बियॉंडहेडलाइन्स हिन्दी

मेहसी की कारीगरी को सरकारी धोखा!

By Afroz Alam Sahil

मेहसी… एक ज़माने में इसे ‘बिहार का मोती’ कहा जाता था. असल में जो जगह सीप के अंदर मोती की होती है, वही स्थान बिहार के भीतर चम्पारण के मेहसी का था.

मेहसी की कारीगरी सारी दुनिया में मशहूर थी. यहां के सीप के बने बटन चीन और जापान तक अपनी सफलता के झंडा गाड़ चुके थे. लेकिन वक़्त की बदलती तस्वीर ने मेहसी की तक़दीर ही बदल डाली. सरकार की उपेक्षा और भीषण लापरवाही ने मेहसी की कारीगरी को कहीं का नहीं छोड़ा.

IMG_6585

मेहसी के चकलालू इलाक़े में रहने वाले 58 वर्षीय नूर आलम अंसारी का कहना है कि 1905 से उनका परिवार सीप बटन के इस धंधे से जुड़ा हुआ है, लेकिन अब आगे यह जुड़ाव कितने दिनों तक रहेगा, कहना मुश्किल है. अपने बच्चों को तो इससे दूर ही रखा है.

वो बताते हैं कि –‘1995 तक इस इलाक़े में 400 से अधिक सीप बटन की फैक्ट्रियां थीं, पर अब 60 से 65 फैक्ट्रियां ही बची होंगी. कभी खुद मेरे फैक्ट्री में अच्छे-खासे लोग काम करते थे, पर अब 7-8 लोग ही काम करते हैं. इसके बावजूद दाल-रोटी चलाना मुश्किल हो रहा है.’

IMG_6552

पिछले दो साल बिहार के इस धरोहर के लिए और भी बुरे साबित हुए हैं. केन्द्र सरकार के ज़रिए यहां जिस कॉमन फैसिलीटी सेन्टर की नींव रखी गई, उसका ताला आज तक नहीं खुला. हालांकि इस सेन्टर की स्थापना मेहसी की बटन की कारीगरी को नई ऊंचाई देने के मक़सद से शुरू किया गया था, मगर इसकी बदहाली इस बात की गवाही दे रही है कि केन्द्र सरकार ने इस ओर पलट कर भी नहीं देखा.

नूर आलम बताते हैं कि –‘क़रीब ढाई-तीन साल पहले केन्द्र सरकार के स्फूर्ति योजना के तहत एक सेन्टर बनाया गया ताकि उसमें अच्छी तकनीक का इस्तेमाल करके बटन को अच्छी फिनिशिंग दिया जा सके, लेकिन वो सेन्टर बिजली के अभाव में आज तक नहीं खुल पाया है.’

IMG_6541

‘चम्पारण एसोसियशन ऑफ रूरल डेवलपमेंट’ नामक संस्था के सचिव मो. इरशाद का कहना है कि –‘1995 में इस सीप बटन इंडस्ट्री में चीन भी कूद पड़ी. उसने नए टेक्नोलॉजी का उपयोग करके मेहसी के बटन से भी सस्ते बटन बाज़ार में उतार दिये. मेहसी के बटन के मुक़ाबले चीन के बटन की क्वालिटी ज़्यादा बेहतर है. बस इसी को टक्कर देने के लिए केन्द्र सरकार के ‘स्फुर्ति योजना’ के तहत एक कॉमन फैसिलीटी सेन्टर का निर्माण किया गया. इसमें कई आधुनिक मशीनों को मंगाया गया है, ताकि यहां के बटन की क्वालिटी बेहतर बनाकर पूरी दुनिया में फिर से भेजा जा सके.’

IMG_6565

कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती. केन्द्र सरकार ने अगर मेहसी को ज़ख़्म दिए तो राज्य सरकार ने भी इस ज़ख़्म पर नमक लगाने का ही काम किया है. राज्य की ज़िम्मेदारी मेहसी को बिजली की सुविधा देनी थी, मगर मेहसी की हालत यह है कि बिजली के तार तो हर तरफ़ नज़र आते हैं. लेकिन इन तारों में बिजली के झुरझुरी का अहसास करने के लिए घंटों और कई बार दिनों का इंतज़ार करना पड़ता है. जबकि चम्पारण के इसी क्षेत्र में अधिकतर जगहों पर बिजली 18 से 20 घंटों तक रहती है.

महमूद अंसारी व सतेन्द्र कुमार बताते हैं कि मेहसी में बिजली मुश्किल से 7-8 घंटे रहती है, लेकिन वो बिजली 7-8 घंटों के लिए कब आएगी, किसी को पता नहीं. अब रात में तो काम कर नहीं सकते.

36 साल के शम्सुद्दीन बताते हैं कि –‘20 साल से इस काम में लगा हूं. 6 लोगों का परिवार है. और पूरे दिन काम करने के बाद कमाई सिर्फ़ 200 रूपये ही हो पाती है. अब आप ही बताईए कि महंगाई के इस दौर में बच्चों का पेट कैसे पालूं?’

वो यह भी बताते हैं कि –‘अब मेहसी के मजदूर बिहार से पलायन कर रहे हैं, ताकि वो बाहर में कुछ ज़्यादा कमाकर अपने परिवार का पेट पाल सकें.’

26 साल के यादव लाल शाह बचपन से ही बटन बनाने का काम करते हैं. बताते हैं कि 8 लोगों का परिवार है. पूरे दिन काम करके 140 रूपये की कमाई होती है. पत्नी भी यही काम करती है. उसे 110 रूपये ही मिलता है. बस इसी में किसी तरह से पेट पाल रहे हैं.

मो. शब्बीर को नेताओं व खास तौर पर मीडिया के लोगों से काफी नाराज़गी है. वो गुस्से में कहते हैं कि –‘अगली बार कोई मीडिया वाला आया तो उसका कैमरा ही फोड़ दुंगा… सिर्फ़ आते हैं और हमारा फोटो खींचकर चले जाते हैं. उनकी तक़दीर तो बदल जाती है, लेकिन हम अभी भी वहीं के वहीं हैं.’

25 साल के सफ़रोज़ भी पिछले 6-7 सालों से यही काम कर रहे हैं. वो बताते हैं कि –‘सिर्फ़ मेन मेहसी गांव में ही 5 साल पहले तक 60-70 कारखाने थे, पर अब सिर्फ़ 10 कारखाने बचे हैं. अगर ऐसा ही चलता रहा तो कारखाने ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेगा.’

सफ़रोज़ को महीने में सिर्फ़ ढाई हज़ार रूपये ही मिल पाता है. उमरजीत और व्यास राम की भी यही कहानी है.

कड़वी हक़ीक़त यह है कि इस इंडस्ट्रीज़ को लेकर सबने खूब सियासत की है. लेकिन इसे बचाने की चिन्ता शायद किसी को भी नहीं है. 2012 में खुद सीएम नीतिश कुमार अपने ‘सेवा यात्रा’ के दौरान मेहसी के लोगों से वादा किया था कि वो इस इंडस्ट्री का कायाकल्प कर देंगे, लेकिन उसके बाद वो या उनके अधिकारी आज तक यहां कभी झांकने भी नहीं आएं.

कभी पूर्व उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी भी इस इंडस्ट्री में रूचि दिखाए थे. यहां के लोगों से कई वादे किए थे, पर उन्होंने भी यहां के लोगों को धोखा देने का ही काम किया.

इस मेहसी में जहां एक ओर बिजली से चलने वाले छोटी-मोटी मशीने हैं, वहीं मंजन छपरा व बथना में आज भी लोग हाथ से चलने वाले मशीनों पर ही काम करते हैं.

हाथ से चलने वाले एक फैक्ट्री के मालिक श्रीनाथ प्रसाद बताते हैं कि –‘1985 से यह फैक्ट्री चला रहा हूं. सुबह 6 बजे से लेकर शाम 6 बजे तक काम होता है. लेकिन बड़ी मुश्किल से महीने 13-14 हज़ार रूपये ही बच पाता है. वो भी अगर काम हुआ तो… सावन-भादो में तो पूरे दिन बैठना ही पड़ता है.’

वो बताते हैं कि –‘ऐसा नहीं है कि मेहसी के बटन की मांग नहीं है. बाज़ार में खूब मांग है. लेकिन सारा फ़ायदा बिचौलिए को हो रहा है. वो हमसे खरीद कर इसी बटन को दोगुने-तीगुने क़ीमत पर दिल्ली व मुम्बई के बाज़ार में बेचते हैं. फिर वहां उसकी थोड़ी और फिनिशिंग करके फिर उसे भारी क़ीमत पर भारत से बाहर दूसरे मुल्कों में बेची जाती है.’

नूर आलम बताते हैं कि –‘1728 बटन का एक ग्रेड होता है और एक ग्रेड की क़ीमत 250 रूपये से लेकर 700 रूपये तक है, पर वो बड़े शहर में दोगुने क़ीमत पर बिकता है.’

IMG_6547

‘चम्पारण एसोसियशन ऑफ रूरल डेवलपमेंट’ के मो. इरशाद इस सीप बटन उद्योग का इतिहास काफी बेहतर ढंग से बताते हैं. उनके मुताबिक़ –‘1905 में मेहसी का यह सीप उद्योग शुरू हुआ. मेहसी के राय भुलावन लाल ने सबसे पहले गंडक नदी से सीप लेकर आएं और उसे हाथ से तराश कर बटन बनाया. फिर वो इसके लिए जापान गए वहां के सीप बटन के कारखानों को देखा और फिर लौटकर अपने एक मित्र अंबिका चरण के मदद से यहां हाथ से चलने वाली मशीनों को बनाया. फिर बाद में महमूद आलम और अलाउद्दीन अंसारी नाम के दो भाईयों ने डीजल इंजन से चलने वाले मशीनों को बनाया.’

IMG_6578

वो बताते हैं कि –‘1980 का दौर इस इस धंधे का गोल्डेन एरा माना जाता है. यहां के बटन की पूरे दुनिया में खूब धूम मची. यहां के बटन जापान व चीन तक गए. हालांकि आज के बटन की मांग है. एरोपिए देशों में आज भी बटन जाता है और आपको बता दूं कि पूरे भारत में सीप के बटन सिर्फ़ चम्पारण के मेहसी में ही बनते हैं.’

स्पष्ट रहे कि मेहसी के सीप बटन 1985 तक विश्व पटल पर चीन व जापान को टक्कर देते थे. लेकिन अपने देश में अत्याधुनिक मशीनों का विकास नहीं होने के कारण परंपरागत मशीनों से बने बटन की मांग घटती गई. रही-सही कसर प्लास्टिक के बनने वाले बटनों ने पूरी कर दी.

हालांकि इस मेहसी में सीप के बटन के साथ-साथ सीप के ज्वेलरी भी बनाए जाते हैं. साड़ी के पिन से लेकर माला व आईने की साज सज्जा भी की जाती है. और यहां के बने ये सामान भारी क़ीमत पर गोवा और मुम्बई के समुद्र तटों पर बिकते हैं. हर तरह के एक्जीबिशन यहीं से यह सारे सामान जाते हैं. जिनकी रईसों के बीच काफी पूछ है, लेकिन इन गरीबों की क़दर की आज तक किसी ने कोई परवाह नहीं की.

मेहसी की बदहाली बिहार के छोटे व कुटीर उद्योग-धंधों के वजूद पर घातक चोट की तरह से है. रोज़गार के इन साधनों से लाखों गरीब-गुरबों की ज़िन्दगी सीधे तौर पर जुड़ी हुई है. केन्द्र व राज्य सरकारों के लिए यह मुद्दा शायद ग़ौर करने के क़ाबिल ही नहीं है. ऐसे में गरीब और लाचार कारीगर अपनी क़िस्मत के सहारे भूख और बेरोज़गारी के मुश्किल दिनों को जैसे-तैसे करने में लगे हुए हैं.

Loading...

Most Popular

To Top

Enable BeyondHeadlines to raise the voice of marginalized

 

Donate now to support more ground reports and real journalism.

Donate Now

Subscribe to email alerts from BeyondHeadlines to recieve regular updates

[jetpack_subscription_form]