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सुनो मीडिया! मैं मुसलमान बोल रहा हूं…

By Mukesh Kumar 

शायद आपको याद नहीं होगा वैसे भी हमारे बारे में आपकी याददाश्त कमजोर ही रहती है. और हाँ मैं कोई जेसिका लाल जैसी दिल्ली की सोशलाइट तो हूं नहीं कि मुझको न्याय दिलाने की मुहिम शूरू करोगे. मैं मेरठ के एक छोटे से कस्बेनुमा हाशिमपुरा हूं. हालांकि मेरे बारे में आपकी ज्यादातर ख़बरें नकारात्मक ही रहती है. जब कोई गुनाह होता है तो हमारे धरम-मज़हब से जोड़ देते हो, और सारे लोगों को गुनाहगार बना देते हो. जब हमारे बारे में कोई बुरी ख़बर होती है तो तुरंत आप बड़ी-बड़ी पैकेजों में बनाकर दिखाते-बताते हो, जब हमारी बेगुनाही की बात होती है तो आप टिकर और फीलर में जगह देते हो.

पिछले साल की ही तो एक घटना है,सोलह मई 2014 को 2002 के अक्षरधाम आतंकी हमले के सभी छह आरोपियों को सुप्रीम कोर्ट ने बरी कर दिया. आदेश में शीर्ष अदालत ने अपनी टिप्पणी में कहा था -“अभियोजन पक्ष की कहानी हर मोड़ पर कमजोर है और गृह मंत्री ने नॉन अल्पिकेशन ऑफ़ माइंड (Non Application Of Mind) का प्रयोग किया.पर आप लोगों ने उस समय के गृहमंत्री (गुजरात) नरेंद्र दामोदर भाई मोदी से यह क्यों नही पूछा कि आपने उनके साथ ऐसा क्यों किया? क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि हमारी पहचान मुसलमान की है. जब आतंकी हमले के घंटे दो घंटे के अंदर पुलिस मनचाहे लोगों को शिकार बनाकर उठा ले जाती है तब तो आप (मीडिया) आरोपियों को आतंकी करार देते हुए और उनके शहर को आतंक का अड्डा बताते हुए पहले पन्ने पर कागज काले (हरे रंग से) किये रहते हैं या स्पेशल रिपोर्ट में धागे से तम्बू बनाने/तानने की जुगत में दिन रात लगे होतें हैं. हमारे जन्मस्थान में जाकर घरवालों के मुंह में लगभग माइक घुसेड़ कर पूछते हैं की कैसा लगता है? लेकिन बरसों बाद जब वही आरोपी बाइज्ज़़त बरी हो जाता हैं तो अव्वल तो वह इस ख़़बर को लेता ही नहीं और अगर लेता भी है तो अंदर के पन्नों में एक कॉलम में या टेलीविज़न में टिकर पर किसी औपचारिता की तरह…

मीडिया तुम ऐसे क्यों हो?

ऐसा क्यों करतें हैं आप? क्या यही है इस बेगुनाही की कीमत? आखिर हमें ही क्यों बार-बार अपने बेगुनाही का सबूत देना पड़ता है? 16 मई 2014 को किसी मीडिया ने उस समय के गृहमंत्री (गुजरात) से सवाल क्यों नहीं पूछा कि उन बेगुनाह भारतीयों का क्या होगा? कौन देगा इसके जवाब? भारतीय क्रिकेट टीम द्वारा मैच के हार एक पर “गुनाहगार कौन” नाम से स्पेशल कार्यक्रम ‘तानते’ हैं, अब आपमें (मीडिया में) इतनी मिशनरी ग्लूकोज बची है, जो इन छह लोगों के गुनाह को निर्धारित और जबावदेही तय करने वालों के गुनाहों का हिसाब लिया जा सके. अब क्यों नहीं किसी में यह हिम्मत बची की 12 साल काल कोठरी में गुजारे इन लोगों के लिए गुनाहगार तय करे. क्या इनके द्वारा काल कोठरी में गुज़रे गए 12 साल की कीमत एक क्रिकेट मैच से भी काम है? जो चैनल भुत-प्रेतों का टी.आर.पी तय करता है, बिना ड्राइवर की कार चलवा सकता है, स्वर्ग की सीढी बना सकता है, क्या वह इन भारतीयों के गुनाहगारों से सवाल भी नहीं पूछ सकता ?

पूंजी के वॉच डॉग

अगर नहीं तो तुम वाचडॉग नहीं बन सकते सिर्फ डॉग बन सकते हो. जो राजसत्ता और नई पूंजी के सामने अपनी दूम हिलाते रहने को विवश हो. रीढ़-विहीन मीडिया आज सत्ता के चरण-चारण वंदना कर रहा है और दिख/बिक रहा है. परन्तु मोहमद सलीम, अब्दुल क़य्युम, सुलेमान मंसूरी के आंसू मीडिया को नहीं दिख रहा है. नहीं दिखा उस शहवान का दर्द जिसके अब्बा पिछले सालों से जेल में हैं. सलीम अपनी बेटी से दस साल बाद मिल सका क्योंकि उसके जेल जाने के बाद यह पैदा हुई थी, उस बच्ची के बचपन को अब्बू की जगह को कौन भरेगा? शायद आपको एजाज मिर्जा भी याद नहीं होगा? यह वही है जो ‘रक्षा अनुसंधान एवं विकास संघठन’, भारत सरकार में कार्यरत जूनियर रिसर्च फेलो था. जब मार्च, 2013 में बेगुनाह साबित करके रिहा किया गया तो मुख्यधारा की मीडिया ने उसके बेगुनाही में एक भी पैकेज नहीं चलाया. पुलिस द्वारा जब बंगलौर कांड के आरोप में एजाज को गिरप्तार किया और बाद में रक्षा अनुसंधान एवं विकास संघठन,भारत सरकार ने फेलोशिप रद्द कर दी तब इस नौजवान का अंतरिक्ष वैज्ञानिक बनने का सपना इसके आंखों में ही रह गया. पर छोटे-छोटे मुद्दों पर हिसाब मांगने वाले आप लोगों ने इस मासूम के सपने के टूटने और बिखरने का हिसाब नहीं मांगा. “कोई करोड़ो दर्शकों से पूछे कि उन्हें न्याय दिलाने के लिए न्यूज चैनल(ल्स) कैसे दिन-रात लड़ते हैं” का दावा करने वाले आपके इन करोड़ों लोगों के न्याय दिलाने में एजाज को कैसे भूल गए? जब यह आरोपी बनाया गया था तब आप लोगों ने कैसे चीख-चीख कर दुनिया को बताया था कि इस मासूम से चेहरे के पीछे के शैतान को देखो, अब क्या हो गया था? यह दोहरापन क्यों अपनाया जाता है कि जब कोई मुस्लिम बेगुनाह होकर आता है तो आपके चैनल और अख़बारों में जगह नहीं पाता जितना जब वो तथाकथित आतंकवादी आरोपित होने पर होता है? कौन एजाज मिर्जा के सपनों को पूरा करेगा? इस मीडिया को हरेक मुसलाम आतंकवादी ही दिखता है.

तुम्हारा एजेंडा

क्या हर मुस्लिम को आतंकवादी के रूप में प्रायोजित करने का कोई एजेंडा बनाया है तुमलोगों ने? हैलो मीडिया ! सुन रहे हो न मुझे या फिर किसी कमर्शियल ब्रेक पर चले गए? मैं एक बात पूछना चाहता हूं कि जब हम आरोपी बनाए जाते हैं तो सबसे पहले हम मुसलमान क्यों बना दिए जाते हैं? जब 72 साल की नन के साथ कोई बलात्कार करता है तो वह कोई फलाना व्यक्ति उस धर्म का क्यों नहीं माना जाता जबकि हमारे मामले में मज़हब को क्यों जोड़ा जाता? चर्च पर होने वाले हमले आपराधिक मामले हो जाते हैं और मंदिरों पर होने वाले हमले आतंकवादी कारवाई क्यों मान ली जाती है? सच-सच बताओ मीडिया, क्या आपका भी कोई मज़हब है? क्या आपकी भी कोई जात है? क्या मीडिया की भी कोई जाति होती है? यदि नहीं तो मीडिया में मुस्लिमों के मुद्दे क्यों नहीं सार्थकता से उठता है?

आखिर क्यों आप (मीडिया) सवालों के घेरे में आ गये है. क्यों नहीं मुस्लिमों के प्रति आपका रवैया अभी भी बदला है? न किसी बेगुनाह की रिहाई को लेकर सवाल उठाये जाते हैं और न ही कोई पैकेज बनाएं जातें है? क्यों नहीं इनके सकारात्मक खबरें पर्याप्त ध्यान खीच पाती हैं? क्यों नहीं मुस्लिम महिलायों की खबरें जगह पाती है? क्यों नहीं मुस्लिमों की बेगुनाह रिहाई खबर बन पाती है? भारतीय मीडिया क्यों नहीं इनकी तरफ अपने आप को खड़ा पाता है? मीडिया, आखिर कब तक हमलोगों को मुसलमान होने से पहले भारतीय होने के लिए सफाई देनी होगी? लोकतंत्र के इस चौथे खंबे में कब तक हाशिमपुरा और इन जैसे तमाम हाशिमपुरा के लोगों के दर्द को जगह मिलेगी? जेसिका लाल की जंग आपने लड़ी थी, काश आप मेरी भी जंग लड़ो, मुझको भी न्याय दिलाओ… (Courtesy: http://naukarshahi.in/)

(लेखक पंजाब युनिवर्सिटी में रिसर्च फेलो हैं.)

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