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राम भरोसे हैं बिहार के चीनी मीलों से जुड़े किसान और मजदूर

Rajeev Kumar Jha for BeyondHeadlines

मोतिहारी (बिहार) : बिहार में चल रहे 11 चीनी मीलों में अधिकांशतः खस्ता हाल में हैं. तात्पर्य यह कि इनमें कार्यरत कर्मचारियों, इनसे जुड़े हुए किसानों को अपने भविष्य को लेकर चिंता सालती रहती है. कई मजदूर भुखमरी के कागार पर आ गए हैं. तो किसान गन्ने की खेती करने से कतरा रहे है. यह खुलासा तब हुआ जब सुगौली, लौरिया, रीगा चीनी मीलों में कार्यरत मजदूरों कर्मचारियों और चीनी मीलों से जुड़े हुए किसानों से उनकी समस्याओं पर बात की गयी.

सुगौली चीनी मिल एच.सी.पी.एल. कम्पनी के बैनर तले चल रही है. लेकिन हाल में ही यह मील विवादों में है. कारण कि इसमें कार्यरत लगभग डेढ़ सौ मजदूरों से तीन वर्षो तक काम लेने के बाद निकाल दिया गया था. बिना कारण बताये सुगौली चीनी मिल में तीन साल काम लेने के बाद मील प्रबन्धन ने लगभग डेढ़ सौ मजदूरों को काम से निकल दिया था. फिर मजदूरों नें धरना और फिर भूख हड़ताल किया. कुछ की हालत बिगड़ी. फिर इसे बिहार मानवाधिकार ने हाथों-हाथ लिया और अंततः प्रबंधन को झुकना पड़ा. इसी चीनी मिल के एक छटनी ग्रस्त कर्मचारी मधुसूदन (24) कहते हैं-

तीन वर्षों तक काम लेने के बाद बिना किसी कारण के हमे निकाल दिया गया था. हमारे बाल बच्चे भूखे मरे, इससे अच्छा था हम ही चीनी मिल के चौखट पर अपनी जिंदगी ख़त्म कर लें. हम सभी 150 वर्कर्स धरना और अनशन पर बैठ गए. अब मिल प्रबंधन से यह आश्वासन मिला है कि हमलोगों को मिल में पुनः बहाल किया जाएगा.

प्रबंधन द्वारा निकाले गए वर्कर्स में सुरेश राय (38), रामबाबू(23), शाहजाद हुसैन (38), नरेन्द्र राम (42) आदि सभी ने एक सुर से यह आरोप लगाया कि मील प्रबंधन द्वारा उनके साथ बहुत ही अभद्र व्यवहार  किया जाता है.

जिले के अधिकांशतः गन्ना किसानों का कहना है कि अब गन्ना की खेती उनके लिए घाटे का सौदा है. चीनी मिल प्रबंधन द्वारा लगातार उनकी अनदेखी की जाती है. जब जिसे चाहे मील में बहाल कर दिया और जिसे चाहे निकाल दिया जाता है. यह अन्याय है.

सुगौली चीनी मिल में कार्यरत च वर्कर्स को कुछ वर्षों तक काम करा कर बिना किसी कारण हटाने के मामले को  मानवाधिकार नियंत्रण प्रकोष्ठ भी गंभीरता से लेता है.

मानवाधिकार नियंत्रण प्रकोष्ठ के प्रदेश संयोजक ज्ञानेश्वर गौतम कहते हैं- यह मानवाधिकार हनन का मामला है. आप किसी से लगातार दो-तीन सालों तक काम लेकर बिना किसी कारण के नहीं निकाल सकते. सुगौली चीन मिल में ऐसा मामला आया तो हमने इसे गंभीरता से लिया और अंततः उन्हें इन छटनीग्रस्त वर्कर्स को काम पर रखना पड़ा. हम लगातार इस तरह के मामलों पर नज़र रखे हुए हैं. किसी भी कंपनी या विभाग को मानव के अधिकारों के हनन का कोई अधिकार नहीं है.

इंजीनियर पद से रिजाइन देकर समाज सेवा में जुटे शमीम कहते हैं- बिहार में नहीं पूरे हिन्दुस्तान के किसानों की स्थिति दिन ब दिन बिगड़ती जा रही है. चीनी मीलों पर आश्रित किसानों और मजदूरों की स्थिति तो और नाजुक है. हर दिन सैकड़ों किसान खेती छोड़ मजदूरी करने बाहर के प्रदेशों में पलायन कर रहे हैं. यह बाद में बहुत ही घातक होगा. सरकार को चाहिए कि वह घोषणाओं और आंकड़ो का खेल जल्द ही किसानों की सुधि ले.

सुगौली चीनी मिल में दैनिक मजदूरी पर कार्यरत मजदूरों की स्थति बुरी हो चली है. गन्ना की खेती करने वाले किसान भी अब इसे बंद करने की सोचने लगे है. उन्हें मिल-प्रबंधन के रेट लिस्ट और सरकार की घोषणाओं पर अब भरोसा नहीं रहा. हाल में जो चीनी मीलों के नियम कानूनों में बदलाव हुए हैं, उसे भी किसान अपने लिए अहितकर मानते हैं. स्थानीय लोग भी सुगौली चीनी मिल की गतिविधियों से खफा है. एच सी पी एल कंपनी द्वारा चलने वाली सुगौली मिल पर स्थानीय लोगों के कड़े आरोप हैं.

वरीय समाजसेवी नुरुल होदा कहते हैं- कंपनी को किसानों की फ़िक्र नहीं. जब मील खुली थी तो वादा किया गया था कि प्रखंड में मील के समीपवर्ती इलाकों में लगातार बिजली दिया जाएगा. लेकिन बिजली का सप्लाई गोपालगंज कर दिया जाता है. चीनी उत्पादन पर ध्याम कम एथेनौल उत्पादन पर मील प्रबंधन का ध्यान ज्यादा रहता है.

मानवाधिकार नियंत्रण प्रकोष्ठ के वरीय सदस्य राकेश कहते हैं- बिहार के चीनी मीलों में कार्यरत मजदूरों, किसानों के साथ किसी भी शर्त पर उनके अधिकार हनन को प्रकोष्ठ गंभीरता से लेगी. सुगौली चीनी मिल, रीगा चीन मिल, अथवा बिहार में किसानों के अधिकारों का हनन न हो, इस पर हम कड़ी नज़र रखे हुए हैं.

सुगौली के अलावा रीगा चीनी मिल के प्रबंधकों ने घाटे में मिल के लगातार चलते रहने की वजह से अगले साल से मिल को बंद करने का ऐलान किया है. धनुका नामक इस कंपनी ने बिहार में दूसरी जगहों पर अपने लगाए चीनी मिल प्लांट को फिलहाल बंद कर रखा है. किसानों का कहना है कि उनका कई वर्षों का पैसा बाकी है. हर बार दिलाशा दिलाई जाती है. थोडा बहुत भुगतान किया जाता है और शेष अगले बार के लिए छोड़ दिया जाता है. यह सिलसिला वर्षों से चल रहा है. यही कारण है कि किसान अब गन्ना की कहती करने से हिचक रहे हैं.

वहीं चीनी मिल प्रबंधन की माने तो इस समय एक किलो चीनी के निर्माण में कुल लागत 37 से 38 रुपए आती  है. जबकि विदेशों से निर्यात हो रही चीनी 28 रूपए प्रति किलो देश में आ रही है. ऐसे में बढ़ती लागत और कम होते राजस्व से बिना सरकारी सहायता के कैसे निपटा जाए?

अगर सीतामढ़ी की ‘रीगा चीनी मिल’ की बात करें तो इसकी हालत जर्जर हो चुकी है. मिल प्रबंधन के अनुसार मिल पिछले तीन सालों से लगातार 9 करोड़ के घाटे में चल रही है. घाटे से उबरने के लिए सरकार के सहयोग को लेकर मिल प्रबंधन लगातार सरकार से सहायता का अनुरोध कर रहा है, लेकिन इसके बावजूद सरकार इस मिल की सुध लेने को तैयार नहीं है.

लगातार बढ़ते घाटे और खाली हो चुके बैंक एकाउंट के चलते रीगा चीनी मिल प्रबंधन ने गन्ना किसानों को गन्ने के दामों का भुगतान करने में अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी है. सरकार की इस बेरुखी से मिल प्रबंधन दुखी है, जबकि ‘धनुक’ नाम की इस कम्पनी को दरभंगा में भी चीनी मिल का प्लांट लगाने की अनुमति सरकार से मिली थी.

दूसरी तरफ, मील प्रबंधन के इस ऐलान के बाद गन्ना किसानों में बेचैनी बढ़ गयी है. जाहिर है कि सीतामढ़ी की इस मिल से तकरीबन 64 हजार किसानों का रोजगार जुड़ा है, तो बेचैनी बढ़ेगी ही. इतना ही नहीं, इस मिल से करीब 700 कर्मियों का भरण पोषण होता है, जिनका मिल के बंद हो जाने के बाद क्या होगा? कुछ पता नहीं. अब देखना यह है कि उत्तर बिहार की इस चीनी मिल को बचाने के लिए सरकार कोई पहल करती है या उत्तरी बिहार के किसानों के लिए नकदी फसल को खपाने का यह इकलौता ज़रिया भी बंद हो जाएगा. स्थानीय लोगों को सरकार द्वारा इस बाबत क़दम उठाए जाने का इन्तजार है.

बताते चलें कि बिहार में इस वक्त दर्जन भर चीनी मिल काम कर रहे हैं, जिनकी कुल पेराई क्षमता करीब 58,000 टन प्रति दिन की है. राज्य सरकार के मुताबिक जल्द ही यह बढ़कर 70,000 टन हो जाएगी.

विभाग कहता है कि राज्य में गन्ने की पेराई क्षमता में काफी इजाफा हुआ है. राज्य के अधिकतर चीनी मिलों ने अपनी पेराई क्षमता में 30-100 फीसदी का इजाफा किया है. इसीलिए इस साल पेराई के लक्ष्य को भी बढ़ाकर 70 लाख टन कर दिया है. इससे राज्य सरकार को इस साल बिहार के चीनी मिलों से करीब 6 लाख टन चीनी उत्पादन की उम्मीद है. लेकिन यह बस रिकॉर्ड्स की बातें हैं. आंकड़ों के इस खेल में न तो गन्ना किसान खुश हैं और न हीं चीनी मिल में काम कर रहे वर्कर्स…

(लेखक ग्रामीण पत्रकार हैं, जिनसे cinerajeev@gmail.com  पर संपर्क किया जा सकता है.)

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