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तो सवाल उठता है कैसी दीवाली ? किसकी दीवाली ?

Deepak Jha for BeyondHeadlines

पिछले एक सप्ताह से लोग दिपावली की तैयारी में मशगूल थे. कुछ तस्वीरें ख्यालों में बुनकर आंखों में उतर जा रही थी. मिठाईयों की दुकानों के आगे टेंट लगाकर स्टॉलों पर रंग-बिरंगी मिठाईयां सजने लगी थी. सड़के गाड़ियों और लोगों से लदी जा रही थी. गाड़ियों की चीख से पुरी दिल्ली की सड़के सनी हुई थी पर लोग बेख़बर अपनी धुन में खरीदारी किए जा रहे थे.

कुछ खरीद कर घर की ओर जा रहे थे तो कुछ घर से निकल ही रहे थे. बच्चों के हाथों के आईस्क्रिम पिघला जा रहा था. बाजारों में खड़े होकर गोल-गप्पे, बर्गर, मोमोज, दही टिक्का, चाट पापड़ी, और न जाने क्या-क्या के लिए मजे लिए जा रहे थे.

कुड़ा वाला… कुड़ावाला…  कुड़ा दे दो कुड़ा, की शोर अमुमन शहर की हर गलियों से आ रही थी. नगर निगम के कचरों की गाड़ियां कुछ ही देर में भर जा रही थी. गाड़ी के चालक को हंसी भी आ रही और गुस्सा भी…

इन्हीं सब अहसासों के बीच यह हफ्ता भी बीत गया बाकि सभी हफ्तों के जैसा. आखिरकार आज दीवाली का दिन आ ही गया. शहर की मकानें चमकीली लाईटों से सज रही हैं. पटाखों की आवाज़ें बिना बुलाए कानों तक पहुंच रही हैं.

मिठाई की दुकानों पर भीड़ ऐसे जम रही है कि मानो कर्फ्यू के बाद रियायत के कुछ घंटे हो और इन चंद घंटो में लोग अपना सारा काम कर लेना चाहते हैं. पर, कुछ देर में यह भीड़ भी कम हो जाऐगी. लोग अपने अपने घरों को चल देंगे.

शाम होते ही सारा शहर रौशनी से नहा रहा होगा भले ही वो रौशनी बनावटी ही क्यों न हो. नए कपड़ों की शिलें टूटेंगी और नए जूतों की क़मर. घर में लक्ष्मी और गणेश जी की पुजा की जाएंगी. रंगोलियां बरामदे पर खिलखिला रही होगी…

पटाखों से निकले धुओं से पर्यावरण हांफ रहा होगा. धुओं से किसी दूर घर में कोई बीमार वृध्द की सांसे फुल रही होंगी. लोगों की डायनिंग टेबल लजीज़ खानों से पटी रहेंगी. नए मेहमानों की मेहमान नवाजी हो रही होगी. हंसी ठिठोली पटाखों की आवाजों में दम खा रही होगी.

इन्हीं सब औपचारिक्ताओं के साथ आज का दिन भी बीत जाएगा. अपने अनुजों से अलग मिठाई के कुछ टूकड़ें अब फ्रिज में कुछ दिन तक अपनी बली का इंतजार करेंगे. अगले दिन कचरों में जूस और मिठाई के खाली डिब्बे आपस में अपने-अपने घर की बाते बतिया रहे होंगे.

पर, इन सब के बीच हम क्या सच में भुल गए कि इसी देश में 19,43,476 ऐसे बेघर लोग भी हैं जिनके घर आज कोई चिराग नहीं जला होगा. जिनके क़दम चलकर मिठाई की दुकानों तक नहीं गए होंगे. जिनके बच्चों के हाथ में आईस्क्रिम के फेंके खाली डंडी के अलावे कुछ भी नहीं होगा.

कैसी रंगोली सज रही होगी? कहां होगा उसका बरामदा? बदन ढ़कने के लिए कपड़े भी होंगे कि नहीं? आश्रय अधिकार अभियान (2000) के आंकड़ों को माने तो केवल दिल्ली में 52,765 लोग बेघर हैं. 14 सालों के बाद आज यह आकड़ा कहां पहुंच गया होगा, अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है. जिनके पास अपना कहने को कोई आसरा नहीं है, जिसे रंग-बिरंगी लाईटों से सजाएं. जहां दिवाली मनाएं. इनके लिए कैसी दिवाली?

ऐसे बदनसीब लोग आपको फ्लाई ओवर के अंदर, पुलों के अंदर, फ्लाई ओवरों पर, पार्क में, सड़क के किनारे, एनजीओ के नाईट शेल्टरों में,  परित्यकत मकानों, रेलवे स्टेशनों के आसपास मिल जाएंगे.

जिस देश में लगभग 3000 करोड़ से अधिक पटाखों में खर्च कर दिए जाते हों. हजारों करोड़ के बोनस बांट दिए जाते हों. हजारों करोड़ का बड़े-बड़े कंम्पनियों द्वारा मुनाफा कमाया जाता हो. ऐसे देश में 20,00,000 लोगों के पास खाने को दो कौड़ी नहीं. तो सवाल उठता है कैसी दिपावली? किसकी दिपावली?

ज़रूरत इस बात की है कि हम आज अपने परिवार के साथ इंडिया गेट घूमने की बजाए किसी ऐसे लाचार समुदाय तक पहुंचे और अपनी दिपावली में उन्हें शामिल करें. यकिन मानिए यही सच्ची दिपावली होगी…

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