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दुश्मनों को धूल चटाने वाले हमारे सैनिक कब तक सही इलाज के अभाव में हार मानते रहेगें?

Vishnu Rawal for BeyondHeadlines

अक्सर देखा जाता है कि देश के लिए अपनी जान की बाज़ी लगाने वाले सैनिकों की सुरक्षा को कोई भी देश गंभीरता से नहीं लेता. देश के लिए अपने कर्तवय को निभाते हुए सैनिक अपने निजी जीवन के साथ ही अपने परिवार से भी दूर रहते हैं. इसके बावजूद सेवानिवृत्त सैनिकों के लिए किसी भी देश का प्रशासन कोई खास सुविधा नहीं मुहैया करा पाया है. भारत में भी इसके कई उदाहरण भरे पड़े हैं.

इसके ताजा उदाहरण के लिए हम अफगानिस्तान में नाटो के 2001 के बाद से चल रहे अंतरराष्ट्रीय लड़ाकू मिशन को देख सकते हैं. युद्ध के औपचारिक समापन के साथ ख़बर है कि अफगानिस्तान की संसद ने एक सुरक्षा समझौता किया है जिसके तहत नाटो के 12 हजार 500 सैनिकों को स्थानीय सुरक्षा बलों की सहायता व प्रशिक्षण के लिए वहां रहना है. पर इस सरकारी फरमान से स्वदेश न लौटने वाले 12,500 सैनिक स्वदेश लौटने वालों से ज्यादा खुश हो सकते हैं.

क्योंकि सैनिक जानते हैं कि दुश्मनों से लड़ते हुए यहां मरने के बाद वे शहीद कहलाएंगे, पर अपने देश पहुंचकर उनकी स्थिति इससे भी बुरी हो सकती है. दरहसल, युद्ध से स्वदेश लौट रहे अमेरिकी सैनिक पी.डी.एस.डी.(पोस्ट डोमेटिक स्ट्रेस डिसोडर) से ग्रसित हो जाते हैं. यह एक मानसिक बीमारी है जिसमें सैनिक युद्ध की परिस्थिति में इतने साल रहने के बाद खुद को सामान्य परिस्थितियों में ढाल नहीं पाता. उसका किसी भी काम में ध्यान नहीं लगता, हर वक्त यह नया माहौल उसे खाने को दौड़ता है. वह पहले से कहीं ज्यादा हिंसक हो जाता है, जिसके चलते ड्रग्स का आदी भी हो जाता है. जिसके कारण 2008 से 2012 के बीच वापस आए सैनिकों में से 44% आत्महत्या कर चुके हैं. और जो जिंदा है वे भी एक या अनेक बार इसकी कोशिश कर चुके हैं.

सैनिक से युद्ध में काम लेने के बाद उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं. विटरेन अफेयर के अस्पताल जो अमेरिका के 21 क्षेत्रों में सैनिकों की मदद के लिए खुले हुए है वे उन्हें इलाज के नाम पर दवाई के स्थान पर साय्कोएकटिक ड्रग्स या नार्कोटिक्स दे रहे हैं, ऐसी नार्कोटिक्स देने के पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि यह सस्ता और जल्द आराम देने वाला है. पर इनके दुष्प्रभाव का अंदाजा एक सैनिक जो इस इलाज का सहारा ले रहा है कि इस बात से लगाया जा सकता है कि इलाज का कुल समय बताया तो 2 या 3 महीने जाता है पर इलाज का समय बढ़ते-बढ़ते इन ड्रग्स की भी और नशों की तरह लत लग जाती है.

सैनिकों का कहना है कि नार्कोटिक्स की लत व नशे के कारण उनका मन करता है कि वे या तो खुद मर जाए, या फिर किसी को मार दें. सैनिकों का मानना है उन्हें अपने आपको इलाज के लिए दिखाने के लिए सालों भटकना पड़ता है, और अभी भी लगभग 9 लाख जवान इलाज के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं.

इस सबमें गलती कहीं पर भी हो रही है, किसी की भी हों, पर इसे भुगतना सैनिकों को पड़ रहा है. क्या दायित्व, रक्षा आदि की भावना बस सैनिक के भीतर होनी चाहिए. देश या सरकार की सैनिक के प्रति नहीं जो कि देश की सेवा में तत्पर होता है. अब देखना है कि दुश्मन को धूल चटाने वाले जाबांज़ मानसिक परेशानी और सही इलाज की कमी के चलते कब तक हार मानते रहेगें और कब प्रशासन इस पर जल्द ध्यान देकर उचित क़दम उठाने के लिए जागेगा ?

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