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अफ्तार पार्टी, ईद में शाखा लगाने की ज़िद और मुस्लिम तंजींमों का ‘मोतियाबिंद’

Zulekha Jabin for BeyondHeadlines

आरएसएस फूले नहीं समा रही है कि देश की राजधानी दिल्ली में उसने अफ़्तार पार्टी का आयोजन किया और तथाकथित ‘भेड़ मुसलमान’ शामिल भी हो गए. अब उसके हौसले लखनऊ फ़तह करने के हैं. कोई बेसमझ भी बता सकता है कि इसके पीछे क्या कुछ चल रहा है.

87 बरस पहले गुलाम हिंदुस्तान में जिस संगठन की पैदाइश ही बर्बर मुस्लिम विरोध और अंग्रेजों के तलवे चाटने से हुई हो, उसका अचानक रोज़ेदार मुसलमानों के रोज़े अफ़्तार करवाने के लिए जज़्बा फूट पड़ना सत्ता के गलियारों में ख़ुद के लिए रहे-सहे विरोध को भी दरकिनार करने के अलावा कुछ भी नहीं है.

विकास के झूठे वादे, बड़बोले नौटंकी बाजों की लनतरानियों, बयानबाज़ियों के गुब्बारे की हवा अब निकल चुकी है. ऐसे सूरतेहाल में बिहार के चुनाव में संघी ब्रिगेड का सूपड़ा साफ़ होना तय है, सो बिहार फिर यूपी चुनावों में आरएसएस की नैया के खेवनहार आज की तारीख़ में हमेशा से दुत्कारे और लतियाए गए. उपेक्षित, सेकेंड क्लास ‘बेचारे मुसलमान’ ही बाक़ी बचे हैं, दूसरा और कोई नहीं –इसलिए उन्हें साधने के लिए ही (अचानक नहीं) ये अफ़्तार प्रेम फूट पड़ा है.

ग़ौरतलब है कि तथाकथित मुस्लिम नेताओं को तो वो पहले ही अपने अश्वमेघ रथ में साध चुके हैं बची ‘निरीह’ जनता तो उसका क्या है. फ़िरक़ों में बंटी, आपस में ही लड़वाई जार ही बिना दिमाग के ‘भेड़ों’ की ‘जाहिल भीड़’ को अपनी तरफ़ हांकना क्या कोई मुश्किल काम है? सो अफ़्तार फिर ईद मिलन के बहाने कुछ कबाब-वबाब, खजूर, बिरयानी, शरबत जैसा थोड़ कुछ परोस कर अपने जेब में इन्हें ठूंस लिया जाए.

याद कीजिए 21 जून अंतर्राष्ट्रीय योगा दिवस पर मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड सेक्रेटरी रहमानी का मीडिया के सामने गुर्राना, इस्लाम को ख़तरे में दिखाते हुए हिंदुस्तानी मुसलमानों को सड़कों पर उतारने का दावा करना, उसके सचिव रहमानी का मुल्क भर के सभी मस्जिदों और मज़हबी तंज़ीमों के साथ चिटठी बाज़ी करना कि आज ‘भारतीय दीन’ ख़तरे में है, जैसा ख़ूब बवाल मचाया गया. और उसके सुर में सुर मिलाते हुए कई दूसरी स्वयंभू मज़हबी तंजीमें भी बोर्ड के साथ गलबहियां गिल हो गईं.

ज़रा ये भी याद कीजिए ज़फ़र सरेश वाला जैसे मौक़ा-परस्त सरकारी चाटुकार की क़यादत में इन्हीं स्वयंभू मज़हबी नेताओं का संघी ब्रिगेड के ‘पीएम’ की कुर्सी में बैठे ‘मोहरे’ के साथ पिछले दरवाज़े से चोरों की तरह मुलाकात करना, संविधान की धज्जियां बिखेरने वाले को अच्छी सरकार चलाने वाले (सबसे बुरे आमानवीय, गरीब, आदिवासी, दलित, महिला व अल्पसंख्यक विरोधी सरकार को) ‘सुशासन’ कहकर उसकी पहली सालगिरह की बधाई देना, यही नहीं अपनी मौक़ापरस्ति की इंतेहा करते हुए आम हिंदुस्तानी मुसलमान के वक़ार और उसके नागरिक हक़ों का चुपके से सौदा भी कर लिया, जिसकी ख़बर वे आज भी आम मुसलमान को नहीं होने देना चाहते.

मगर चाल-चलन, और चाटूकार गतिविधियों से इनकी बदबूदार कारगुज़ारियां सबको साफ़ दिखाई पड़ रही हैं. खुद को मुसलमान कहने/समझने वाले हर हिंदुस्तानी को अब ये यक़ीन करना ही होगा कि ये तंज़ीमें और इनके कारकुन (कार्यकर्ता) अब बेईमान, रिश्वतख़ोर, मौक़ापरस्त और मज़हबफ़रोश हो गए हैं. अब ये हमारे किसी काम के नहीं रहे. ये हमें अपनी बढ़ती तोंद के लिए चारा, अपनी दाढ़ी का रंगीन खि़ज़ाब और अपने घी चुपड़े पराठे-बोटी का सिर्फ़ ज़रिया ही मानते हैं. इससे ज़्यादा शायद कुछ नहीं.

इनके अंदर न ईमान बचा है न इंसानियत और न एक जिम्मेदार नागरिक का वक़ार. अगर ये सच नहीं है तो आप ख़ुद ही सोचें कि जब मुसलमान अपने नाम और पहचान की वजह से बेईज्जति, अत्याचार और शोषण का शिकार होता है, तब ये तंजीमें उसके साथ क्यों नहीं खड़ी होतीं? जब उसके नागरिक हक़, झूठे शक और साजि़श की बिना पे छीने जाते हैं, ये तंजीमें मुंह लपेटे कहां छिपी रहती हैं? जब उसके घरों, गुमटियों को आग के हवाले किया जाता है, उसे घर से बेघर किया जाता है, (गुजरात, मुज़फफरनगर, शामली, त्रिलोकपुरी, अटाली) मुसलमान होने के नाते ज़लीलोख़्वार किया जाता है, उसे सरेआम ज़लील कर पीटा जाता है, क़त्ल कर दिया जाता है (मौलाना ख़ालिद मुजाहिद, काशिफ़, शाहिद आज़मी, मोहसिन शेख़, एजाज़, हुसैन) इन तंज़ीमों के मुंह से आह क्यों नहीं निकलती?

उसे दहशतगर्द बता/प्रचारित करते हुए बरसों बरस जेलों में प्रताड़ित किया जाता है, उसका परिवार इंसाफ़ की गुहार लगाता ग़रीबी, बेरोज़गारी, अपमान की जिंदगी गुज़ारता है, तब इनके कानों में जूं क्यों नहीं रेंगती? अदातल से बेगुनाही का सर्टिफि़केट लेकर जब वो बाहर आता है उसके/परिवार के लिए इनकी जुबान से मुबारकबाद के बोल क्यों नहीं फूटते?

सोचिए और बताइये आपके होश संभालने के बाद से अबत क कितनी बार? कब, किस मुददे पर? इन्होंने आम गरीब मुसलमानों के इंसानी, नागरिक हक़-तलफ़ी के खि़लाफ़ आवाज़ उठाई है? सड़कें जाम की हैं? कोई प्रतिनिधि मंडल भेजा हो? या सरकारों पर दबाव बनाने जैसा देशव्यापी कोई आंदोलन छेड़ने की घोषणा भी की हो? नहीं न? तो फि़र आज अचानक इस्लाम पे ख़तरे के नाम पर आरएसएस जैसी फासिस्ट, देशविरोधी तंज़ीम से झूठी लड़ाई लड़ने का दिखावा करते हुए अंदरूनी समझौते के तहत उसे फ़ायदा पहुंचाने के लिए हम आम मुसलमानों का इस्तेमाल क्यों कर रहे हैं? अब तक कहां थे ये सब?

एक ताज़ा ख़बर के मुताबिक़ दिल्ली की ख़ाली होने जा रही एक राज्यसभा सीट के लिए ‘जीमयतुल उलेमा हिंद’ अपना दावा पेश करने का मुतालबा करने जा रही है. बेशक जम्हूरियत में सभी मज़हबी अक़ायद का सम्मान और प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए. इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए. मगर किस बिना पर?

ये तंज़ीम और इसके कारकुन ख़ुद को हिंदुस्तान की बड़ी मज़हबी जमअत का दावा कर रहे हैं? आज अटाली के 150 मुसलमान परिवार आरएसएस के गुंडों की दबंगई से बेगुनाह होते हुए भी अपने घरों से बेघर कर दिए गए बल्लभगढ़ में अपने रिश्तेदारों के यहां पनाह लिए हुए हैं. क्या इनमें से किसी ने उनसे मुलाकात की ज़हमत उठाई? कोई गया इनसे पूछने कि वे अफ़्तार और सहरी का इंतेजाम कैसे कर रहे हैं? उनके बच्चे और उनके तन पे मैले चिकट कपड़े कैसे बदले जाएंगे?

जबकि उनका सब कुछ पुलिस की मौजूदगी में जला दिया, लूट लिया गया है, पहले वे कई हफ़्ते थाने के अहाते में रहे, जैसे-तैसे अपने घर पहुंचे तो उन पर पाबंदियां लगा दी गई. कोई दुकानदार उन्हें सामान नहीं देता, न कोई दूध या अनाज देता. फिर भी वे खामोशी से चुपचाप रह रहे थे, तब भी उन पर हथियारों से लैस आरएसएस के मुख़्तलिफ़ संगठनों की भीड़ ने दुबारा जानलेवा हमला किया. जैसे-तैसे पुलिस ने उन्हें गांव के बाहर किया. आज वे किस हाल में हैं, ये पूछने किसी जमअत या बोर्ड जैसी तंज़ीमों के कारकुन को फुरसत नहीं है.

आरएसएस जिनकी गोद में ये सारे मज़हबी ठेकेदार आज दुबक चुके हैं, जो बचे हैं वे जगह तलाश रहे हैं. ये राज्य/केंद्र सरकार से उन आरोपी गुंडों की गिरफ़्तारी की मांग क्यों नहीं कर रहे हैं? ताकि अपराधियों में क़ानून का डर बैठे और बेचारे गरीब मुसलमान रमज़ान की आखि़री इबादत अपने घरों में इंसानी, नागरिक की तरह सुकुन से ईद मनाने की तैयारी करें.

मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के वो रहमानी जो मुल्क भर की मस्जिदों इमामों और उनकी तंजीमों को सूर्य नमस्कार के खिलाफ़ लोगों को भड़काने की चिट्ठी लिख सकते हैं, तो अपने चहेते प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, सीएम को चिट्ठी लिखकर क्यों नहीं ललकार रहे कि 24 घंटों के अंदर अटाली के नामजद अपराधियों की गिरफ़्तारी नहीं हुई तो वे दिल्ली की सड़कें जाम करेंगे?

जमिअत-ए-उलेमा-ए-हिंद क्यों नहीं ललकार रही राज्य और केंद्र सरकार को कि यूपी में मुसलमानों के नागरिक हकों को छीनना बंद करे, वर्ना वे बेमुददत भूख हड़ताल करेंगे (माहे रमज़ान भी है, जंतर मंतर पर आएं, टेंट लगाएं बैठे, यहीं अफ़्तार सहरी करें और नमाजें अदा करें)?

दिल्ली में जहां इन सभी तंज़ीमों के एसी प्रुफ़ दफ़्तर मौजूद हैं, में खजूरी खास के ( 90 फीसदी मुस्लिम आबादी) राजीव पार्क में जहां बरसों से ईद और बकरीद की नमाजें होती रही हैं, इस बार 17,18,19 जुलाई को आरएसएस की 40 यूनिट की शाखायें लगेंगी और इसी दौरान महा-पंचायत का आयोजन किया जाएगा, जैसी घोषणा की जा चुकी है (सेक्युलर संगठन और लेफ्ट पार्टी का प्रतिनिधि मंडल स्थानीय पुलिस प्रशासन से इसे रोकने की गुहार लगा चुका है.)

मुसलमानों की सबसे बड़ी मज़हबी तंज़ीम होने का दावा करने वाली जमियत उलेमा हिंद इसे रोकने के लिए दिल्ली, केंद्र सरकार को संविधान पर अमल करने को मजबूर क्यों नहीं कर रही? मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तो बतौर नागरिक सड़कों पे उतरने का ऐलान कर सकती है?

आज दिल्ली के ही खजुरी खास, त्रिलोकपुरी, मदनपूर खादर, ओखला, सीलमपुर जाफराबाद, बवाना जैसे आधा सैकड़ा इलाके के मुसलमान दहशत में हैं कि शबे-कद्र और ईद अमन व सकून से गुजर जाए. दिल्ली से सिर्फ 20 किलोमीटर की दूरी पर अटाली गांव से संघी जाटों ने मुसलमान आबादी को खदेड़ कर बाहर भगा दिया गया है. वे अपने गांव, घर वापस लौटना चाहते हैं, मगर उनकी हिफ़ाज़त की जिम्मेदारी/गारंटी सरकार, पुलिस प्रशासन लेने को तैयार नहीं है.

ऐसे में सबसे बड़े होने और मुसलमानों के दमपर संसद में पहुंचने का दावा पाले ये तंज़ीमें सीना तान के अपने चहेते आरएसएस से बात क्यों नहीं कर रही हैं? क्यों नहीं उन सभी 150 परिवारों को अपनी जिम्मेदारी पे उनके गांव घर में पहुंचा रही? क्यों नहीं केंद्र और हरियाणा सरकार पर संविधान पर अमल करने की ताईद कर रही हैं? उन्हें ये क्यों नहीं बता रही है कि संविधान को न मानने वाला देशद्रोही होता है?

अफ़सोस… ये ऐसा कुछ भी नहीं करेंगे. ये इस्लाम के नाम पर खाने और सिर्फ बातें बनाने वाले लोग हैं. अमल करने वाले नहीं. इन्होंने अपने ज़ाती, सियासी मफ़ाद की ख़ातिर आरएसएस के सामने घुटने टेक दिए हैं.

लेकिन मुल्क में अमन और इंसाफ़ का परचम लहराने के लिए, संविधान के मुताबिक राज्य केंद्र सरकारों को चलने पर मजबूर करने के लिए और अपने नागरिक हक़ लेने के लिए हमें ही पहलक़दमी करनी होगी. उठ खड़ा होना होगा –उनके सबके साथ, जो हमारे नागरिक और मज़हबी हक़ों पर हमला होने पर हमारे साथ खड़े होते रहे हैं. अपनी मेहनत, अपने माल और कई बार अपनी इज्ज़त और जान पर खेल कर भी.

याद कीजिए बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद इसकी मुख़ालफ़त में उठने वाली पहली आवाजें मुसलमानों की नहीं अमन व इंसाफ़ पसंद, सेक्यूलर हिंदुओं की रही है. जब गुजरात हुआ तब से अब तक मुतास्सरीन मुसलमानों के पुरसे से लेकर हर तरह की मदद करते हुए, क़त्लेआम के जिम्मेदार अपराधियों को अदालत तक घसीटने वाले सामाजिक कार्यकर्ता, वकील, छात्र, नौजवान ज्यादातर हिंदू ही रहे हैं.

एडवोकेट मुकुल सिंहा, आईपीएस संजीव भट्ट, शबनम हाशमी, गौहर रज़ा, तीस्ता सीतलवाड़, हर्षमंदर, प्रो. त्रिपाठी, रेबेका जान, वृंदा ग्रोवर जैसे सैंकड़ों लोग आज भी पर्दे के पीछे लगे हुए हैं. मजलूम मुसलमानों को इंसाफ दिलाने के लिए. हाशिमपुरा, मुजफफरनगर, शामली, गोपालगढ, धुले, मालेगांव, नांदेड, जलगांव, त्रिलोकपुरी, अटाली, अब टीकरी. इसाइयों पर उनकी इबादतगाहों पर होने वाले सभी छोटे-बड़े हमलों के खिलाफ़ यही लोग इनकी तंज़ीमें हमेशा पेश-पेश रही हैं, बग़ैर किसी ख़ौफ़ के, बिना किसी लालच या दबाव के.

हम सभी आम मुसलमानों को अब एक जागरूक शहरी और देश के जिम्मेदार नागरिक की भूमिका में आना ही होगा. ज़ुल्म कहीं भी हो, किसी पर भी हो, हमें उसके खिलाफ़ उठने वाली आवाज़ों में अपनी आवाज़ मिलानी ही होगी.

गुज़रे 67 बरसों में ऐसा न करके हमने ख़ुद को और अपनी आने वाली पीढ़ियों को हाशिए में धकेल लिया है. जब दलितों की बेटियों के सरेआम कपड़ें उतार पिटाई की जाती रही, हम ख़मोश रहे, क्योंकि हम दलित नहीं थे. जब आदिवासीयों को नक्सली कहकर सरकार और उसकी पुलिस एनकाउंटर करती रही, हम ख़मोश रहे क्योंकि हम आदिवासी नहीं थे. जब मज़दूरों, किसानों पर मालिकों और सरकारों की पुलिस लाठी और गोलियों की बारिश करती रही, हम ख़ामोश रहे क्योंकि उन मज़दूरों से हम अपना कोई नाता नहीं समझते थे. हमारे मोहल्ले, पड़ौस में, आपसी झगड़ों में, रास्तों में, काम की जगह पर, बसों में ट्रेनों में कहीं भी हम मज़लुम पक्ष के साथ खड़े नहीं हुए. शायद किसी मसलेहत के तहत हम ख़ामोशी लगाते गए और ऐसा करते हुए हम ख़ुद को ही हाशिए पर ले जाते रहे

–और आज हमारा पड़ौसी बच्चा जिसे हमने अपने बच्चे की तरह प्यार की छांव में बड़ा किया, वही हम पर इंट-पत्थर, तलवार, फरसे, लाठी और तमंचे से वार करता है. हमें मां बहन कहकर बड़ा हुआ नौजवान ही सरेआम हमारे दुपटटे खींचता है. हम बेबस मज़लूमों की तरह अपने ही मुल्क में शरणार्थी की जिंदगी जीने को मजबूर कर दिए गए और इसमें सबसे बड़ा हाथ हमारी मज़हबी तंज़ीमों उनके कारकूनों हमारे मज़हबी और सियासी लीडरों का रहा है कि जिन्होंने हमें हर जगह ज़लीलो ख़्वार किया है.

अपने घटिया मफ़ाद की खातिर हमें ज़ालिमों के बाड़ों में तन्हा छोड़ दिया. आवाज़ उठाने पर मज़हब विरोधी होने के फ़तवों का डर हमारे अंदर बिठा दिया. हमें अपना बंधुआ मजदूर बना लिया और ख़ुद उन ख़ूनी ताक़तों सियासी लीडरों के साथ शामें रंगीन करते रहे, दावतें उड़ाते रहे, अपने बच्चों और रिश्तेदारों के लिए हर सुविधा बुक करते रहे, सिर्फ हमारे नाम पर, हमारे जबान न खुलने देने, विरोध न होने देने की ज़मानत देकर!

अभी भी वक़्त है. हम संभल जाएं और आंख, कान खोलकर देखने सुनने लगे और कोई भी फैसला करने, उस पर चलने से पहले अपनी आगामी पीढ़ी, क़ौम, मिल्लत और मुल्क का फ़ायदा सोचें… तब हम धीरे धीरे ‘इनकी’ बंधुआ मज़दूरी से आज़ाद हो सकते हैं, वर्ना किताबे हिदाया और ख़त्मे-रसूल (सल्ल.) के बाद भी अगर हम जाहिल रहे तो ख़ुदा का क़ुरआन में खुला वादा है हमारे ज़लीलोख़्वार होने में वो हमारी मदद को नहीं आएगा!

(ये लेखिका के अपने विचार हैं.)

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