Health

सफ़ेद कोट में अंडरवर्ल्ड…

Wajhi Khan for BeyondHeadlines

आप हमारे इस बात ज़रूर सहमत होंगे कि प्राईवेट अस्पतालों को मरीज़ से ज़्यादा लगाव उसके बटुए और उसकी हैसियत से होता है. और इसके लिए सिर्फ अस्पताल ही नहीं, बल्कि  हम सब भी कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं. हम डॉक्टर को भगवान मानकर उसके सामने हाथ जोड़ कर खड़े हो जाते हैं और डॉक्टर जो चाहता है, करता है, कहता है और हम सुनते हैं. हम अपने अधिकारो का इस्तेमाल करते हुए घबराते हैं कि कहीं डॉक्टर हमारे मरीज़ के लिए कुछ ग़लत न कर दे.

ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ… मेरे एक रिश्तेदार कैंसर से पीड़ित थे और पल पल अपने जीवन के आखिरी पड़ाव की ओर बढ़ रहे थे. एक डॉक्टर साहब ने जाँच के लिए बोला और चलते-चलते एक काग़ज़ पर एक अस्पताल का नाम और डॉक्टर का नंबर लिख दिया और यह भी नसीहत दी कि यह जांच दिए गए पते से ही करवाना. आप समझदार लोग तो परदे के पीछे की कहानी समझ ही जायेंगे.

हमें दिया गया नाम एक्शन कैंसर हॉस्पिटल, पश्चिम विहार था. हमने डॉक्टर को फ़ोन किया और उसने हमें अगले दिन 12 बजे का अप्वाइंटमेंट दिया और कहा कि मरीज़ को सुबह 8 बजे के बाद कुछ खाने और पीने को नहीं देना है. मैं यह भी बताना चाहता हूं कि हमारे मरीज़ सिर्फ तरल आहार ही ले सकते थे.

हम अपने मरीज़ को गाड़ी में लेकर सुबह 6 बजे घर निकल गए, क्योंकि एक्शन कैंसर हॉस्पिटल, पश्चिम विहार हमारे घर रामपुर से लगभग 250 किलो मीटर दूर है.

11.45 को जब हम एक्शन कैंसर हॉस्पिटल, पश्चिम विहार पहुंचे, तो हमे इंतज़ार करने के लिए बोला गया और बताया गया कि इंजेक्शन जो कि एक रेडियो एक्टिव तत्त्व है और उसे स्टोर नहीं किया जा सकता, उसके आने में थोड़ी देर हो गयी. करते-करते 2:30 बज गए और हमारे मरीज़ का दर्द और भूख से बुरा हाल होता गया.

जब हमसे बर्दाश्त नहीं हुआ तो हम डॉक्टर के पास पहुंचे और उससे देरी का कारण पूछा तो वो कहानियां गढ़ने लगें. हम थोड़ा और गरम हुए तो उन्होंने हमारे हाथ में हमारा ही हस्ताक्षर किया हुआ परचा थमा दिया, जिसमें लिखा था कि अस्पताल कभी भी जांच कैंसिल करने का अधिकार रखता है और सभ्य भाषा में हमें धमकी दे डाली कि ज़्यादा बोले तो तुम्हारी जांच कल तक के लिए स्थगित कर देंगे.

मरता क्या नहीं करता… 250 किलो मीटर कोई कम दूरी तो है नहीं… हम चुपचाप बैठ गए और दवा का इंतज़ार करने लगे. लगभग 20 मिनट बाद दवा आ गयी और अगले दो घंटे में जांच भी कम्पलीट हो गयी. हम भीगी बिल्ली की तरह रामपुर भाग लिए…

इस पूरी कहानी के बीच हमारे एक मित्र ने डॉक्टर से हुई बातचीत का विडियो बना लिया जो कि हमारे पास सबूत के तौर पर सुरक्षित है. आप कई सारे विडियों में से एक विडियो यहां देख सकते हैं.

हमारे रिश्तेदार जो कि मेरे सगे मामा थे. हम सबको अलविदा कहकर चले गए और कुछ सवाल मेरे ज़ेहन में छोड़ गए.

1. अगर अस्पताल में दवाई देरी आती है तो उसका ज़िम्मेदार कौन है?

2. जब अस्पताल जांच के लिए आरक्षण करते है तो उसके सामानांतर दवाई की उपलब्ध्ता को प्राथमिकता क्यों नहीं देते?

3. रिशतेदार मरीज़ के अच्छे इलाज के हस्ताक्षर करते हैं या फिर अस्पतालों को मनमानी करने देने का एग्रीमेंट?

4. अस्पताल की लापरवाही की वजह से मरीज़ को हुई असहनीय पीड़ा का ज़िम्मेदार क्या हम थे?

5. आखिर पूरा पैसा देने के बाद भी मरीज़ो के साथ अमानवीय व्यवहार क्यों होता है?

शायद इस सबके पीछे भी भ्रष्ट सरकारी तंत्र है, जिसने इन अस्पतालों को  खुली छूट दे रखी है. कहीं न कहीं कमज़ोर कानून भी इनकी ढाल बने हुए हैं. कुछ भी हो तकलीफ तो मुझे और आपको ही उठानी है.

एक तो वैसे ही खुदा ने मुश्किल में डाला है,

ऊपर से अस्पतालो में बहुत गड़बड़ झाला है!

हाथ जोड़े खड़े हैं सफ़ेद कोट वालों के पास,

मगर वह हमारा दर्द कब समझने वाला है!

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