Holi Special

पिया बिन नाही आवत चैन…

Bindu Chawla for BeyondHeadlines

खयाल के साथ-साथ ध्रुपद-धमार, ठुमरी-दादरा सब गाने वाले चौमुखी गायक कहलाते थे. होरी पर होरी-धम्मार और होरी काफी की धूम रहती है. शास्त्रीय संगीत वाले रंगों की फुहार को मन में श्रृंगार, करुणा और भक्ति के रस-रंग का छलकना ही समझते हैं. सइयां हो या साईं होरी के एक-एक बोल योग-वियोग की कहानी ही कहते हैं.  शास्त्रीय संगीत गाने वालों में ‘चौमुखी गायक वे कहलाते थे जो सब कुछ गा सकते थे-उन्हें खयाल के साथ-साथ ध्रुपद-धमार भी आता और ठुमरी दादरा के साथ-साथ वे होरी ठुमरी, होरी काफी भी गाते. आप फरमाइश करके तो देखिए! यह अलग बात है कि उनका गाना किसी एक शैली में ज्यादा प्रस्तुत किया जाता था. होली और शास्त्रीय संगीत के संबंधो को बयां करता बिन्दु चावला का यह आलेख-

Photo Courtesy: commentexpress.com

इन दिनों उत्तर भारत में, खास तौर पर ब्रजभूमि में जगह-जगह होरी काफी, होरी धम्मार गाए जाने की प्रथा है. होरी धम्मार यानी वह धम्मार जिसके बोल होरी के बारे में होते हैं ओर होरी काफी, जो एक ही राग-राग काफी में गाए जाने वाली ठुमरी है, जिसके बोल होरी के बारे में होते हैं. शास्त्रीय संगीत वाले रंगों की फुहार को मन में श्रृंगार, करुणा और भक्ति के रस-रंग का छलकना ही समझते हैं-सइयां हों या साईं एक-एक ठुमरी होरी, एक-एक ठुमरी धम्मार के बोल योग और वियोग की कहानी ही कहते हैं-‘आग लगे ऐसों फाग/ सखी मोहे भाग ही फूटे/ फागुन में पिया घर तो आए/ प्रीति पुरानी कहां धरि आए/ हम सजन की तजि/ हमरों रंग फाग ही झूठे’ फागुन का रंग तब चढ़ता है जब सइयां घर आए. और आवे तो प्रीति जतावे. इसी बात को सूफियाने अंदाज में देखा जाए तो प्रभु भक्ति भी तभी सवाई होती है जब प्रभु का आशीर्वाद किसी न किसी अनदेखे साक्षात्कार में मिल जाए या प्रकट हो जाए. कृष्ण मंदिरों में होरी धम्मार गाने वाले यही उद्गार अपने मन में रखते हैं.

प्राचीन ध्रुपद-धम्मार से कुछ कम नहीं हमारे कव्वाल जो होली के उपलक्ष्य में अमीर खुसरो के ज़माने से इन रंगों के दिनों को सजदा करते आ रहे हैं: आज रंग है रंग है, रे मां. आज रंग है रंग है. सजन मिलाने मां, कन्त मिलाने मां, आज रंग है, रंग है. होरी-ठुमरियों में भी कितने ‘रंग-गुलाल’ पर मिलते हैं. वही गुलाल जो सुहाग का रंग भी है और भक्ति का भी. माथे पर उसी जगह लगाया जाता है जहां तीसरा नेत्र खुलता है- ‘लाली देखन मैं चली, मैं भी हो गई लाल.

चौमुखी गायक अलग-अलग तालीम नहीं लेते थे. खयाल, ध्रुपद, ठुमरी, होरी-अलग-अलग तो ये सब हुए. खयाल वाले कहते, ‘ठुमरी भी कोई अलग से सीखने की शैली है’ सरोदवादक बाबा अलाउद्दीन खां साहिब से एक बार एक शिष्य ने राग झिंझोटी सिखाने की गुस्ताखी कर दी तो बाबा भड़क उठे-इसे भी मुङो सिखाना होगा? यानी ध्यान लगाने की बात है-क्या मन के संस्कार उसे खोज कर बना न लेंगे!

और यहीं से बनी वह जिसे खयाल वालों की ठुमरी कहा जाने लगा. जो ‘पक्के रागज् गाने वालों के पास ही मिलती और कहीं नहीं. उस्ताद अब्दुल करीम खां साहिब का ‘पिया बिन नाही आवत चैन’ किसी को भूल सकता नहीं! उस्ताद बरकत अली खां-उस्ताद बड़े गुलाम अली खां के छोटे भाई, और गुलाम अली, पाकिस्तान के गुरु-पूरी रागदारी से पटियाला गायकी गाते, लेकिन उनकी ठुमरी ही सुनी गई और मशहूर हुई. बड़े गुलाम अली खां साहिब-उनकी ठुमरी खयाल जसी आदरणीय थी और उनका खयाल ठुमरी की तरह मन को छू लेता था. गायकों को मालूम सब होता, लेकिन कुछ उसमें से, प्रस्तुतिकरण के लिए रखा जाता.

इंदौर घराने के मशहूर उस्ताद अमीर खां साहिब एक बार घर पर रियाज में थे, जब उनकी तीसरी पत्नी रईसा बेगम, अपनी मां के घर-घराने के बारे में कुछ ज्यादा ही तारीफ कर बैठीं, तो खां साहिब बोले, ‘जरा लाना यह तबला इधर’ और ऐसा उस रोज उन्होंने तबला बजाया की बेगम धक रह गई. क्या लग्गी और क्या खेले! और कहते हैं कि खां साहिब ने कई सालों के बाद तबला उस रोज छुआ था.

इसी तरह इंदौर घराने के पंडित अमरनाथजी जो काफिया गाते, पंजाब की गीत-शैली, जो संतों के बोलों पर आधारित होती है-ऐसी ठुमरी गाते, किसी को मालूम नहीं था। राग काफी में उनकी एक ठुमरी है, जिसमें बोल उन्हीं के हैं:

लागी रे न्यारी लगन मितवा सों हमारी

अनहद बानी प्रीत जतावे,

जिया जानत सगरी

औरन की प्रीत मुख देखन की,

हमरी तो प्रीत नाम सिमरन की

रटत करट सगरी.

मेरी लगन एक अनकही बानी है जिसके नाम को रटने से तर जाते हैं.

यह एक मौन का जाप है. वही प्रीत का जाप भी है.

Loading...

Most Popular

To Top

Enable BeyondHeadlines to raise the voice of marginalized

 

Donate now to support more ground reports and real journalism.

Donate Now

Subscribe to email alerts from BeyondHeadlines to recieve regular updates

[jetpack_subscription_form]