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लक्ष्मण राव जी : चाय बेचकर साहित्य का युद्ध लड़ने वाला योद्धा

Deepak Jha for BeyondHeadlines

यहां हर क़दम अपने सपनों के तरफ दौड़ रहा है. कुछ लोग हिम्मत हार कर बीच में ही बैठ जाते हैं. कुछ लड़ते हैं… कुछ वक़्त की जंजीरों में कैद हो जाते हैं… और कुछ क़यामत की हद तक भी जाकर अपने सपने को हासिल कर ही लेते हैं. कुछ ऐसे ही अपने धुन के पक्के और जिद्दी लोगों में से हैं – चाय बेच-बेच कर किताबें लिखते साहित्यकार लक्ष्मण राव जी…

‘लेखक का जन्म ही पचास साल के बाद है और उसके मरने के बाद ही उसकी जिंदगी शुरू होती है.’ इतना कह कर लक्षमण राव जी अपने चाय बनाने में लग जाते हैं. बारी-बारी से दुकान पर आते ग्राहकों के कारण बातचीत के क्रम को बिना अवरोध बनाए रखना थोड़ा मुश्किल है. पर वह हर प्रश्न का जवाब बड़े इत्मिनान और शालीनता से साथ देते हैं.

नई दिल्ली में आई.टी.ओ. के निकट विष्णु दिगम्बर मार्ग पर, पाकड़ के पेड़ के नीचे ही इनकी चाय की दुकान सजती है और वो इनके द्वारा लिखित सभी 24 पुस्तकों के प्रर्दशनी के साथ… हिन्दी भवन और पंजाब भवन को जोड़ती मध्य रेखा पर इनका यह साहित्य संसार सजता है. मैं, उत्कंठावस पुछ बैठता हूँ कि ‘आप इतने व्यस्त होकर भी किताबें पढ़ते और लिखते कब हैं?’

यह बात सुन लक्ष्मण राव जी मुस्कुराते हुए कहते हैं कि दिन के एक बजे वे दुकान लगाने आते हैं और रात के नौ बजे तक दुकान को समय देते हैं. फिर दुकान समेट कर घर जाते-जाते दस साढ़े दस तो बज ही जाते हैं. आधे घंटे में तरोताजा होकर रात का भोजन ग्रहण करते हैं. फिर रात के दो से ढाई बजे तक, अपने सपनों के संसार में होते हैं यानि की यह इनके पढ़ने का समय होता है. सुबह 08 बजे से उठकर दैनिक कार्यों से निवृत्च होने के बाद 12 बजे तक पढ़ाई-लिखाई चलती रहती है. इस समयावधि में उनके घर प्रतिदिन आने वाले पाँच प्रमुख अख़बार क्रमश: लोकसत्ता (मराठी), टाईम्स ऑफ इंडिया (अंग्रेजी), इकॉनोमिक्स टाईम्स (अंग्रेजी), वीर अर्जुन (हिन्दी), दैनिक हिन्दुस्तान (हिन्दी) भी शामिल होते हैं. रविवार को अख़बारों के परिवार में इनके घर कुछ और सदस्य शामिल हो जाते हैं जिनमें द हिन्दु (अंग्रेजी), अमर उजाला (हिन्दी), दैनिक भाष्कर (हिन्दी) के नाम आते हैं.

साधारण कपड़ों में यह व्यक्ति असाधारण प्रतिभा का धनी है. यह सड़क पर चाय बेच रहा व्यक्ति कोई साधारण विक्रेता नहीं है बल्कि हिन्दी साहित्य में 24 किताबें लिखने वाले जानेमाने साहित्यकार हैं. 23 जुलाई 1952 को महाराष्ट्र प्रांत के अमरावती जिले के एक छोटे से गाँव तड़ेगाँव दशासर में इनका जन्म हुआ था. मराठी भाषा में माध्यमिक कक्षाएं, दिल्ली तिमारपुर पत्राचार विधालय से उच्यतर माध्यमिक कक्षा व दिल्ली विश्वविधालय से B.A उर्तीणता प्राप्त की और अब 62 वर्ष की उम्र में IGNOU से हिन्दी साहित्य में M.A कर रहे हैं.

इन्हें हिन्दी में लिखने का शौक बचपन से ही रहा. गाँव के एक युवक रामदास की अकास्मिक मृत्यु के उपरांत इन्होंने रामदास पर एक उपन्यास लिख दी थी.

गाँव से दिल्ली तक का सफर काफी मुश्किलों भरा रहा. इस बीच मिलों में काम करते रहें, तो कभी भोपाल में 5 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से बेलदार का काम करते रहे. 30 जुलाई 1975 को G.T EXPRESS से दिल्ली पहुँचे. यहाँ आकर वे दो वर्ष तक ढ़ाबे पर बर्तन साफ करते रहे. फिर, 1977 में आई.टी.ओ. के निकट विष्णु दिगम्बर मार्ग पर पाकड़ पेड़ के नीचे ही पान, बीड़ी और सिगरेट बेचने लगे. इस बीच दिल्ली नगर निगम अनेक बार इनके दुकान को उजाड़ती रही, पर हिम्मत के साथ लक्ष्मण राव जी डटे रहे. धीरे-धीरे चाय भी बेचने लगे.

आमदनी के कुछ पैसों से दरियागंज से रविवार को किताबें खरीद लाते और महीनों भर पढ़ते. इस बीच लिखने का सिलसिला लगातार चलता रहा. फिर अपने पुस्तक के प्रकाशन के लिए दर-दर भटकते रहे, पर नाकामी और दुत्कार के अलावा कुछ भी नहीं मिला. इसके बाद इन्होंने अपना ही प्रकाशन बना लिया. अब पुस्तकें छपवाना कुछ आसान सा हो गया था पर पैसे की समस्या अब भी बरक़रार थी. चाय के दुकान से घर के खर्चों में से कुछ पैसे बचा कर, हर 03 या 06 महीने पर अपनी पुस्तक का प्रकाशन करने लगे.

आज हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी सहित अन्य भाषाओं में इनके सौ से ज्यादा साक्षात्कार प्रकाशित हो चुके हैं. वहीं 38 से ज्यादा साहित्य सम्मान भी इनको मिल चुका है, फिर भी बड़े इत्मिनान के साथ यह योद्धा चाय बेचकर साहित्य का युद्ध लड़ रहा है.

इनकी हिम्मत और समर्पण को विदेशी मीडिया ने भी सराहा है और इनका साक्षात्कार प्रकाशित किया है. जिसमें बीबीसी, एएनआई, एएफपी (फ्रांस) ईएफई (स्पेन), एएफपी (पेरिस), टीवीआई (सिंगापूर), न्यू यॉर्क, एशिया वीक (अमेरिका), एशिया वीक (हांग-कांग) सहित अनेक न्युज एजेंसी शामिल हैं.

40 वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद आज वे खुद को संतुष्ट मानते हैं. आज प्रकाशन के काम को देखने के लिए इनके दो बेटे भी हैं जो अपने अध्ययन के बाद प्रकाशन और विक्रय का जिम्मा संभालते हैं.

कुछ समय पाकर लक्ष्मण राव जी बगल में रखी किताब को पढ़ने लग जाते हैं. लक्ष्मण राव जी की बातें सुनकर मेरे मन में कभी सुनी हुई कुछ पंक्ति याद आ जाती है कि –

कभी तो हारेंगी मौजें तेरे यक़ीन से
साहिल पर रोज़ तू एक घरौंदा बना कर देख…

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