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बेशर्म मीडिया के सम्पादकों! क्या बेगुनाहों की रिहाई ख़बर नहीं है ?

Mukesh Kumar

16 मई को भारत के इतिहास में दो जीत दर्ज हैं, एक नरेंद्र दामोदर भाई मोदी की जीत और दूसरी हिंदुस्तान के लगभग उन अठारह करोड़ मुसलमानों की जो भारतीय मुख्यधारा की मीडिया में आतंकवाद के मिथक प्रतीकों “सफ़ेद टोपी” के उपनामों से नवाजे गयें हैं.

भारत की तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया हमेशा से मुसलमानों को आतंकवाद के साथ जोड़ कर देखता रहा है (कुछ अखबार को छोड़कर). एक हाथ में कुरान और एक हाथ में लैपटॉप के जुमलेबाजी से आगे निकलना है तो इस मुख्यधारा की मीडिया को अपने चश्में का रंग बदलना होगा, उसको हरे रंग की स्याही से लिखने की सोच से निकलना होगा.

16 मई 2014 को 2002 के अक्षरधाम आतंकी हमले के सभी छह आरोपियों को सुप्रीम कोर्ट ने बरी कर दिया. आदेश में शीर्ष अदालत ने अपनी टिप्पणी में कहा- “अभियोजन पक्ष की कहानी हर मोड़ पर कमजोर है और गृह मंत्री ने नॉन अल्पिकेशन ऑफ़ माइंड (बुद्धि का अनुपयोग) किया. सनद रहे उस समय गुजरात के गृहमंत्री और कोई नहीं बल्कि देश का ‘मजदूर नंबर एक’ बनने की कामना लिए सेन्ट्रल हॉल में रोने वाले नरेंद्र दामोदर भाई मोदी थे.”

कुछ मीडिया की करतूत

जब आतंकी हमले के घंटे दो घंटे के अंदर पुलिस मनचाहे लोगों को शिकार बनाकर उठा ले जाती है, तब तो मीडिया आरोपियों को आतंकी करार देते हुए और उनके शहर को आतंक का अड्डा बताते हुए पहले पन्ने पर काजग काले (हरे रंग से) किये रहते हैं या स्पेशल रिपोर्ट में धागे से तम्बू बनाने/तानने की जुगत में दिन रात लगे होतें हैं. उनके जन्म-स्थान में जाकर उनके घरवालों के मुंह में लगभग माइक घुसेड़ कर पूछते हैं कि कैसा लग रहा है? लेकिन बरसों बाद जब वही आरोपी बाइज्ज़त बरी हो जाते हैं, तो अव्वल तो वह इस ख़बर को लेता ही नहीं और अगर लेता भी है तो अंदर के पन्नों में एक कॉलम में या टिकर पर किसी औपचारिता की तरह….

16 मई को किसी मीडिया ने उस समय के गृहमंत्री (गुजरात) से सवाल क्यों नहीं पूछा कि उन बेगुनाह भारतीयों का क्या होगा? कौन देगा इसके जवाब? भारतीय क्रिकेट टीम द्वारा मैच के हार एक पर “गुनाहगार कौन” नाम से स्पेशल कार्यक्रम ‘तानते’ हैं, अब मीडिया के इस चारण काल में किसी भी मीडिया चैनल या हाउस के अन्दर इतनी मिशनरी ग्लूकोज बची है जो इन 6 लोगों के गुनाह को निर्धारित और जबावदेही तय करने वालों के गुनाहों का हिसाब लिया जा सके.

अब क्यों नहीं किसी में यह हिम्मत बची कि बारह साल काल कोठरी में गुजरे इस लोगों के लिए गुनाहगार तय करे. क्या इनके द्वारा काल कोठरी में गुजरे गए बारह साल की कीमत एक क्रिकेट मैच से भी काम है? जो चैनल भूत-प्रेतों का टीआरपी तय करता है, बिना ड्राइवर की कार चलवा सकता है, स्वर्ग की सीढी बना सकता है, क्या वह इन भारतीयों के गुनाहगारों से सवाल भी नहीं पूछ सकता? अगर नहीं तो तुम वाचडॉग नहीं बन सकते सिर्फ डॉग बन सकते हो.

जो राजसत्ता और नई पूंजी के सामने अपनी दुम हिलाते रहने को विवश हो. रीढ़विहीन मीडिया और उसके सम्पादक आज सत्ता के चरण-चारण वंदना कर रहे हैं और मजदूर के आंसू से ग़मगीन होती दिख/बिक रही है. परन्तु मोहमद सलीम, अब्दुल कैयुम, सुलेमान मंसूरी और तीन अन्य की आंसू मीडिया को नहीं दिख रहे है. नहीं दिखा उस शहवान का दर्द जिसके अब्बा पिछले सालों से जेल में हैं. सलीम अपनी बेटी से दस साल बाद मिल सके क्योकिं उनके जेल जाने के बाद यह पैदा हुई थी, उस बच्ची के बचपन को अब्बू की जगह को कौन भरेगा? इस मीडिया को हरेक मुसलमान आतंकवादी ही दिखता है.

एक दूसरा पहलू है कि अगर यही कर्नल पुरोहित, साध्वी प्रज्ञा जैसे लोगों को न्यायलय बाइज्जत बरी करती तो क्या इस मीडिया का यही रवैया रहता? इस घटना को मीडिया बस ‘चलता’ है कि शैली में देखता या कोई और रंग लगाता.

खैर यह तो बाद में पता चलेगा. क्या यह रवैया इसलिए है, क्योकिं इस मीडिया में मुस्लिमों की भागीदारी कम है या कोई और कारक है?

परन्तु मीडिया ने एक खूबसूरत मौका बेकार कर दिया. मीडिया को यह जान लेना चाहिए की मुस्लिमों की सकारात्मक खबर टिकर और फीलर से नहीं भरी जा सकती है. अगर एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में लैपटॉप के जुमलेबाजी को सार्थक करना है तो तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया को अपने चश्मे का रंग बदलना होगा. (Courtesy: http://naukarshahi.in/)

(मुकेश कुमार पंजाब विश्वविद्यालय के जनसंचार अध्ययन केंद्र में सीनियर रिसर्च फेलो हैं. उनसे mukesh29kumar@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है.) 

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