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सवालों के घेरे में मौलाना आज़ाद फाउंडेशन

Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines

मुस्लिम तबके की कथित बेहतरी के लिए बनाई गई तमाम योजनाओं और संस्थाओं का हश्र क्या होता है. यह जानने के लिए मौलाना आजाद एजुकेशन फाउंडेशन के हालात-ए-हाज़रा पर एक नज़र डाल लेते हैं.

समानता और भाईचारे से लेकर क़ौम की तरक्की के मक़सद से शैक्षिक, सामाजिक व आर्थिक उत्थान के साथ-साथ समाज में न्याय, स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के प्रति जागरूकता, अल्पसंख्यकों के पिछड़ेपन का पता लगाने हेतु शोध, इंफोर्मेशन और काउंसेलिंग सेन्टर्स, लाइब्रेरी, बुक बैंक आदि  की स्थापना और आर्थिक रूप से अल्पसंख्यकों को मज़बूत करने हेतु खुद का रोज़गार स्थापित करने के लिए ट्रेनिंग जैसे कई महत्वपूर्ण मक़सद के लिए स्थापित की गई यह फाउंडेशन कब की पटरी से उतर चुकी है. (मौलाना आजाद एजुकेशन फाउंडेशन के मक़सदों को आप यहां पढ़ सकते हैं : http://maef.nic.in/MenuFooterContent.aspx?Id=4 )

BeyondHeadlines के पास इस फाउंडेशन के कामकाज के बेमानी साबित होते जाने का सबूत है. दरअसल, मौलाना आजाद एजुकेशन फाउंडेशन की स्थापना जुलाई 1989 में की गई. लेकिन इसका काम 1993-94 वित्तीय वर्ष में तब शुरू हुआ, जब भारत सरकार ने 5 करोड़ का कॉरपस फंड का पहला इंसटॉलमेंट रिलीज़ किया. दूसरा इंसटॉलमेंट 25.01 करोड़ का 1995-96 में रिलीज़ किया गया. 2011-12 में यह कॉरपस फंड 750 करोड़ का हो गया. 12वीं योजना में इस फाउंडेशन पर सरकार की फिर से नज़र-ए-इनायत हुई. अल्पसंख्यक बच्चों के आर्थिक सशक्तिकरण और बेहतर भविष्य के लिए नेतृत्व गुणों के विकास पर विशेष ध्यान देने के साथ ही मौलाना आजाद फाउंडेशन का कॉरपस फंड 750 करोड़ से बढ़ाकर 1500 करोड़ कर दिया गया. कागज़ों व अखबारों में मौलाना आज़ाद एजुकेशन फाउंडेशन की काम चल पड़ी. शायद यही वजह है कि अख़बारों के बिके हुए पन्ने इस संस्था की तारीफ़ से भरे हुए आप मिलते रहे होंगे.

यही नहीं, यूपीए सरकार अलग से भी हर साल बजट में इस फाउंडेशन को कुछ न कुछ देने का ऐलान करती रही. पर हक़ीक़त में वो ऐलान काग़जों व भाषणों की शोभा बढ़ाने का काम करते रहे. BeyondHeadlines  को आरटीआई से हासिल महत्वपूर्ण दस्तावेज़ बताते हैं कि साल 2012-13 में इस संस्था के लिए 100 करोड़ का बजट पास किया गया, लेकिन रिलीज़ हुआ सिर्फ एक लाख रुपये. हद तो यह है कि यह एक लाख रुपये भी खर्च नहीं किए गए. यदि खर्च होते तो किसी ज़रूरतमंद मुसलमान का भला हो जाता, जो शायद न सरकार चाहती है और न ही खोखले दावे करने वाले नेता…

बात यहीं खत्म नहीं होती… मौलाना आजाद फाउंडेशन जिन मक़सद के तहत कायम की गई थी, शायद उनमें से सिर्फ दो पर ही फिलहाल यह फाउंडेशन कार्यरत है. जो अपने आप में सोचनीय विषय है. फाउंडेशन की वेबसाइट बता रही है कि उनके तीन स्कीम Grant-in-Aid for NGO’s, Maulana Azad National Scholarship for Meritorious Girls Students और Maulana Abul Kalam Azad Literacy Award हैं. लेकिन Maulana Abul Kalam Azad Literacy Award  2005 के बाद से किसी को नहीं मिला. इसीलिए अब वेबसाइट पर Maulana Abul Kalam Azad Literacy Award की जगह Maulana Azad Memorial Lecture & Awareness Program कर दिया गया है.

इसके साथ ही अब Free Bicycle for class IX girl students of Minority Community योजना भी शुरू किया गया है. पर आरटीआई से मिले दस्तावेज़ बताते हैं कि पिछले वर्ष यानी  साल 2012-13 में केन्द्र सरकार ने सिर्फ 5 करोड़ का बजट रखा, जिसमें से मात्र चार लाख रुपये रिलीज किए गए और खर्च एक पैसा भी नहीं किया गया. उससे भी दिलचस्प यह है कि राज्य सरकारों व दूसरे संस्थाओं द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रमों को अपने वेबसाइट पर एक साथ डालकर अपने कामों में गिनाने की कोशिश लगातार की जा रही है.

भारत में एनजीओ किस तरह से काम करते हैं, यह देश की जनता बखूबी जानती है. सच्चाई तो यह है कि अधिकतर संस्थाएं फाउंडेशन से फंड तो ले रहे हैं, लेकिन धरातल पर कोई काम नहीं होता, सारे काम कागज़ों में ही निपटा दिए जाते हैं. और फाउंडेशन भी इस ओर अधिक ध्यान नहीं देती. सिर्फ दिखावे व कई शिकायते मिलने के बाद सिर्फ 9 संस्थाओं को ब्लैक लिस्टेड कर दिया है. यही नहीं, सुत्र बताते हैं कि यहां भी अल्पसंख्यकों के कुछ नामी-गिरामी ठेकेदार काबिज़ हैं और उन्हीं के फर्जी संस्थाओं को हर साल फंड मिलता रहता है. और इन्हें अल्पसंख्यकों के उत्थान से कोई मतलब नहीं, इनका तो बस अपना पेट भरना चाहिए, इसी पर ध्यान अधिक रहता है. (जल्द ही इनके नामों का भी खुलासा किया जाएगा.)

दूसरी सच्चाई यह भी है कि संस्थाओं को फंड के लिए 5 साल से अधिक का इंतज़ार करना पड़ता है. उन्हें कितना दौड़ाया जाता है कि इसका अंदाज़ा आप खुद ही लगा सकते हैं. खुद वेबसाईट पर मौजूद सूचना के  मुताबिक 2006-07 या 2007-08 में अप्लाई किए संस्थाओं को अभी तक फंड नहीं मिला है.

और जब पारदर्शिता का सवाल आता है कि आरटीआई जैसा कानून भी यहां दम तोड़ता नज़र आया है. कई लोगों ने आरटीआई से सूचना हासिल करने की कोशिश की, लेकिन नाकाम हुए. और सबसे बडी बात यह है कि केन्द्र सरकार के तमाम दफ्तरों में आरटीआई की फीस 10 रूपये हैं पर इस संस्था में मनमाने ढंग से 50 रूपये वसूल किए  जा रहे थे. जिसे  इस संस्था के नए यानी वर्तमान डायरेक्टर ने घटाकर 10 रूपये कर दिया है. और साथ ही पहले की तमाम खामियों को दूर करने वादा भी दिलाया है. अब वेबसाइट पर तमाम तरह की चीज़ों को अपडेट किया जाने लगा है.

लेकिन इन सबके बीच सवाल यह है कि मुसलमानों के नाम पर करोड़ों की योजनाएं चलाने का दावा करने वाली सरकार क्या कर रही है? और क़ौम को ग़फलत में रखने का यह सिलसिला कब तक जारी रहेगा? देश के एक महान स्वाधीनता सेनानी के नाम पर चल रहे इस गड़बड़-झाले की सच्चाई सामने आना बेहद ही ज़रूरी है.

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