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दीपिका के दांतो पर करम, आम जनता के हिस्से में केवल भरम

Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines

मसूढ़ों की बीमारी, दांतों की समस्या, मुंह के रोगों से इस देश की तकरीबन 80 से 90 फीसदी जनता जूझ रही है. यह हम नहीं कह रहे हैं, सरकार खुद स्वीकार कर रही है. आपके घर में, आपके बुजुर्गों को, आपके लाडलों को और आपके अपनों को यह बीमारी धीरे-धीरे अपनी चपेट में लेती जा रही है. कागज़ों पर सरकार ने इससे निपटने के लिए पूरा का पूरा तंत्र खड़ा कर दिया है, कागज़ों में करोड़ों रूपये इस बीमारी से निपटने के नाम पर आवंटित तो किए जा रहे हैं मगर ज़मीन पर सब कुछ ध्वस्त हो चुका है.

ज़रूरतमंदों तक न तो कोई इलाज पहुंचा है और न कोई रक़म उन्हें मिली है. सिर्फ टीवी और अखबारों के पन्नों पर दिखती दीपिका पादुकोण के दांतों की चमक, दीपिका की मुस्कुराहट के अलग-अलग एंगल आम जनता की थैली में परोसे जा रहे हैं. सरकार व इंडियन डेंटल एसोसिएशन ने दीपिका को नेशनल ओरल हेल्थ प्रोग्राम की ब्रांड एम्बेसडर घोषित कर दिया है जिसके एवज़ में अच्छी खासी रक़म भी दीपिका के खाते में डाली जा चुकी होगी. मगर जिस आम जनता के नाम पर यह कागज़ी मायाजाल खड़ा किया गया है वो आम जनता आज भी दांतों व मसूढ़ों की कई गंभीर बीमारियों से जूझ रही है. न कोई सुनने वाला है और न ही कोई देखने वाला…

आलम तो यह है कि देश के लोग भी इन बातों व समस्याओं को भूल दीपिका पादुकोण की मुस्कुराहट पर फिदा हैं, और दीपिका को शाहरूख खान की मुस्कुराहट पसंद है. सरकार भी यह चाहती है कि नेशनल ओरल हेल्थ प्रोग्राम की ब्रांड एम्बेसडर को सिर्फ शाहरूख की मुस्कुराहट ही पसंद आए. वह आम जनता के मुस्कुराहट से दूर ही रहे तो बेहतर है. इसके लिए स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय ने अपनी ‘नेशनल ओरल हेल्थ प्रोग्राम’ को फ्लॉप करने का पूरा मन बना लिया है.

truth behind the deepika padukone's smile

BeyondHeadlines को आरटीआई से हासिल महत्वपूर्ण दस्तावेज़ बताते हैं कि मंत्रालय का ‘नेशनल ओरल हेल्थ प्रोग्राम’ पर कोई ध्यान नहीं है. आरटीआई से हासिल अहम दस्तावेज़ों के मुताबिक पिछले चार वर्षों में ‘नेशनल ओरल हेल्थ प्रोग्राम’ के लिए सिर्फ 17.25 करोड़ का बजट रखा गया, लेकिन खर्च हुआ ज़ीरो… यानी इस प्रोग्राम पर कोई खर्च 2009-10 से लेकर 2012-13 तक नहीं किया गया है. सिर्फ वर्ष 2008-09 में 36 लाख रूपये का खर्च हुआ और इस वर्ष इस प्रोग्राम का बजट मात्र 3 करोड़ रूपये था.

स्पष्ट रहे कि स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय के NCD डिवीज़न के द्वारा चलने वाला ‘नेशनल ओरल हेल्थ प्रोग्राम’ का यह कार्यक्रम 1999 में महाराष्ट्र, पंजाब, दिल्ली, केरल और नॉर्थ इस्ट राज्यों के लिए शुरू किया गया था. इसके लिए नोडल एजेंसी देश की सबसे बड़ी स्वास्थ्य संस्थान ‘एम्स’ को बनाया गया. इस प्रोग्राम के तहत डेन्टल सर्जन, हेल्थ केयर वर्कर्स, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता व स्कूल टीचरों द्वारा लोगों को ओरल हेल्थ की शिक्षा देनी थी कि वो अपने ओरल हेल्थ खासकर अपनी दांतों का ध्यान कैसे रखेंगे?

यही नहीं, एम्स को यह भी ज़िम्मेदारी दी गई कि लोगों को ओरल हेल्थ की शिक्षा देने हेतु वर्कर्स के लिए ट्रेनिंग व ट्रेनिंग मेटेरियल उपलब्ध कराए ताकि वह आम जनता को सही से जागरूक कर सकें. इसके साथ-साथ ज़िला स्तर पर कम्यूनिटी हेल्थ सेन्टर्स व प्राईमरी हेल्थ सेन्टर्स को ओरल हेल्थ शिक्षा को सकारात्मक बनाने व अपने सेट-अप सही करने के लिए गाइडलाइन्स देने की ज़िम्मेदारी भी एम्स के कंधों पर डाली गई.

यही नहीं, इसके तहत हर साल चार क्षेत्रिय व दो राष्ट्रीय वर्कशॉप आयोजित करने को भी कहा गया. इस प्रोग्राम के तहत पुस्तकें, पोस्टर और डॉक्यूमेन्ट्री फिल्म्स बनाने की भी बात कही गई, बल्कि मंत्रालय ने वीडियो फिल्म का नाम भी दिया- ‘कृप्या मुस्कुराईए’. पोस्टर्स के लिए स्लोगन भी जारी किए ‘दांत फिट तो लाइफ हिट’ तथा ‘स्वस्थ्य मुस्कान आपका वरदान’.

यही नहीं, 2004 में मंत्रालय द्वारा इस प्रोग्राम की समीक्षा की गई और फिर 11वीं पंचवर्षीय योजना में इसके लिए 182.09 करोड़ रूपये दिए गए. लेकिन यह प्रोग्राम धीरे-धीरे फ्लॉप होता चला गया. और आज नतीजा आप सबके सामने है.

इस मसले पर स्वास्थ्य के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर काम कर रही प्रतिभा-जननी सेवा संस्थान के राष्ट्रीय समन्वयक आशुतोष कुमार सिंह का मानना हैं कि ‘जिस तरह से सरकारी की स्वास्थ्य नीति की हकीकत लोगों के सामने आ रही है उससे सरकार के प्रति लोगों का मोह भंग होना स्वभाविक है. ज़रूरत इस बात की है कि हम खुद स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहें और अपने हक़ को समझे’

गौरतलब है कि ओरल हेल्थ का हमारे विकास में अहम योगदान है. यदि हमारे मसूड में दर्द है, हम भोजन को ठीक से चबा पाने में असमर्थ हैं तो निश्चित रूप से इसका  असर हमारे स्वास्थ्य पर पड़ेगा. यदि हम अस्वस्थ हैं तो अपनी जिंदगी को ठीक से जी नहीं सकते. स्थिति यह है कि 72 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्र में महज 2 प्रतिशत दाँतों के डाक्टर हैं. जबकि सच्चाई यह हैं कि भारत की 95 प्रतिशत जनता मुंह की बीमारी से किसी न किसी रूप में ग्रसित है.  आंकड़ें बताते हैं कि 50 प्रतिशत लोग ही टूथब्रस का इस्तेमाल करते हैं और 2 प्रतिशत लोग ही डेंटिस्ट के पास जा पाते हैं.

उपरोक्त स्थिति इसलिए है कि हमारी सरकारों ने इस गंभीर समस्या की ओर कभी भी गंभीरता के साथ चिंतन-मनन नहीं किया. जो योजनाएं बनी उसका क्रियान्वयन भी नहीं हो पाया.

ज़रूरत इस बात की है कि सरकार के इस रवैये की हक़ीक़त सिलसिलेवार तरीक़े से जनता के आगे रखी जाए ताकि हमारी ज़िन्दगी की क़ीमत पर कोई लापरवाही या षड़यंत्र अपने अंजाम तक न पहुंच सके.

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