Lead

घातक बनता मल्टीनेशनल का चुनावी चंदा…

Hare Ram Mishra for BeyondHeadlines

अभी हाल ही में, अधिवक्ता प्रशांत भूषण द्वारा दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर की गयी एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायालय ने केन्द्र सरकार और चुनाव आयोग को आदेश दिया है कि वे बहुराष्ट्रीय कंपनी वेदांता और उसकी सहायक कंपनियों से गैर कानूनी तरीके से करोड़ों रुपए चुनावी चंदा लेने के लिए भाजपा और कांग्रेस पर कार्यवायी करे.

उच्च न्यायालय का यह आदेश दोनों राजनैतिक दलों द्वारा ’फॉरेन कंन्ट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट-1976’ का उल्लंघन करने पर आया है, जिसमें किसी भी विदेशी स्त्रोत या संस्थान से चुनावी चंदा लेने की स्पष्ट मनाही है. न्यायमूत्रि प्रदीप नन्दाजोग और जयंतनाथ की खण्डपीठ ने अपने फैसले में कहा है कि इन दोनों ही पार्टियों के चंदों की रसीदों की जांच होनी चाहिए और केन्द्र सरकार 6 महीने के भीतर इन पर कार्यवायी करे.

याचिका में मांग की गयी थी कि इन दोनों पार्टियों को जो भी चंदा इन विदेशी कंपनियों से मिला है. उसे हाईकोर्ट की निगरानी में ज़ब्त कर लिया जाए. ब्रिटेन की मल्टीनेशनल कंपनी वेदांता रिसोर्स ने कई सौ करोड़ रुपए चुनावी चंदा दोनों ही दलों को चुनाव लड़ने के लिए दिया है.

यही नहीं, वेदांता समूह की अन्य सहायक कंपनियां-सेसागोवा, मार्को, स्टरलाइट इंडस्ट्री, जो देश में कारोबार करती हैं, ने भी बड़ी मात्रा में चुनावी चंदा इन दोनों दलों को दिया है.

गौरतलब है कि वित्तवर्ष 2011-12 में वेदांता रिसोर्स ने अकेले ही 2.1 मिलियन डॉलर चुनावी चंदे के रूप में भाजपा और कांग्रेस को दिए थे. वहीं इसी अवधि में स्टरलाईट ने चुनावी चंदे के रूप में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर इन दोनों दलों को पांच करोड़ रुपए दिए.

यहां यह स्मरण रहे कि देश के कानून के मुताबिक विदेशों से या फिर विदेशी कंपनियों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी भी रूप में चुनावी चंदा नहीं लिया जा सकता है. और इस प्रकार इन दोनों ही दलों ने इन कंपनियों से गैरकानूनी तरीके से फंड लिया है, जो कि कानूनन दंडनीय है.

बहरहाल, राजनैतिक दलों के गैरकानूनी तरीके से चुनावी चंदा लेने की इस सच्चाई के बाद कई गंभीर सवाल उठने लाजिमी हैं. यह कटु सत्य है कि ज्यादातर दल चुनावी चंदे के मामले में पारदर्शिता कतई नहीं बरतते और यह लोकतंत्र के लिए एक ख़तरनाक और घातक प्रवृत्ति है.

सवाल यह है कि आखिर केन्द्र सरकार अपने ही दल कांग्रेस पर इस सिलसिले में क्या कार्यवायी करेगी? जाहिर सी बात है इस मामले में इन दलों पर कोई कार्यवायी कतई होने नहीं जा रही है. चूंकि दोनों ही दलों पर समान आरोप हैं. लिहाजा यह संभव है कि आपसी सहमति के आधार पर दोनों ही दल चुप हो जाए और मामला चुपचाप खत्म हो जाए. चूंकि न्यायपालिका की अपनी सीमा है, लिहाजा वह फैसला देने से आगे कुछ नहीं कर सकता है.

दरअसल, यह मामला ही समूची लोकतांत्रिक प्रक्रिया और चुनाव सुधार के क्रान्तिकारी पुर्नगठन से जुड़ा हुआ है. तथा देश की राजनीति में लंबे समय से बहस का केन्द्र रहा है. सन् 1976 में विदेशों से चुनावी चंदे के लिए संसद में ऐतिहासिक बहस हुई थी, वहीं इस बात के प्रमाण हैं कि अमेरिकी कंपनियां कांग्रेस को देश की वामपंथी ताक़तों को कमजोर करने तथा चुनाव हरवाने के लिए काफी मात्रा में विदेशी चंदा देती थी.

दरअसल, समूचा विदेशी चंदा देश में पूंजीवाद के बेरोक-टोक प्रश्रय और प्रभाव जमाने की प्रक्रिया के इर्द गिर्द घूमता है. बहरहाल, सवाल यह है कि विदेशी कंपनियों द्वारा दिया जा रहा यह चुनावी चंदा हमारे लोकतंत्र को तथा नीतिगत स्तर पर आम जनता से सरकार के रिश्तों को कितना प्रभावित करेगा?

देश की आर्थिक नीतियों पर इन चंदों का क्या असर होगा? आखिर इन चंदों के पीछे मल्टीनेशनल कंपनियों के कौन से कारोबारी हित छिपे हैं? आखिर मुख्यधारा के दोनों राजनैतिक दलों को ही विदेशी कंपनियां इतनी ज्यादा मात्रा में फंडिंग क्यों कर रही हैं? स्टील कारोबार में लगी वेदांता रिसोर्स हो, या फिर उसकी सहायक कंपनियां, भारी मात्रा में दिए जा रहे इस चुनावी चंदे के पीछे आखिर उनकी कौन सी सोच काम कर रही है? क्या वे यह मान चुकी हैं कि आगामी चुनाव के बाद इन्हीं दोनों दलों में से किसी एक के नेतृत्व में सरकार बनेगी और अन्य दल महज़ सहायक की भूमिका में ही रहेंगे? और ऐसी स्थिति में नीतिगत स्तर पर इन्हीं दोनों दलों के पास सारी ताक़त केन्द्रित रहेगी. जाहिर सी बात है इसके पीछे भी इन कंपनियों का कारोबारी फायदे का गुणा गणित ही होता है.

अब सवाल यह उठता है कि सरकार के गठन के बाद इतनी ज्यादा मात्रा में दिए गए चंदे की वसूली ये कंपनियां किस प्रकार से करेंगी? मल्टीनेशलन कंपनियों का जब केवल एक ही लक्ष्य-‘किसी भी तरह अधिकतम मुनाफा’ हो तो आखिर इस चंदे के पीछे उनकी क्या आर्थिक रणनीति होती होगी? जहां तक मेरा आकलन है, सरकार चाहे जिस पार्टी की बने वेदांता जैसे बड़े समूह जो दोनों ही राष्ट्रीय दलों को भरपूर मात्रा में चुनावी चंदा दे चुके हैं, का सरकार के औद्योगिक निर्णयों पर बड़ा दबाव रहेगा. चाहे वह झारखंड हो या फिर उड़ीसा, इन कंपनियों द्वारा देश के प्राकृतिक संसाधनों की बेखौफ लूट का किस्सा किसी से छुपा नहीं हैं.

सरकार द्वारा वहां के स्थानीय निवासियों को देश के ही पुलिस बल से उत्पीडि़त करवाना और उन्हें जबरिया विस्थापित करने की कोशिशें इन्हीं कंपनियों के मुनाफे के लिए लगातार जारी है. इन चंदों की आड़ में वे इस प्रक्रिया को और तेज़ करवाएंगी. यही नहीं, वे सरकार पर अपना अप्रत्यक्ष होल्ड भी रखेंगी. ये कंपनियां दिए गए चुनावी चंदों के बदले श्रम कानूनों में और ढील मांगेंगी, ताकि मजदूरों से न्यूनतम वेतन में अधिकतम काम लिया जा सके. लूट और शोषण की पीड़ादायक संस्कृति को औचित्यपूर्ण सिद्ध करने के लिए वे ऐसे कानूनों के निर्माण की मांग करेंगी, जो उनके मुनाफे को अधिकतम करते हुए इस लूट को कानूनी वैधता प्रदान कर सके.

कुल मिलाकर सरकार उनके मुनाफे को व्यवस्थित करने की एक कमेटी भर होगी जिसके मुखौटे केवल भारतीय होंगे. चंदे के बाद नीतिगत स्तर पर ये कंपनियां सरकार पर एक ज़बरजस्त प्रेशर बनाकर रखेंगी, और इस मुल्क की आर्थिक नीतियों को अपनी मर्जी के मुताबिक ही चलाएंगी.

दरअसल, चुनावी चंदा देना भी इन बड़ी कंपनियों के कारोबार का एक हिस्सा होता है. और इस चंदे के पीछे वे अपने घातक पूंजीवादी हितों को बढ़ावा देती हैं. लोकतंत्र की मज़बूती के लिए अंशदान का सिद्धांत तो केवल एक भ्रम है. असल खेल तो चंदे के बहाने सरकार के पॉलिसीगत निर्णयों पर होल्ड करने का है.

जहां तक आम जनता के भविष्य और उसके हितों का सवाल है, मौजूदा परिदृश्य में वह साल दर साल और तेजी से लोकतंत्र के हाशिए पर ही जाएगी. चूंकि पूंजी और मजदूर का हित एक जैसा नहीं हो सकता, लिहाजा जहां पूंजी का वर्चस्व सरकार में बढ़ेगा, मजदूर और आम जनता स्वयं ही हाशिए पर लुढ़क जाएंगे. आने वाले समय में सरकार उनकी होगी जिन्होंने दलों को पैसा देकर चुनाव लड़ाया है. उस सरकार को उनके हित के काम करने ही होंगे, जिनसे उन्होंने चंदा लिया है.

वेदांता द्वारा भाजपा और कांग्रेस को जिस तरह से चुनावी चंदा दिया गया है, वह यह साफ करता है कि भाजपा और कांग्रेस की आर्थिक नीतियां समान हैं. और सरकार चाहे जिस दल की बने, वेदांता समूह जैसी कंपनियों को इससे फर्क नहीं पड़ता. उनका फायदा होना तय है.

कुल मिलाकर, एक तरह से वेंदाता जैसे ग्रुप ही अब चुनाव लड़ते हैं. राजनैतिक दल तो केवल मुखौटा मात्र हैं. आम आदमी के पास केवल वोट देने के अलावा इस लोकतंत्र में और कुछ भी अधिकार नहीं हैं. अब राजनीति पर सारा होल्ड मल्टीनेशनल का हो रहा है. देश की सरकारें केवल भारतीय चेहरों वाली वे मुखौटा होंगी जिनका काम ही इन कंपनियों का हित संरक्षित करना होगा.

आम आदमी तेजी से व्यवस्था के हाशिए पर जा रहा है. लेकिन सवाल यह है कि ऐसा लोकतंत्र कितनी साल चल पाएगा? क्या इस देश के राजनैतिक दल ही लोकतंत्र की हत्या करने पर आमादा नहीं हैं?

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

Loading...

Most Popular

To Top

Enable BeyondHeadlines to raise the voice of marginalized

 

Donate now to support more ground reports and real journalism.

Donate Now

Subscribe to email alerts from BeyondHeadlines to recieve regular updates

[jetpack_subscription_form]