Edit/Op-Ed

हमें कानून व्यवस्था को भी धर्म निर्पेक्ष बनाना होगा…

Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines

पिछले मंगलवार को पिपुल्स कैंपेन अगेंस्ट पॉलिटिक्स ऑफ टेरर (आतंक की राजनीति के खिलाफ अभियान) के रहनुमाओं ने देश के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे और गृह राज्य मंत्री आरपीएन सिंह से मुलाकात की. सांसद एबी बर्धन के नेतृत्व में दल गृहमंत्री से मिला और अपनी मांगे रखी. मुलाकात के बाद देश के गृहमंत्री ने निर्दोष लोगों की गिरफ्तारी के मामलों को फास्ट ट्रैक कोर्ट में चलाने की मांग स्वीकारने की बात कही.

गृहमंत्री ने कहा, ‘हम मांगों पर विचार करेंगे और ज़रूरी हुआ तो आतंक के मामले में गिरफ्तार होने वाले मुसलमान नौजवानों के मामलों के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित करेंगे.’ प्रतिनिधिमंडल ने 14 सूत्रीय मांगें गृहमंत्री के समक्ष रखी थी जिनमें दो साल से अधिक से जेल में बंद लोगों को ज़मानत पर रिहा किए जाने की मांग भी थी. यही नहीं, इससे पहले गृहमंत्री ने अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री के रहमान खान को निर्दोष मुसलमानों की गिरफ्तारी के मामलों को विशेष अदालतों में चलाने का भरोसा दिया था.

लेकिन ऐसा नहीं है कि सिर्फ आतंक के मामलों में ही मुसलमान जेल जाते हैं. सामान्य अपराध के मामलों में भी भारी संख्या में मुसलमान जेलों में बंद हैं. और सिर्फ मुसलमान ही नहीं, बल्कि दूसरे अल्पसंख्यक धर्मों के लोग भी भारी संख्या में जेलों में बंद हैं.

JAIL

यदि आंकड़ों पर नज़र डाली जाए तो देश में अल्पसंख्यकों आबादी लगभग बीस फीसदी है, लेकिन जेल में बंद कैदियों में से 28 फीसदी का संबंध अल्पसंख्यक धर्म के लोगों से है. दलितों और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों की हालत तो और भी दयनीय है. जातिगत आधार पर बात की जाए तो जेल में बंद कैदियों में से 65 फीसदी एससी-एसटी और ओबीसी हैं. ये जातियां हिन्दुस्तान में पिछड़ी व गरीब मानी जाती हैं. अर्थात् समाजशास्त्रीय तरीके से देखा जाए तो अपराध करने, कराने के पीछे इनकी आर्थिक विपन्नता भी एक कारण हो सकती है.

बहरहाल, नेशनल क्राईम रिकार्ड ब्यूरो से 2011 के अंत तक के प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक हमारे देश में कुल 1382 जेल हैं. और इन 1382 जेलों में अधिक से अधिक 332782  कैदियों को रखा जा सकता है. लेकिन फिलहाल 372926 कैदी जेलों में अपनी सज़ा काट रहे हैं. साल 2011 में 1373823 अंडर ट्रायल कैदियों को रिहा कर देने के बाद भी 241200 यानी 64.7 फीसदी लोग अभी भी अंडर ट्रायल हैं. यही नहीं,  2450 लोगों को सिर्फ शक की बुनियाद पर गिरफ्तार किया गया है.

आंकड़े यह भी बताते हैं कि 2001 के जनगणना के अनुसार 13.43 फीसदी की आबादी वाले मुसलमान की जेलों में आबादी इस समय (2011 के अंत तक) 20.1 फीसदी  हैं. इससे दो संकेत मिलते हैं, या तो अपराधों में मुसलमान ज्यादा लिप्त हैं या फिर मुसलमानों के खिलाफ ज्यादा मामले दर्ज किए जाते हैं. यदि पिछले कुछ सालों के आतंकवाद के मामलों की रोशनी में  इन आंकड़ों को देखा जाए तो दूसरा अनुमान ज्यादा सही लगता है.

दरअसल जेल में वही लोग पहुंचते हैं जिनके खिलाफ मामला दर्ज किया जाता है और यह बात शक से परे प्रमाणित हो चुकी है कि अक्सर मुसलमानों के खिलाफ मामला दर्ज करने में पुलिस जल्दबाजी दिखाती है. उदाहरण के तौर पर देश में हुए दंगों के आंकड़े लिए जा सकते हैं. अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में कुरान के अपमान के लेकर पुलिस और लोगों के बीच झड़प हुई थी. इस घटना में पुलिस के जो भी बच्चा, बूढ़ा या जवान हाथ लगा था उसे जेल में बंद कर दिया गया था. कई तो नाबालिग छात्रों को भी जेल भेज दिया गया था. और यह अपने आप में अकेला मामला नहीं है, यदि इतिहास के पन्नों को पलटा जाए तो ऐसे बहुत से अन्य मामले रोशनी में आएंगे.

अब सवाल यह उठता है कि मुसलमानों के जेलों से दूर कैसे किया जाए. इसका सीधा सा जबाव यही है कि पुलिस व्यवस्था को सुधारा जाए और हालात ऐसे बनाए जाएं कि सिर्फ वास्तविक मामले ही दर्ज हो पाएं. इसके लिए जेल में बंद प्रत्येक बेगुनाह के लिए मज़बूती से आवाज़ उठानी होगी. आतंक के मामलों में जेल में बंद लोगों के लिए आवाज़ उठाना बहुत ज़रूरी है, लेकिन उतना ही ज़रूरी उन निर्दोष लोगों के लिए भी है जो अन्य मामलों में जेलों में बंद हैं. और सबसे बड़ी बात यह है कि भारत धर्म-निर्पेक्ष देश है, यहां सब धर्म के लोगों को बराबरी का अधिकार है, लेकिन सिर्फ भारत को धर्म निर्पेक्ष बनाने से कुछ नहीं होगा, हमें कानून व्यवस्था को भी धर्म निर्पेक्ष बनाना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि कोई भी बेगुनाह चाहे वह किसी भी धर्म का है जेल न जा पाए.

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