Edit/Op-Ed

लड़ने वालों को और संगठित होकर लड़ना होगा

Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines

जामिया से मेरा रिश्ता सात जनम का तो नहीं लेकिन सात साल का ज़रूर है. जामिया की तालीम ने ही मेरे ख्यालों को रोशन किया है. यहां की आबो-हवा में ही मेरे जज्बे ने मज़बूती पाई है. जामिया ने ही मुझे जीने का मक़सद और इंसाफ के लिए लड़ने का हौसला दिया है.

19 सितंबर 2008 को जब बटला हाउस में हुए पुलिस एनकाउंटर में जामिया के छात्रों की मौत और कई गिरफ्तारियां हुईं तो उसके बाद जामिया कई सवालों के घेरे में आ गई, तब मैंने जामिया पर लगे दागों को धोने को अपनी जिंदगी का मक़सद बना लिया. मैं उस वक्त पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा था. मैंने एक सवाल खुद से किया कि अगर मैं इंसाफ के लिए आज आवाज़ नहीं उठा सकता तो कल किसी भी मामले पर लिखने कैसे बैठ सकता हूं?

Batla House Encounterजामिया पर गहरे दाग़ लगे थे. अख़बारों की सुर्खियां जामिया के छात्रों को आतंकी बता रही थी. बटला हाउस का सच ही जामिया पर लगे दागों को धो सकता था और मैंने अपना सबकुछ बटला हाउस एनकाउंटर का सच सामने लाने में लगा दिया. इसलिए नहीं कि मारे गए या गिरफ्तार हुए छात्र मेरे क़रीबी थे या उनसे मेरा कोई भी रिश्ता था, हादसे से पहले मैं उनके नाम तक से वाकिफ़ नहीं था, बल्कि सिर्फ इसलिए क्योंकि वो जामिया के छात्र थे.

ये जिक्र करना ज़रूरी नहीं है कि बटला हाउस मामले के सच को सामने लाने के लिए मैंने क्या-क्या किया है, लेकिन ये जिक्र करना ज़रूरी है कि मैंने ऐसा क्यों किया है. सत्य, अहिंसा, आपसी सौहार्द और देश प्रेम जैसे लोकतांत्रिक मूल्य जामिया में पढ़ाई के दौरान ही मैंने खुद में विकसित किए. यहां की तालीम ने ही मुझे हक़ के लिए लड़ना सिखाया. मैंने जामिया में जो कुछ भी किताबों में पढ़ा उसे अपने चरित्र का हिस्सा बना लिया. मैं बटला हाउस एनकाउंटर के सच को सामने लाने की लड़ाई इसलिए लड़ रहा हूं क्योंकि मैं उन सवालों का जवाब चाहता हूं जो अक्सर मुझे बैचेन करते हैं. क्योंकि मैं जानना चाहता हूं कि मेरे हमवतनों को किन से ज्यादा ख़तरा है.

यह हक़ की लड़ाई है, यह जिंदगी की लड़ाई है. अगर बटला हाउस एनकाउंटर सही साबित हुआ तब भी मुझे सुकून मिलेगा क्योंकि इससे हमारी सरकार और सुरक्षाबलों में मेरा विश्वास और भी ज्यादा बढ़ जाएगा.  और अगर यह फर्जी साबित हुआ तो देश की जनता को पता चल जाएगा कि किनसे उन्हें ज्यादा ख़तरा है. मैं तब तक यह लड़ाई लड़ता रहूंगा जब तक सच को जानने की बैचेनी मुझमें रहेगी. और मैं यह मानता हूं कि लोकतंत्र में मुझे सच जानने का उतना ही अधिकार है जितना की खुली हवा में आजादी से सांस लेने का.

आज बटला हाउस ‘एनकाउंटर’ के पांच साल पूरे हो चुके हैं. इन 5 सालों में सिर्फ सरकार ने ही नहीं, बल्कि अपनो ने भी कम दग़ा नहीं दिया है. इन पांच सालों में खूब राजनीति हुई है. ज़रा सोचिए कि यह बात कितना दिलचस्प है कि जो नेता इसी बटला हाउस ‘एनकाउंटर’ की वजह से विधायक बना, वही अब सरकार के साथ है. यहां के सारे नेता इसके नाम पर अपनी राजनीति चमकाना चाहते हैं. वहीं इस के नाम पर एक्टिविज्म भी खूब हुआ है. सच तो यह है कि एक्टिविस्ट के साथ-साथ वकील भी चाहते हैं कि यह मुद्दा जिन्दा रहे ताकि इसके नाम भारी भरकम मलाई खाई जाती रहे.

आज से 5 साल पूर्व डर व भय का जो माहौल था. उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता. इस मुश्किल घड़ी में जामिया मिल्लिया इस्लामिया तत्कालीन वाइस चांसलर मुशीरूल हसन ने पहल किया और यह ऐलान किया कि जामिया के छात्रों को डरने की कोई आवश्यकता नहीं है. हम आपके गार्जियन हैं और आपके सुरक्षा की ज़िम्मेदारी हमारी है. और साथ ही उन्होंने जामिया के गिरफ्तार दो छात्रों के लिए कानूनी मदद की भी बात की. और इस बात पर खूब राजनीति भी हुई. जामिया ने इस सिलसिले में दो कमेटियां ही बनाई. एक लीगल एड कमिटी तो दूसरी स्टूडेंट रिलीफ कमिटी… नेताओं द्वारा कहा गया कि एक सेन्ट्रल का पैसा सरकार का पैसा होता है, उसे कैसे कानूनी सहायता के तौर पर लगाया जा सकता है.

जामिया बिरादरी आगे आया और कहा कि पैसा सरकार का नहीं, बल्कि हमारा लगेगा. और ईद के दिन छात्रों ने तकरीबन एक लाख रूपये का चंदा किया. साथ ही जामिया टीचर्स ने यह ऐलान किया हम अपनी एक दिन की सैलरी इस काम के लिए देंगे. साथ ही जामिया बिरादरी से संबंध रखने वाले कई लोगों ने मदद की बात की.

लेकिन इन पैसों का क्या हुआ? इस सच को हमारा ही इदारा जामिया भी हमेशा छिपाता रहा है. आरटीआई के जवाब देने से हर बार बचा जाता रहा है. वहीं जामिया ने इस सिलसिले में अब तक कितने पत्राचार सरकार के विभिन्न विभागों व मंत्रालयों के साथ किया है, इसके जवाब में जामिया का कहना है कि हम सूचना के अधिकार की धारा-8 (1) (a), (g) और (h) के तहत नहीं दे सकते.

यह जवाब मेरे लिए काफी दिलचस्प है. क्योंकि सूचना के अधिकार की धारा-8 (1) (a) यह बताती है कि वैसी सूचना आपको नहीं मिल सकती जिसके प्रकटन से भारत की प्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, रणनीति, वैज्ञानिक या आर्थिक हित, विदेश से संबंध पर प्रतिकुल प्रभाव पड़ता हो, या किसी अपराध को करने का उद्दीपन होता हो.

वहीं सूचना के अधिकार की धारा-8 (1) (g) में लिखा है कि वैसी सूचना जिसके देने से किसी व्यक्ति के जीवन या शारीरिक सुरक्षा को ख़तरे में डालता हो, या जो विधि पर्वतन या सुरक्षा प्रयोजनों के लिए विश्वास में दी गई किसी सूचना या सहायता के स्त्रोत की पहचान करता हो, नहीं दी जा सकती. वहीं सूचना के अधिकार की धारा-8 (1) (h) के मुताबिक वो सूचना आपको नहीं दी जा सकती जिससे अपराधियों के अन्वेषण, पकड़े जाने या अभियोजन की क्रिया में अड़चन पड़े.

अब आप ही सोचिए आखिर हमारी जामिया ने सरकार को क्या लिखकर भेज दिया है कि उन्हें सूचना के अधिकार  के तहत सूचना देने से बचने के लिए इन धाराओं का इस्तेमाल करना पड़ रहा है. जामिया का  लीगल एड दिए जाने के मामले में भी रोल बहुत खराब रहा है. पीड़ित परिवार का कहना है कि उन्हें मदद नहीं मिली. वहीं समाजवादी पार्टी के भूतपूर्व नेता अमर सिंह ने भी जामिया ओल्ड बॉयज़ एसोसियशन को 10 लाख रूपये का चेक दिया था, लेकिन जामिया ओल्ड बॉयज़ एसोसियशन का कहना है कि वो पैसा अमर सिंह ने  एसोसियशन के बिल्डिंग के लिए दिया था. फिर भी हमने उसमें एक लाख रूपये जामिया को दिए हैं. वहीं अमर सिहं कहते हैं कि न तो मैं कभी जामिया का छात्र रहा और न ही मुझे जामिया में कुछ बनना है तो फिर जामिया ओल्ड बॉयज़ एसोसियशन के बिल्डिंग के लिए पैसे क्यों दुंगा. वो पैसे हमने कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए दिए थे.

अब सवाल है कि आखिर जामिया जिसने अपने छात्रों को कानूनी मदद देने का सपना दिखाया था… अब क्यों खामोश है? हकीकत सामने आए इससे उसे परहेज़ क्यों है…? ऑल्ड बॉयज़ एसोसिएशन क्यों पीछे हट रहा है…? अमर सिंह के दिए चंदे का अब तक हिसाब देने में उसे क्या परेशानी है…? हर समय रंग बदलने वाले बटला हाउस के स्थानीय विधायक आसिफ मोहम्मद खान के पास भी लाखों चंदे के रुपये हैं… उनकी हालिया सियासी दुनिया तो बटला हाउस एनकाउंटर के नाम पर चमकी थी… उनसे तो उम्मीद करना बेमानी है…

जवाब सीधा है… गीला गैरों से क्यों है… अपनों ने भी इंसाफ नहीं किया है… इन हालात में जो भी लड़ाई लड़ी जाएगी… लड़ने वालों को और संगठित होकर लड़ना होगा.

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