Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines
13 दिसम्बर, 2001 को संसद और 26 नवम्बर, 2008 को मुम्बई में हुए ‘आतंकी हमला’ पर आरंभ से ही सवालिया निशान लगते रहे हैं. ये दोनों ही घटनाएं शुरु से ही संदिग्ध रही हैं. यही नहीं, देश के तमाम मानवाधिकार संगठनों, प्रतिष्ठत पत्रकारों और यहां तक की कई सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारियों तक ने भी इन दोनों घटनाओं की सत्यता पर सवाल उठाए हैं. लेकिन अब गृह मंत्रालय के पूर्व अवर सचिव आरवीएस मणी के इस बयान ने कि ‘दोनों आतंकी हमले की साजिश तत्कालीन सरकारों ने रची थी और इसका मकसद था आतंकवाद के खिलाफ कानून को मज़बूत करना…’ ने भारतीय राजनीति में एक नई हलचल पैदा कर दी है. वहीं वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया को पिछले दिनों आरटीआई से मिले जानकारी और भी गंभीर सवाल खड़े करते हैं.
वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया के राष्ट्रीय महासचिव डॉ. क़ासिम रसूल इलियास ने आरटीआई के ज़रिए गृह मंत्रालय से यह पूछा था कि 13 दिसम्बर, 2001 को संसद पर हुए हमले की जांच के संबंध में क्या कोई जांच टीम/ कमिटी या फिर कमीशन गठित की गई थी. अगर हां! तो फिर उस जांच टीम/ कमिटी या फिर कमीशन में शामिल अफसरों के नाम व पदों की फहरिस्त उपलब्ध कराएं. साथ ही यह भी पूछा कि क्या कोई जांच रिपोर्ट इस जांच टीम/ कमिटी या फिर कमीशन द्वारा तैयार किया गया है. अगर हां! तो इस रिपोर्ट की कॉपी उपवब्ध कराई जाए.
इन दोनों ही सवालों के जबाव में बताया गया है कि इस मामले में पार्लियामेंट स्ट्रीट पुलिस थाने में एक एफआईआर (एफआईआर सं. 417/2001) दर्ज किया गया है, जिसकी जांच स्पेशल सेल के ज़रिए की जा रही है.
अब यह कितना दिलचस्प है इतने गंभीर मामले में अब तक कोई जांच टीम/ कमिटी या फिर कमीशन गठित नहीं किया गया. इससे भी ज़्यादा हैरान कर देने वाली बात यह है कि 12 साल गुज़र जाने के बाद भी आज तक कोई रिपोर्ट पेश नहीं की जा सकी है.
आरटीआई में आगे पूछा गया था कि पुलिस या स्पेशल सेल ने इस संबंध में किसी भारतीय नागरिक को गिरफ्तार किया है? अगर हां! तो इन्हें इस क़ानून के तहत गिरफ्तार किया गया है और इनका मामला अभी किस अदालत में चल रहा है?
इस सवाल के जवाब में यह कहा गया है कि यह जानकारी आपको नहीं दी जा सकती, क्योंकि यह मामला काफी सेंसीटिव है.
आरटीआई में आगे यह भी पूछा गया था कि क्या ज़िम्मेदार पुलिस अफसरों के खिलाफ सेक्यूरिटी के संबंध में कोताही बरतने पर कोई कार्रवाई की गई? इस सवाल के जवाब में अडिश्नल डिप्टी कमिश्नर ऑफ पुलिस संजय त्यागी लोकसभा सचिवालय दोनों ने यह बताया कि इस सवाल का संबंध हमसे नहीं है.
आगे इस आरटीआई में यह भी पूछा गया कि क्या उन सेक्यूरिटी गार्ड्स के विरूद्ध कोई कार्रवाई की गई जिन्होंने संसद के उस एम्बेस्डर कार जाने दिया जिसमें धमाके की सामाग्री व आतंकी मौजूद थे. साथ ही यह भी पूछा कि भारत सरकार के गृह मंत्रालय की ‘सेक्यूरिटी पास’ इन आतंकियों को किसने जारी किया था? इस संबंध में सारे कागज़ात उपलब्ध कराएं.
इन सवालों के जवाब में बताया गया कि एक सेक्यूरिटी अफसर के खिलाफ जांच की गई, लेकिन इल्ज़ाम साबित नहीं हो सका. साथ ही यह भी बताया गया कि पार्लियामेंट सेक्यूरिटी सर्विस की तरफ से कोई पास जारी नहीं किया गया था. ऐसे में यह सवाल उठना लाज़िमी है कि इन आतंकियों के पास भारत सरकार के गृह मंत्रालय की ‘सेक्यूरिटी पास’ आए कहां से और जारी किसने किया था?
इस पूरे मामले में वेलफेयर पार्टी के राष्ट्रीय सचिव डॉ. क़ासिम रसूल इलियास का कहना है कि इस घटना में सरकार व सुरक्षा एजेंसियों की तरफ से जो कहानी पेश की गई, वो खुद ही कई सवालों का जन्म देने वाली थी. चुंकि मामला देश की सुरक्षा से संबंधित था इसलिए उठने वाले विभिन्न सवालों के बावजूद केन्द्र सरकार व खुफिया एजेंसियों की बातों को तमामतर कमज़ोरियों के वाबजूद क़बूल कर लिया गया. यहां तक कि मीडिया ने भी वही राग अलापा जो सरकार चाहती थी.
डॉक्टर इलियास ने यह भी बताया कि 2004 में यूपीए सरकार के समय जब मुस्लिम मजलिस-ए-मशावरात के डेलीगेशन ने मुसलमानों की समस्याओं को लेकर कई केन्द्र मंत्रियों से मुलाकात की थी, इस दौरान एक कैबिनेट मंत्री ने बातचीत में संसद पर हमले को बनावटी व नाटक क़रार दिया था.
इस संबध में रिहाई मंच के प्रवक्ता शाहनवाज आलम और राजीव यादव ने कहा कि ये दोनों ही घटनाएं और उनमें आए फैसले सिर्फ मुसलमानों के लिए ही नहीं बल्कि लोकतंत्र के लिए अच्छे संकेत नहीं रहे हैं. क्योंकि इनके बाद मुसलमानों की आतंकी छवि बनाने की कोशिशें लगातार की गयीं खास कर अफजल की फांसी की सजा जिसे ठोस सुबूतों के बजाए सिर्फ देश के एक हिस्से के उग्र हिंदुत्ववादी आकांक्षाओं को संतुष्ट करने के लिए सुनाया गया और अंततः न्यायिक प्रक्रिया को धता बताते हुये उसे फांसी पर भी चढ़ा दिया गया. जिसका न जाने कितने निर्दोषों को जो आतंक के आरोप में फंसाए गये हैं कि मुक़दमों और फैसलों पर गलत असर पड़ा. उन्होंने कहा कि इस खुलासे की जांच से हालांकि अफ़ज़ल वापस जिंदा तो नहीं हो सकता लेकिन इसकी जांच आईबी और दूसरी सुरक्षा एजेंसियों की आतंकी और देश विरोधी गतिविधियों की पोल खोल देगा जो लोकतंत्र को बचाने के लिए ज़रूरी है.