Edit/Op-Ed

नेताओं, डॉक्टरों के नाम दम तोड़ते मरीज़ के आख़िरी शब्द

मेरी कुछ टूटतीं साँसें थी जिन्हें जोड़कर तुम ज़िंदगी दे सकते थे. ज़िंदगी ना सहीं कुछ आख़िरी सिसकियाँ तो दे ही सकते थे.

मुझे सिसकियाँ ना सही, मेरे दम तोड़ते बदन के क़रीब जो मेरे अपने बेबस बैठे थे, उन्हें ये दिलासा तो दे ही सकते थे कि उन्होंने मुझे बचाने की कोशिशें की.

या ज़िंदगी के कुछ आख़िरी पल जो मुझे यक़ीन देते कि मैं ऐसे देश में पैदा हुआ था जहाँ के लोगों को मेरी फ़िक्र थी. तुम्हारी बचाने की कोशिशों में गर मैं मर भी जाता तो मुझे इतना अफ़सोस नहीं होता जितना इस बेमौत- बेवक़्त मरने का है.

ये मेरी बदकिस्मती ही है कि मुझे मरते-मरते बचना था लेकिन मैं बचते-बचते मर गया. मैं मर गया क्योंकि जिनपर मुझे बचाने की ज़़िम्मेदारी थी उनके लिए उनका निजी संघर्ष मेरी ज़िंदगी से ज़्यादा मायने रखता है.

मैं मर गया क्योंकि मैं पैदा नहीं हुआ था उस ख़ास वर्ग में जिसकी सत्ता ग़ुलाम है, डॉक्टर जिसके सेवक हैं.

मैं मर गया क्योंकि मेरे या मुझ जैसे सौ, दौ सौ या हज़ार पाँच सौ के मरने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता इस सवा सौ करोड़ की जनसंख्या वाले देश में.

अब जब मैं ये दुनिया छोड़कर जा रहा हूँ तो सोच रहा हूँ कि मेरे क़ातिल कौन हैं?

 (Photo Courtesy: bhaskar.com/Mukesh K Gajendra)

(Photo Courtesy: bhaskar.com/Mukesh K Gajendra)

वो नेता जो सत्ता के ग़ुरूर में इतने मग़रूर हैं कि उन्हें अपनी कार से किसी का टकराना भी गंवारा नहीं. जिनमें इतना भी संयम नहीं कि अंसतुलित वाहन से टकराने वाले को संभालने के बजाए वो उसी पर अपनी ताक़त का भौंडा प्रदर्शन करने में जुट जाते हैं. ताक़त का प्रदर्शन जिनका पहला और अंतिम लक्ष्य है. जिनके लिए अपने रसूख की टोपी में घमंड के पंख जोड़ने के लिए कुछ सौ लोगों की जान की कोई क़ीमत नहीं हैं.

या फिर वो डॉक्टर जिन्हें धरती का भगवान तो कहा जाता है लेकिन जो अपनी ज़िम्मेदारी को भूलकर अपने अहम की लड़ाई में जुट जाते हैं.

अब जब मैं ज़िंदा नहीं हूँ तो मैं सोच विचार सकता हूँ कि मेरा ग़ुनाहगार कौन हैं. और मैं इस नतीज़े पर पहुँचता हूँ कि मेरी मौत के लिए नेता और डॉक्टर दोनों बराबर के ज़िम्मेदार हैं. एक सत्ता के नशे में चूर है तो दूसरा पद के ग़ुमान में लापरवाह…

ये इन दोनों के अपने अहम की लड़ाई है. मैं इनकी लड़ाई में कहीं हूँ ही नहीं. बल्कि मेरी मौत से तो मुझे बचाने वालों की लड़ाई ही भारी हो रही हैं. मुझ जैसे जितने बेवक़्त बेमौत मरेंगे उतने ही तो उन डॉक्टरों की वेल्यू बढ़ेगी.

सरकार को अपनी अहमियत बताने के लिए और माफ़ी माँगने के लिए मजबूर करने के लिए मेरा, मुझ जैसों का मरना ज़रूरी है.

मुझे बहुत अफ़सोस है कि मैं बहुत मामूली बात के लिए मर गया. बस एक मोटरसाइकिल ही तो टकराई थी एक कार से.

लेकिन जाते-जाते मुझे अपनी मौत से भी ज़्यादा अफ़सोस इस बात का है कि मैं अपने पीछे ऐसा हिंदुस्तान छोड़ जा रहा हूँ जहाँ इंसानी जान की कोई क़ीमत नहीं हैं. जहाँ कोई मोटरसाइकिल किसी कार से भीड़कर समूचे राज्य में अराजकता पैदा कर सकती हैं.

जहाँ मुझ जैसे मामूली आम आदमी की मौत पर आँसू बहाने वाला कोई नहीं हैं. और अभी-अभी एक फ़रिस्ता मेरे कान में कह गया है कि हिंदुस्तान में अदालतें भी हैं. जो इन घमंडी नेताओं को और इन लापरवाही नेताओं को उनकी असली जगह बता सकती हैं. जो चाहें तो मेरे क़ातिलों को सज़ा दे सकती हैं.  कोई है जो मेरे क़ातिलों को कटघरे में खड़ा कर सके, जो पूछ सके कि मैं बेवक़्त- बेमौत क्यों मारा गया?

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