. राजनीति ने भी मान लिया है कि वह आदर्श या सिद्धान्त के भरोसे सत्ता प्राप्त नहीं कर सकती. राजनीति के पास जातीयता, साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता, भाषावाद,गठबन्धन और मोर्चाबन्दी विकल्प है वहीं मीडिया के पास जनता को भरमाने के साथ राजस्व उगाही का विकल्प रह गया है. ऐसे युग में शुद्ध राजनीति और स्वस्थ्य पत्रकारिता की चर्चा करना बेमानी ही होगी. इसके लिए जनता अधिक दोषी है. लेकिन सरकारें निरक्षरों को साक्षर और साक्षरों को शिक्षित बनाने में अभिरुची नहीं ले रही है तथा ऐसी स्थिति बरकरार रख कर वह अपना हित साध रही है. ऐसी स्थिति में जनता को गोलबंद होकर अपना नेतृत्व करना चाहिए.
बिहार से जनआंदोलन करने की तैयारी
खैरनार शून्य को निहारते हुए कहते हैं कि आज के हालात में फिर एक बार जयप्रकाश की आवश्यकता है. वे जयप्रकाश तो नहीं बन सकते हैं लेकिन जल्द ही अन्य सूबों के साथ साथ बिहार जायेंगे और समविचार वाले साथियों को एकत्रित कर व्यापक आन्दोलन की संभावना तलाशेंगे ताकि मज़बूत लोकशाही के लिए भ्रष्टाचार के खिलाफ जनजागरण हो सके.
( नोट: 1980 से हिन्दी पत्रकारिता के माध्यम से समाजिक सरोकर से जुड़ कर काम करने वाले बिहार के वरीय पत्रकार डॉ. देवाशीष बोस इन दिनों कैंसर से पीड़ित होकर मुम्बई में अपना इलाज करा रहें हैं. इसकी जानकारी पाने के बाद तत्कालिक मनपा आयुक्त जीआर खैरनार डॉ.बोस से मिले और उन्हें जल्द स्वस्थ्य होने की शुभकामनायें दी. उपरोक्त बातचीत इसी मुलाकात के दौरान हुई.)