Afaque Haider for BeyondHeadlines
लोहिया कहते थे कि पार्टी परिवार होता है. लेकिन हमारे देश के राजनेताओं ने तो अपने परिवार को ही पार्टी बना डाला. आज भारत में लोकतंत्र बस कुछ परिवारों तक ही सिमट कर रह गया है. लोकतंत्र में जनता का शासन होता है, लेकिन भारतीय लोकतंत्र का विशलेषण किया जाए तो पता चलेगा कि यहां परिवार का शासन है. ये परिवार सियासी पार्टियों को ‘प्राईवेट लिमेटेड’ कंपनी की तरह चला रहे हैं.
नब्बे के दशक में मंडल और कमंडल की राजनीति से शिखर पर पहुंचे लालू प्रसाद यादव ने इस बार परिवारवाद की हद कर दी. कभी सामाजिक न्याय के अगुआ रहे लालू यादव ने सामाजिक न्याय को परविार के लिए कुर्बान कर दिया. पत्नी के साथ-साथ बेटी को भी लोकसभा का टिकट दे दिया. इसके लिए अपने सबसे करीबी सिपाहसालार को भी कुर्बान करने से गुरेज़ नहीं किया.
कभी पुश्तैनी मकान और जायदाद हुआ करती थी, इस लोकतंत्रिक देश में अब पुश्तैनी सीट भी हो गयी है. जहां किसी खास परिवार के लोग ही चुनाव लड़ सकते हैं, अगर पति चुनाव नहीं लड़ सकता तो पत्नि को टिकट दे दिया जाता है. अगर पिता नहीं लड़ सकता तो बेटे या बेटी को टिकट दे दिया जाता है.
लेकिन लालू यादव पहले ऐसे नेता नहीं हैं. इस परिवारवाद का इतिहास उतना ही पुराना है जितनी पुरानी भारतीय राजनीति… कभी लोहिया के खास सिपाहसालार रहे और लोहिया के विरासत को संभालने वाले मुलायम ने तो परिवादवाद को चर्म पर पहंचा दिया.
इन्होंने लोहिया के आर्दशो और सिद्धांतों को तिलांजली देते हुए अपने परिवार को ही पार्टी बना डाला. आज इनकी पार्टी और सरकार के सारे पदों पर इनके घर के लोग विराजमान हैं. इनके परिवार में कोई भी ऐसा नहीं बचा जो बालिग हो और सियासत में न हो. अब इनकी पार्टी पूरी तरह से ‘फैमली बिज़ेनेस’ हो गयी है.
परिवारवाद की चर्चा बिना कांग्रेस के अधूरी है. इस देश में आधे समय से ज्यादा इस परिवार की हुकूमत रही. इस परिवार से तीन पीढ़ी के लोग प्रधानमंत्री रहे और चौथी पीढ़ी की संभावना है. इस चुनाव में राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद के अघोषित उम्मीवार हैं. ये और बात है कि जितनी इनकी उम्र नहीं होगी उतना इस पार्टी में कार्यकर्ता एडि़या रगड़ते रह जाता है, फिर भी वह एक प्रधानी तक का टिकट नहीं हासिल कर पाता है.
ये परिवारवाद की ही देन है कि इनके पिता को बिना किसी तजुर्बे के प्रधानमंत्री बना दिया गया. जिस देश में 5000 की नौकरी देने से पहले भी तजुर्बे की दरकार होती वहां देश बिना तजुर्बे के सौंप दिया गया और लोकतंत्र में जनता ने हज़म कर लिया.
भारत की दूसरी बड़ी पार्टी और मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा भी परिवारवाद से अछूता नहीं है. यहां परिवार के सदस्यों का आपस में डी.एन.ए मिलाए न मिले, लेकिन ये सारे एक परिवार संघ परिवार से संचालित होतें हैं, जो कहने को एक सांस्कृतिक संगठन है. लेकिन दरहकीकत एक राजनीतिक संगठन है. भाजपा का अध्यक्ष कौन होगा ये पार्टी या इसके सदस्य लोकतांत्रिक तरीके से तय नहीं करते हैं, बल्कि ये संघ तय करता है. एक क्षेत्रीय नेता नितिन गडकरी को राष्ट्रीय पार्टी का अध्यक्ष बिना किसी बहस और विचार विमर्श के बना दिया गया और पार्टी को माननी पड़ती है. एक अति विवादास्पद और अस्वीकार्य नेता को प्रधानमंत्री पद का दावेदार अपने ही पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की अनेदखी कर बिना किसी सर्वसम्मती और विचार विमर्श के बना दिया जाता है और सारे नेताओं को संघ के फरमान के आगे नतमस्तक होना पड़ जाता है. अतः भाजपा में क्या कुछ होगा ये दिल्ली से नहीं बल्कि नागपुर से तय होता है. ठीक उसी तरह जिस तरह कांग्रेस में सब कुछ दस जनपथ से तय होता है. ऐसे में एक प्रश्न स्वाभाविक हो जाता है कि लोकतंत्र है कहां?
16वीं लोकसभा कई मानो में परिवारवाद के दृष्टिकोण से भी खास होगा. इस लोकतंत्र में कई नेता की संताने अपने राजनीतिक जीवन का पर्दापण कर रहे हैं. इसके लिए इनके पिता पार्टी तक को धमकाने और छोड़ने से परहेज़ नहीं कर रहे हैं.
इस में एक दिलचस्प नाम राम विलास पासवान का रहा है. वैसे तो पासवान को हमेशा से सियासी मौसम का अच्छा फनकार माना गया है. ये किसी भी आकृति में खुद को सांच लेते हैं. 1988 से अब तक ये सभी सरकार में मंत्री रहें और पाला बदलने में खासी महारत रखते हैं. लेकिन इस बार उन्होंने अपने बेटे चिराग़ की सियासी हसरतों को परवान चढ़ाने के लिए मोदी की लहर पर सवार हो गयें और भाजपा की गोद में जा बैंठें, जिसे पिछले एक दशक से नॉन स्टॉप गाली दे रहे थें. वैसे इस चुनाव में इनके भाई भी मैदान में हैं. कुल मिलाकर आधी सीट इनके ही परिवार में बंट गयी.
इसके अलावा अब्दुल्ला परिवार का भी कश्मीर की राजनीति में अच्छा प्रभाव रहा है. इनकी भी तीन पीढ़ी सत्ता पर काबिज़ रही है और ज्यादातर हुकूमत इनके ही परिवार के हाथों में रहा. इसी तरह महाराष्ट्र में शिवसेना में भी सियासत तीसरी पीढी तक चली गयी और तमिलनाडू के पूर्व मुख्यमंत्री करूणानिधी ने इस मामले में सारी हदें पार कर दीं. अपनी तीनों पत्नियों की संतानों में राजनीतिक पद ऐसे बांटे, जैसे ये इनकी व्यक्तिगत संपत्ति का बंटवारा हो.
इसी तरह भाजपा में मेनका गांधी, वसुंधरा राजे, प्रेम कुमार धूमल ने अपने संतानों को राजनीतिक विरासत सौंपी. ये और बात है कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार को केवल कांग्रेस में ही शाहज़ादे दिखते हैं, जबकि सच्चाई जग ज़ाहिर है.
परिवारवाद भारतीय राजनीति में इस क़दर हावी हो गया है कि किसी उम्मीदवार की सारी योग्यता धरी की धरी रह जाती है और केवल किसी विशेष परिवार का सदस्य होने के नाते उसे तरजीह दे दी जाती है. शायद भारत में लोग आज भी अपने मिजाज़ लोकतांत्रिक नहीं है. वह आज तक गुलामी और राजस्व की मानसिकता से पीडि़त हैं. यही वजह है कि 65 साल की आज़ादी के बाद भी सत्ता आम जनता तक पहुंची ही नहीं केवल चंद परिवारों तक ही सिमट कर रह गयी.