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दलित महिला पर अत्याचार : हम खामोश क्यों?

Farhana Riyaz for BeyondHeadlines

नेपोलियन बोनापार्ट ने कहा था ‘तुम मुझे एक योग्य माता दो, मैं तुमको एक योग्य राष्ट्र दूंगा.

किसी भी समाज का स्वरूप वहां के महिलाओं की स्तिथि पर निर्भर करता है. अगर उसकी स्तिथि सुदृढ़ और सम्मानजनक है, तो समाज भी दृढ़ और मज़बूत होगा.

अगर हम इस बात को भारतीय संदर्भ में देखें तो मालूम होगा कि आज़ादी के बाद शहरी और स्वर्ण महिलाओं की स्तिथि में तो सुधार हुआ है, लेकिन पिछड़े ग्रामीण इलाकों और दलित महिलाओं की स्तिथि क्या है? इस बात का अंदाज़ा हम राजस्थान में दलित महिला कार्यकत्री भंवरी देवी के साथ हुई घटना से लगा सकते हैं.

22 दिसम्बर 1992 को राजस्थान की दलित महिला भंवरी देवी का सामूहिक बलात्कार हुआ था. पुलिस ने इस मामले में एफआईआर दर्ज करने से इनकार कर दिया. हाई कोर्ट की भूमिका भी बहुत शर्मनाक रही, जिसने अपने आदेश में कहा था कि ‘जब कोई स्वर्ण व्यक्ति दलित को छू नहीं सकता तो भला वह दलित महिला के साथ बलात्कार कैसे कर सकता है?’

यह तो एक बानगी भर है. आज आज़ादी के छः दशक बाद भी दलित महिलों को हिंसा, भेदभाव और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ रहा है.

2011 के जनसंख्या आंकड़ों के मुताबिक भारत की 1.2 बिलियन आबादी का क़रीब 17.5 फीसदी अथवा 210 मिलियन लोग दलित हैं.  ग़रीब, दलित, महिला ये तीनों फैक्टर इनके शोषण में मुख्य भूमिका निभाते हैं. दुर्व्यवहार की शिकार सबसे ज़्यादा दलित महिलाएं होती हैं. आए दिन दलित तबके की महिलाओं पर स्वर्ण समाज द्वारा ज़ुल्म ढाने की घटनाएं सामने आती रहती हैं.

पिछले दिनों एक अध्ययन के तहत 500 दलित महिलाओं का साक्षात्कार किया गया. उनमें से 116 ने दावा किया कि उनका एक अथवा ज़्यादा पुरुषों ने बलात्कार किया, जिनमें ज़्यादातर ज़मीनदार या उन्हें काम देने वाले और उच्च जाति के लोग थे.

इतना ही नहीं, आंकड़े बताते हैं कि दलित महिलाओं को प्रताड़ित करने वाले मामलों में सिर्फ एक फीसद अपराधियों को ही अदालत सजा सुनाती है. अदालत में अपराधियों को सज़ा से मुक्त करना भी एक बड़ी समस्या है, जो दलित महिलाओं को बहुत सालती है. जब भी किसी  पीड़ित महिला ने अपने ऊपर हुए ज़ुल्म का विरोध किया है तो इन महिलाओं को जिंदा जला डालने, कभी निर्वस्त्र कर गांव में घुमाने, उनके परिजनों को बंधक बनाने और मल खिलाने जैसे पाशविक और पैशाचिक कृत्य वाली घटनाएं अक्सर सामने आती रही  हैं.

हैरत की बात ये है कि आर्थिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक रूप से सभ्य होने का दावा करने वाले भारतीय समाज को इन घटनाओं से कोई फर्क नहीं पड़ रहा है. दलित महिलाओं पर मीडिया का ध्यान भी तब जाता है, जब वे बलात्कार का शिकार होती है या फिर उन्हें निर्वस्त्र करके सड़कों पर घुमाया जाता है.

बात अकेले मीडिया की नहीं है. हमारा समाज भी दलित महिलाओं के साथ हुई इस तरह की घटना पर इसी तरह का व्यवहार करता है. अभी हाल ही में बिहार के भोजपुर ज़िले की छह दलित महिलाओं के साथ गैंग रेप का मामला सामने आया. भोजपुर ज़िले के सिकरहट्टा थाने के कुरकुरी गांव में हुए इस गैंग रेप पीड़ितों में 3 नाबालिग़ भी शामिल हैं. प्रशासन ने पहले तो इस मामले को दबाने की कोशिश की, फिर बाद में घटना की पुष्टि करते हुए प्राथमिकी दर्ज की.

लेकिन इतने बड़े गैंग रेप पर कहीं कोई हलचल नहीं दिखाई दी. न ही कोई खास विरोध और इन महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए कहीं कोई आवाज़ उठी. क्या अगर ये महिलाएं किसी बड़े शहर, सामाजिक और आर्थिक रूप से संपन्न किसी स्वर्ण समाज से होतीं तो तब भी मीडिया, राजनेता और समाजसेवी संगठन में इसी तरह की ख़ामोशी होती?

निर्भया केस में कैंडल मार्च निकाल कर अपना विरोध दर्ज करने वाले देश के प्रबुद्ध नागरिक और आंसू बहाने वाले लोग, और 24 घंटे प्रसारण कर न्याय दिलाने वाली मीडिया देश के ग्रामीण क्षेत्र में दलित महिलाओं के साथ हो रहे ऐसे अत्याचारों पर क्यों खामोश हो जाते हैं?

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