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अनुसूचित जाति का दर्जा क्यों चाहिए?

Amol Madame for BeyondHeadlines

भारतीय मुस्लिम और ईसाई अपने धर्म में हिन्दु अनुसूचित जाति के समानांतर स्थिति में रह रहे लोगों को अनुसूचित जाति में सम्मलित करने की मांग एक लम्बे समय से कर रहे हैं. लेकिन गत दिनों केन्द्रीय सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्री थवर चंद गहलोत ने मुस्लिम और इसाई धर्म में से किसी भी वर्ग को अनुसूचित जाति की सूची में सम्मिलित करने से स्पष्ट मना कर दिया है.

स्पष्ट रहे कि यह मांग सबसे पहले 12 जून 1993 को ऑल इंडिया जमियतुल हवारिन बिहार के द्वारा पटना में की गयी थी. यही मुद्दा 2005 में एक तरफ नितीश कुमार ने संसद में उठाया था तो दूसरी तरफ राबड़ी देवी ने इस प्रकार की सिफारिश केंद्र सरकार से की थी.

इस पर निर्णय लेने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने 2011 में जस्टिस कापाड़िया की अध्यक्षता में एक बेंच का गठन भी किया था. इसी दौरान अनुसूचित जाति आयोग ने अल्पसंख्यांक आयोग को बताया कि इस मांग से उसे कोई ऐतराज नहीं है, बशर्ते की वर्तमान 15% प्रतिशत आरक्षण प्रभावित नहीं होना चाहिए. लेकिन केंद्र सरकार द्वारा इस मामले को आगे नहीं बढ़या गया.

इस संबंध में भाजपा सरकार के मंत्री गहलोत का मानना है कि जिन लोगों ने धर्म बदल लिया वे अछूत नहीं रहे, क्योंकि इस्लाम और ईसाई धर्म में जाति व्यवस्था नहीं है. इन लोगों को अनुसूचित जाति में सम्मिलित करने से अन्य लोग मुस्लिम और ईसाई बनने के लिए प्रोत्साहित होंगे. इसके अलावा अनुसूचित जाती के आरक्षण में अतिरिक्त स्पर्धा हो जाएगी.

थवर चंद गहलोत का यह भी कहना है कि वे लोग पहले ही ओबीसी संवर्ग में आरक्षण प्राप्त कर रहे हैं, फिर उन्हें अनुसूचित जाति का दर्जा क्यों चाहिए?

असल में थवर चंद गहलोत भारतीय मुस्लिम और ईसाई समुदायों को जाति विहीन समझने की भूल कर रहे हैं. बाबा साहब अम्बेडकर ने 1940 में ही इस्लाम में व्याप्त जातिगत व्यवस्था के बारे में लिखते हुए उनकी किताब पाकिस्तान और पार्टीशन ऑफ इंडिया में अशराफ, अजलाफ और अरजाल की चर्चा की है. सच्चर समिति की रिपोर्ट भी बताती है कि जिन तथाकथित हिन्दू पिछड़ी तथा अस्पृश्य जातियों ने इस्लाम क़बूल किया, उन्हें अजलाफ या अरजाल की पहचान मिली. इस तरह यह जातियां मुस्लिम शासन के समय भी निम्न जाति की ही बनी रहीं. यही स्थिति भारत में ईसाई धर्मीय लोगों में भी दिखाई देती है.

शायद यही वजह था कि अजलाफ और अरजाल दोनों को इकठ्ठा करके ओबीसी संवर्ग में रखा गया. पसमांदा आंदोलन की ओर से यह कहा जाता रहा है कि अरजाल जातियां पूर्व की हिन्दू अस्पृश्य जातियां हैं. धर्म परिवर्तन के बाद भी उनकी मुस्लिम जातियों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिया गया था. लेकिन संविधान स्वीकृत होने के बाद राष्ट्रपति (अनुसूचित जाति) अध्यादेश-1950 में सिख धर्मीय अस्पृश्य जातियों को और 1990 में बौद्धों को भी शामिल किया गया. फिर इसी तरह अन्य धर्मों के अस्पृश्य-समान जातियों को क्यों बाहर रखा गया है?

ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष अली अनवर अंसारी आरक्षण से धर्मपरिवर्तन प्रोत्साहित होने वाले मत को सिरे से ख़ारिज करते हैं. उनके अनुसार धर्म एक वैयक्तिक चीज़ है, जिससे व्यक्ति भावनात्मक रुप से जुड़ा हुआ होता है. अगर केवल आरक्षण पाने के लिए धर्म बदला जाता तो मुस्लिम और ईसाई धर्म की पिछड़ी जातियां बहुत पहले ही हिंदू बन जाती. जबकि यह पिछड़ी जातियां अपने-अपने धर्म में रहकर ही अधिकारों के लिए लड़ रही हैं.

इन पिछड़ी जातियों में से किन जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करना चाहिए, इसके लिए सरकार को ज़रूरी जानकारी इकठ्ठा करने की आवश्यकता है. क्योंकि देशपांडे कमीशीन (2005) के अनुसार मुस्लिम और ईसाई धर्म की ऐसी जातियों की पूर्ण जानकारी उपलब्ध नहीं हैं.

यह जानकारी प्राप्त करके उस आधार पर ईसाई और मुस्लिम धर्म की जातियों को भी अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जाना चाहिए. इसके पश्चात अनुसूचित जाति की बढ़ी हुई जनसंख्या के आनुबा में आरक्षण का प्रतिशत निश्चित किया जाना चाहिए. ऐसा करने से अनुसूचित जाति में किसी भी तरह की अतिरिक्त स्पर्धा भी निर्माण नहीं होगी.

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में रिसर्च स्कॉलर हैं.)

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