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दंगों की राजनीति पर आतंकवाद का तड़का

Masihuddin Sanjari for BeyondHeadlines

मुज़फ्फरनगर, शामली बाग़पत और मेरठ के दंगे जो आमतौर पर मुज़फ्फरनगर दंगा के नाम से मशहूर है, के बाद हुए विस्थापन और दंगा पीडि़त कैम्पों की स्थिति की चर्चा तथा राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप का दौर अभी चल ही रहा था कि अचानक अक्तूबर महीने में राजस्थान में एक जनसभा को सम्बोधित करते हुए राहुल गांधी ने आईएसआई के दंगा पीडि़तों के सम्पर्क में होने की बात कहकर सबको चैंका दिया था.

राहुल गांधी का यह कहना था कि दंगा पी़ड़ित 10-12 युवकों से पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई सम्पर्क साधने का प्रयास कर रही थी. इसकी जानकारी उन्हें खुफिया एजेंसी आईबी के एक अधिकारी से मिली थी. यह सवाल अपने आप में महत्वपूर्ण है कि आईबी अधिकारी ने यह जानकारी राहुल गांधी को क्यों और किस हैसियत में दी? उससे अहम बात यह है कि क्या यह जानकारी तथ्यों पर आधारित थी या फर्जी इनकाउंटरों, जाली गिरफतारियों और गढ़ी गई आतंकी वारदातों की कहानियों की तरह एक राजनीतिक खेल जैसा कि आतंकवाद के मामले में बार बार देखा गया है और जिनकी कई अदालती फैसलों से भी पुष्टि हो चुकी है.

राहुल गांधी के मुंह से यह बात कहलवा कर आईबी दंगा भड़काने के आरोपी उन साम्प्रदायिक तत्वों को जिसमें कांग्रेस पार्टी के स्थानीय नेता भी शामिल थे, बचाना चाहती थी. राहुल गांधी ने इसके निहितार्थ को समझते हुए यह बात कही थी या खुफिया एजेंसी ने यह सब उनकी अनुभव की कमी का फायदा उठाते हुए दंगे की गम्भीरता की पूर्व सूचना दे पाने में अपनी नाकामी से माथे पर लगे दाग को दर्पण की गंदगी बता कर बच निकलने के प्रयास के तौर पर किया था.

क्या उस समय राहुल के आरोप को खारिज करने वाली उत्तर प्रदेश की सरकार ने बाद में खुफिया एजेंसी की इस मुहिम को अपना मूक समर्थन दिया था जिससे दंगा पीडि़तों, कैम्प संचालकों और पीडि़तों की मदद करने वालों को भयभीत कर कैम्पों को बन्द करने की राह हमवार की जाए ताकि इस नाम पर सरकार की बदनामी का सिलसिला बन्द हो?

राहुल गांधी के बयान के बाद दंगा भड़काने वाली साम्प्रदायिक ताकतों ने आईएसआई को इसका जि़म्मेदार ठहराने के लिए ज़ोर लगाना शुरू कर दिया था. इस आशय के समाचार भी मीडिया में छपे. दंगे के दौरान फुगाना गांव के 13 लोगों की सामूहिक हत्या कर उनकी लाशें भी गायब कर दी गई थीं. वह लाशें पहले मिमला के जंगल में देखी र्गइ परन्तु बाद में उनमें से दो शव गंग नहर के पास से बरामद हुए. शव न मिल पाने के कारण उन मृतकों में से 11 को सरकारी तौर मरा हुआ नहीं माना गया था. समाचार पत्रों में उनके लापता होने की खबरें प्रकाशित हुईं जिसमें इस बात की आशंका ज़ाहिर की गई थी कि जो लोग आईएसआई से सम्पर्क मे हैं उनमें यह 11 लोग भी शामिल हो सकते हैं.

यह भी प्रचारित किया जाने लगा कि कुछ लोग दंगा पीडि़तों की मदद करने के लिए रात के अंधेरे में कैम्पों में आए थे. उन्होंनें वहां पांच सौ और हज़ार के नोट बांटे थे. इशारा यह था कि वह आईएसआई के ही लोग थे. आईएसआई और आतंकवाद से जोड़ने की इस उधेड़बुन में ऊंट किसी करवट नहीं बैठ पा रहा था कि अचानक एक दिन खबर आई कि रोज़ुद्दीन नामक एक युवक आईएसआई के सम्पर्क में है.

कैम्प में रहने वाले एक मुश्ताक के हवाले से समाचारों में यह कहा गया कि वह पिछले दो महीने से लापता है. जब राजीव यादव के नेतृत्व में रिहाई मंच के जांच दल ने इसकी जांच की तो पता चला कि रोज़ुद्दीन जोगिया खेड़ा कैम्प में मौजूद है और वह कभी भी कैम्प छोड़कर कहीं नहीं गया.

तहकीकात के दौरान जांच दल को पता चला कि रोज़ुद्दीन और सीलमु़द्दीन ग्राम फुगाना निवासी दो भाई हैं और दंगे के बाद जान बचा कर भागने में वह दोनो बिछड़ गए थे. रोज़ुद्दीन जोगिया खेड़ा कैम्प आ गया और उसके भाई सलीमुद्दीन को लोई कैम्प में पनाह मिल गई. जब मुश्ताक से दल ने सम्पर्क किया तो उसने बताया कि एक दिन एक पत्रकार कुछ लोगों के साथ उसके पास आया था और सलीमुद्दीन तथा राज़ुद्दीन के बारे में पूछताछ की थी.

उसने यह भी बताया कि सलीमुद्दीन के लोई कैम्प में होने की बात उसने पत्रकार से बताई थी और यह भी कहा था कि उसका भाई किसी अन्य कैम्प में है. पत्रकार के भेस में खुफिया एजेंसी के अहलकारों ने किसी और जांच पड़ताल की आवश्यक्ता नहीं महसूस की और रोज़ुद्दीन का नाम आईएसआई से सम्पर्ककर्ता के बतौर खबरों में आ गया.

इस पूरी कसरत से तो यही साबित होता है कि खुफिया एजेंसी के लोग किसी ऐसे दंगा पीडि़त व्यक्ति की तलाश में थे जिसे वह अपनी सविधानुसार पहले से तैयार आईएसआई से सम्पर्क वाली पटकथा में खाली पड़ी नाम की जगह भर सकें और स्क्रिप्ट पूरी हो जाए. परन्तु इस पर मचने वाले बवाल और आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाहों की रिहाई के मामले को लेकर पहले से घिरी उत्तर प्रदेश सरकार व मुज़फ्फनगर प्रशासन ने ऐसी कोई जानकारी होने से इनकार कर दिया.

केन्द्र सरकार की तरफ से गृह राज्य मंत्री आरपीएन सिंह ने भी कहा कि गृह मंत्रालय के पास ऐसी सूचना नहीं है. राहुल गांधी के बयान की पुष्टि करने की यह कोशिश तो नाकाम हो गई. लेकिन थोड़े ही दिनों बाद आईबी की सबसे विश्वास पात्र दिल्ली स्पेशल सेल ने दावा किया कि उसने मुज़फ्फरनगर दंगों का बदला लेने के लिए दिल्ली व आसपास के इलाकों में आतंकी हमला करने की योजना बना रहे एक युवक को मेवात, हरियाणा से गिरफ्तार कर लिया है और उसके एक अन्य सहयोगी की तलाश की जा रही है. यह दोनों मुज़फ्फरनगर के दो अन्य युवको के सम्पर्क में थे. हालांकि पूर्व सूचनाओं से उलट इस बार यह कहा गया कि जिन लोगों से इन कथित लश्कर-ए-तोएबा के संदिग्धों ने सम्पर्क किया था उनका सम्बंध न तो राहत शिविरों से है और न ही वह दंगा पीडि़त हैं.

मेवात के ग्राम बज़ीदपुर निवासी 28,वर्षीय मौलाना शाहिद जो अपने गांव से 20 किलोमीटर दूर ग्राम छोटी मेवली की एक मस्जिद का इमाम था, 7 दिसम्बर 2014 को गिरफतार किया गया था. स्थानीय लोगों का कहना है कि अखबारों में यह खबर छपी की पुलिस को उसके सहयोगी राशिद की तलाश है. राशिद के घर वालों को दिल्ली पुलिस की तरफ से एक नोटिस भी प्राप्त हुआ था जिसके बाद 16, दिसम्बर को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट नूहपुर (मेवात का मुख्यालय) की अदालत में राशिद ने समर्पण कर दिया. राशिद खान वाली मस्जिद घघास में इमाम था और वहां से 25 किलोमीटर दूर तैन गांव का रहने वाला था.

इन दोनों पर आरोप है कि इनका सम्बंध पाकिस्तान के आतंकी संगठन लश्कर-ए-तोएबा से है. इन दोनों ने मुज़फ्फरनगर के लियाकत और ज़मीरुल इस्लाम से मुलाकात की थी. लियाकत सरकारी स्कूल में अध्यापक और ज़मीर छोटा मोटा अपराधी है. मौलाना शाहिद और राशिद इन दोनों से मिले थे और मुलाकात में अपहरण की योजना बनाने और इस प्रकार प्राप्त होने वाले फिरौती के पैसे का इस्तेमाल मस्जिद बनवाने के लिए करने की बात उक्त दोनों ने की थी.

बाद में उन्हें बताया गया कि फिरौती की रक़म को मस्जिद बनाने के लिए नहीं बल्कि आतंकी वारदात को अंजाम देने लिए हथियार की खरीदारी पर खर्च किया जाएगा तो दोनों ने इनकार कर दिया. दिल्ली स्पेशल सेल का यह दावा समझ से परे है, क्योंकि एक साधारण मुसलमान भी जानता है कि मस्जिद बनाने के लिए नाजायज़ तरीके से कमाए गए धन का इस्तेमाल इस्लाम में वर्जित है. ऐसी किसी मस्जिद में नमाज़ नही अदा की जा सकती. ऐसी सूरत में पहले प्रस्ताव पर ही इनकार हो जाना चाहिए था. यह समझ पाना भी आसान नही है कि एक दो मुलाकात में ही कोई किसी से अपहरण जैसे अपराध की बात कैसे कर सकता है.

दूसरी तरफ पटियाला हाउस कोर्ट में रिमांड प्रार्थना पत्र में स्पेशल सेल ने कहा है कि इमामों की गिरफ्तारी पिछले वर्ष नवम्बर में प्राप्त खुफिया जानकारी के आधार पर की गई है. स्थानीय लोगों का कहना है कि शाहिद सीधे और सरल स्वभाव का है. वह मुज़फ्फरनगर दंगों के बाद दंगा पीडि़तों के लिए फंड इकट्ठा कर रहा था और उसके वितरण के लिए किसी गैर सरकारी संगठन एवं मुज़फ्फरनगर के स्थानीय लोगों के सम्पर्क किया था.

तहलका के 25 जनवरी के अंक में छपी एक रिपोर्ट में यह भी खुलासा किया गया है कि लियाकत और ज़मीर दिल्ली व उत्तर प्रदेश पुलिस के लिए मुखबिरी का काम करते थे. आतंकवाद के मामले में अबरार अहमद और मुहम्मद नकी जैसी कई मिसालें मौजूद हैं, जब मुखबिरों को आतंकवादी घटनाओं से जोड़ कर मासूम युवकों को उनके बयान के आधार पर फंसाया जा चुका है.

राहुल गांधी का आईबी अधिकारी द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर दिया गया वक्तव्य, कैम्पों में खुफिया एजेंसी के अहलकारों द्वारा पूछताछ, रोज़ुद्दीन के आईएसआई से सम्पर्क स्थापित करने का प्रयास और अन्त में मौलाना शाहिद और राशिद की खुफिया सूचना के आधार पर गिरफ्तारी और लियाकत तथा ज़मीर की पृष्ठिभूमि और भूमिका को मिलाकर देखा जाए तो चीज़ों को समझना बहुत मुश्किल नहीं है.

साम्प्रदायिक शक्तियों ने खुफिया एंव जांच एजेंसियों में अपने सहयोगियों की सहायता से मुसलमानों को आतंकवाद और आतंकवादियों से जोड़ने का कोई मौका नहीं चूकते चाहे कोई बेगुनाह ही क्यों न हो. गुनहगार होने के बावजूद अगर वह मुसलमान नहीं है तो उसे बचाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी जाती. पांच बड़ी आतंकी वारदातों का अभियुक्त असीमानन्द अंग्रेज़ी पत्रिका ‘दि कारवां‘ को जेल में साक्षात्कार देता है और आतंकवादी वारदातों के सम्बन्ध में संघ के बड़े नेता इन्द्रेश कुमार और संघ प्रमुख मोहन भगवत का नाम लेता है तो उसे न तो कोई कान सुनने को तैयार है और न कोई आंख देखने को. किसी ऐजेंसी ने उस साक्षात्कार के नौ घंटे की ऑडिओ की सत्यता जानने का कोई प्रयास तक नहीं किया. चुनी गई सरकारों से लेकर खुफिया और सुरक्षा एंव जांच ऐजेंसियां सब मूक हैं. मीडिया में साक्षात्कार के झूठे होने की खबरें हिन्दुत्वादियों की तरफ सें लगातार की जा रही हैं, परन्तु उसके सम्पादक ने इस तरह की बातों को खारिज किया है और कहा है कि उसके पास प्रमाण है.

देश का एक आम नागरिक भी यह महसूस कर सकता है कि हमारे राजनीतिक नेतृत्व में न तो इच्छा है और न ही इतनी इच्छा शक्ति कि इस तरह की चुनौतियों का सामना कर सके. यही कारण है कि आतंक और साम्प्रदायिक हिंसा का समूल नाश कभी हो पाएगा इसे लेकर हर नागरिक आशंकित है.

मुज़फ्फरनगर साम्प्रदायिक हिंसा को लेकर एक और सनसनीखेज़ खुलासा सीपीआई (माले) ने अपनी जांच रिपोर्ट में किया है. दंगे के मूल में किसी लड़की के साथ छेड़छाड़ नहीं है, यह तो पहले ही स्पष्ट हो चुका था. 27 अगस्त को शहनवाज़ कुरैशी और सचिन व गौरव की हत्याओं के मामले में दर्ज एफआईआर में झगड़े का कारण मोटर साइकिल और साइकिल टक्कर बताया गया था. परन्तु सीपीआई (माले) द्वारा जारी रिपोर्ट से पता चलता है कि मोटर साइकिल टक्कर भी सचिन और गौरव की तरफ से शहनवाज़ की हत्या के लिए त्वरित कारण गढ़ने की नीयत से की गई थी. इस पूरी घटना के तार एक बड़े सामूहिक अपराध से जुड़े हुए हैं.

रिपोर्ट के अनुसार शहनवाज़ कुरैशी और सचिन की बहन के बीच प्रेम सम्बन्ध था. जब इसकी जानकारी घर और समाज के लोगों को हुई तो मामला पंचायत तक पहुंच गया और उन्होंने सचिन और गौरव को शहनवाज़ को कत्ल करने का फरमान जारी कर दिया. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि उक्त लड़की उसके बाद से ही गायब है और इस बात की प्रबल आशंका है कि उसकी भी हत्या हो चुकी है. इस तरह से यह आनर किलिंग का मामला है, जो एक गम्भीर सामाजिक और कानूनी अपराध है. एक घिनौने अपराध के दोषियों और उनके समर्थकों ने उसे छुपाने के लिए नफरत के सौदागरों के साथ मिलकर इतनी व्यापक तबाही की पृष्ठिभूमि तैयार कर दी और हमारे तंत्र को उसकी भनक तक नहीं लगी. कुछ दिखाई दे भी कैसे जब आंखों पर साम्प्रदायिक्ता की ऐनक लगी हो.

मुज़फ्फरनगर दंगे के बाद से ही जिस प्रकार से दंगा पीडि़तों का रिश्ता आईएसआई और आतंकवाद से जोड़ने का प्रयास किया गया  उससे इस आशंका को बल मिलता है कि दंगा भड़काने के आरोपी हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक तत्वों के कुकृत्यों की तरफ से ध्यान हटा कर उसका आरोप स्वयं दंगा पीडि़तों पर लगाने का षड़यंत्र रचा गया था. आतंकवादी वारदातों को अंजाम देने के बाद भगवा टोले ने खुफिया और सुरक्षा एंव जांच एजेंसियों में अपने हिमायतियों की मदद से इसी तरह की साजिश को पहले कामयाबी के साथ अंजाम दिया था. देश में होने वाली कुछ बड़ी आतंकी वारदातों में मुम्बई एटीएस प्रमुख स्व. हेमन्त करकरे ने अपनी विवेचना में इस साजिश का परदा फाश कर दिया था.

गुजरात में वंजारा एंड कम्पनी द्वारा आईबी अधिकारियों के सहयोग से आतंकवाद के नाम पर किए जाने वाले फर्जी इनकाउन्टरों का भेद भी खुल चुका है. शायद यही वजह है कि बाद में होने वाले कथित फर्जी इनकाउन्टरों में मारे गए युवकों और आतंकी वारदातों में फंसाए गए निर्दोशों के मामले में सामप्रदायिक ताकतों के दबाव के चलते जांच की मांग को खारिज किया जाता रहा है.

मुज़फ्फरनगर दंगों की सीबीआई जांच को लेकर उच्चतम न्यायालय में सुनवाई के दौरान उत्तर प्रदेश सरकार ने भी ऐसी किसी जांच की मुखालफत की है. सच्चाई यह है कि किसी निष्पक्ष जांच में जो खलासे हो सकते हैं वह न तो दंगाइयों मे हित में होंगे और न ही सरकार के और दोनों हितों की राजनीति का पाठ एक ही गुरू ‘अमरीका‘ से सीखा है. करे कोई और भुगते कोई की राजनीति यदि मुज़फ्फरनगर दंगों के मामले में भी सफल हो जाती तो इसका सीधा अर्थ यह होता कि किसी भी राहत कैम्प को चलाने की कोई हिम्मत नहीं कर पाता, दंगा पीडि़तों की मदद करने वाले हाथ रुक जाते या उन्हें आतंकवादियों के लिए धन देने के आरोप में आसानी से दबोच लिया जाता और पीडि़तो की कानूनी मदद करने का साहस कर पाना आसान नहीं होता.

शायद साम्प्रदायिक शक्तियों ऐसा ही लोकतंत्र चाहती हैं जहां पूरी व्यवस्था उनकी मर्जी की मुहताज हो. हमें तय करना होगा कि हम कैसा लोकतंत्र चाहते हैं और हर स्तर पर उसके लिए अपेक्षित प्रयास की भी करना होगा.

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