Edit/Op-Ed

क्या आज के ज़माने के ‘मूनिस’ हैं रविश कुमार?

By Afroz Alam Sahil

मुज़फ़्फ़रनगर दंगा हो या जेएनयू में ‘देशद्रोह’ की बहस… सबसे ज़्यादा सवाल यदि किसी के चरित्र पर उठा है, तो वह है –मीडिया…

ख़ास तौर पर इन दोनों ही घटनाओं ने जिस तरह से समाज और उसकी सोच को बांटा है, वैसे ही मीडिया की भूमिका को इसने कटघड़े में भी खड़ा किया है.

हालांकि ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है कि मीडिया पर सवाल उठा हों. मीडिया के चरित्र पर यह सवाल हमेशा से हर सदी में उठता रहा है. लेकिन यह भी हक़ीक़त है कि मीडिया में सब कुछ ख़राब ही नहीं है. कुछ अच्छा भी यहीं हो रहा है और होता रहा है.

आज से तक़रीबन दस साल पहले महात्मा गांधी के सत्याग्रह पर शोध करते हुए चम्पारण में मेरा परिचय एक ऐसी शख़्सियत से हुआ जो पत्रकारिता जगत के लिए न सिर्फ़ मिसाल, बल्कि एक सबक़ व आदर्श भी है. इसकी क़लम का ख़ौफ़ इतना था कि अंग्रेज़ इन्हें आंतकी व बदमाश पत्रकार के ख़िताब से नवाजते थे. इस दौर में भी कुछ लोगों को इनसे इतना डर है कि इनके नाम को किताबों से गायब करने में लगातार लगे हुए हैं. इस ‘बदमाश’ पत्रकार का नाम है –पीर मुहम्मद ‘मूनिस’

दरअसल, सच तो यह है कि भारत के सबसे उत्कृष्ट मीडिया संस्थान से पत्रकारिता में उच्च शिक्षा लेने के बावजूद मैं अपने ही ज़िले चम्पारण से जुड़े आज़ादी के मुजाहिद और पत्रकारिता में ऐतिहासिक योगदान देने वाले इस पीर मुहम्मद ‘मूनिस’ के नाम से अनजान था. डॉक्यूमेंट्री ‘जर्नी ऑफ चम्पारण’ बनाने के दौरान एक बार उनका नाम आया तो, लेकिन ज़ेहन पर कोई छाप छोड़े बिना ही गुज़र गया.

मैं ही क्या मेरी पीढ़ी के, या मुझ से पहली पीढ़ी के पत्रकारों, या हिन्दी साहित्य में रूचि रखने वालों को भी शायद ही पीर मुहम्मद ‘मूनिस’ के बारे में कुछ पता हो. लेकिन जबसे मैंने पीर मुहम्मद ‘मूनिस’ को जाना, रह-रह कर एक सवाल मेरे ज़ेहन में कौंधता रहा कि आख़िर क्यों इतिहास, समाज और भारत राष्ट्र ने क़लम के इस सिपाही को नज़रअंदाज़ कर दिया गया?

अपनी क़लम से क्रांति करने वाले मूनिस उस दौर में भारत की शोषित-पीड़ित जनता की आवाज़ बने थे. जब ब्रितानी हुकूमत अपनी ताक़त के चरम पर थी. उन्होंने क़लम से न सिर्फ क्रांति व विद्रोह का बिगुल बजाया बल्कि बेहद गंभीरता से भाई-चारे और धर्म-निरपेक्षता पर भी लिखा. उन्होंने न सिर्फ ब्रितानी हुकूमत बल्कि भारतीय समाज में गहरी पैठ रखने वाले धर्म के ठेकेदारों के ख़िलाफ़ भी मोर्चा लिया और इसकी बेहद भारी क़ीमतें भी चुकाई.

यह मूनिस के क़लम का जादू ही था कि महात्मा गाँधी चम्पारण चले आए और भारत में सत्याग्रह का आग़ाज़ किया. पहली बार ब्रितानी हुकूमत अहिंसा के आगे झुकने पर मजबूर हुई. आज भारत का हर पढ़ा-लिखा नागरिक चम्पारण सत्याग्रह से तो वाक़िफ़ है, लेकिन पीर मुहम्मद मूनिस से नहीं. ऐसा क्यों? यही सवाल मेरे अंदर बेचैनी पैदा करता है. चम्पारण से ही होने के कारण यह बेचैनी और भी बढ़ जाती है.

इसी बेचैनी के नतीजे में मैंने मूनिस साहब के जीवनी पर एक पुस्तक भी लिखी, जो मैं समझता हूं कि स्वयं एक पत्रकार होने के नाते पीर मुहम्मद मूनिस की विरासत को सलाम है…

पीर मुहम्मद ‘मूनिस’ के गृह-ज़िला बेतिया में ही इसी साल मुझे उनकी याद में आयोजित एक कार्यक्रम में शिरकत करने का मौक़ा मिला. इस कार्यक्रम में जाने-माने टीवी पत्रकार रविश कुमार को ‘पहला पीर मुहम्मद मूनिस पत्रकारिता अवार्ड’ दिया गया.

इस मौक़े पर रविश कुमार अपनी खुशी का इज़हार इन शब्दों में किया –‘मैं आज खुद को प्रताप अख़बार सा महसूस कर रहा हूं. ऐसा लग रहा है कि मेरी रूह पर मूनिस साहब लिख रहे हैं और गणेश शंकर विद्यार्थी साहब उस ख़बर के संपादित कर रहे हैं. मुझे लग रहा है कि गांधी इन ख़बरों को पढ़ रहे हैं और चम्पारण आने का मन बना रहे हैं.’

इस मौक़े पर अपने एक संदेश में सभा को संबोधित करते हुए रविश कुमार ने कहा कि –‘मुझे बहुत खुशी है और उससे भी ज़्यादा अफ़सोस कि जिस पत्रकार के नाम पर मुझे यह अवार्ड मिल रहा है, उस पत्रकार को दुनिया ठीक से नहीं जान सकी. जिन लोगों ने उनकी याद को ज़िन्दा किया है, दरअसल वही इस पुरस्कार के असली हक़दार हैं…’

मेरे लिए फ़ख्र की बात यह थी कि इस कार्यक्रम में पीर मुहम्मद मूनिस की पत्रकारिता और रविश कुमार के नाम का ऐलान करने का मौक़ा मुझे ही मिला था. लेकिन एक सवाल मेरे ज़ेहन में अब तक चल रहा है कि क्या आज के ज़माने के मूनिस है रविश कुमार… काफी सोचने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचता हूं कि शायद नहीं…. क्योंकि पीर मुहम्मद ‘मूनिस’ जिस वर्ग और समाज के लिए पत्रकारिता कर रहे थे. किसानों के उपर होने वाले जिन ज़ुल्मों को वो अपने क़लम से दुनिया को रूबरू करा रहे थे, वो काम रविश कुमार अभी तक नहीं कर सके हैं और शायद उनकी संस्था इसे करने की इजाज़त भी नहीं दे. क्योंकि मूनिस को टीआरपी की ज़रूरत नहीं थी, लेकिन आज के दौर के पत्रकारों व संस्थानों को ज़रूर है.

सच तो यह चम्पारण को आज भी मूनिस की ज़रूरत है. अंग्रेज़ निलहे ज़रूर चले गए, लेकिन आज भारतीय मिलहे यहां के किसानों का खून चूस रहे हैं और बोलने वाला कोई नहीं है.

खैर, पत्रकारिता जगत की एक सच्चाई यह भी है कि इंडस्ट्री बन चुके इस संस्थान में आज भी कुछ ख़ास तबक़े से आए लोगों का ही बोलबाला है. दलितों व मुसलमानों की मौजूदगी आज भी देश के न्यूज़ रूमों में न के बराबर है. मुस्लिम पत्रकारों के नाम तो आप ऊंगलियों पर ज़रूर गिन सकते हैं, लेकिन दलित तो रस्म-अदाएगी भर के लिए भी नहीं है.

यह कितना अजीब है कि पत्रकारिता की भूमिका समाज को जागृत करने की थी. इसकी भूमिका जायज़ सवाल उठाने की थी, सरकारों को कटघड़े में खड़ा करने की थी. लेकिन आज वही पत्रकारिता आज अपने चरित्र की वजह से समाज को बांट रही है. सरकारों की गुलाम बन चुकी है और खुद भी कटघड़े में खड़ी है. इसके लिए किसी एक संस्थान या एक पत्रकार या किसी ख़ास संस्थान या पत्रकारों को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, समूची पत्रकार बिरादरी की साझा ज़िम्मेदारी है. बल्कि उससे कहीं अधिक ज़िम्मेदारी पाठकों व दर्शकों की भी है. क्योंकि रविश कुमार के शब्दों में –‘एक कमज़ोर अख़बार, एक कमज़ोर पत्रकार आपको लाचार बनाता चला जाएगा.’

आख़िर में मैं अपने मन की बात कहने की हिम्मत कर रहा हूं. मेरे मन की ये बात चम्पारण के, बिहार के, भारत के मौजूदा हालातों से जुड़ी है. अविश्वास और डर के वो हालात जिनसे आप भी वाक़िफ़ हैं, मैं भी वाक़िफ़ हूं और भारत का हर वो दानिशमंद भी वाक़िफ़ है, जिसके दिल में इस देश के भाईचारे, शांति और तरक़्क़ी के ख़्यालात और फ़िक्र हैं.

गुमराही, भटकाव और वैचारिक अंधकार के इस दौर में हमें मूनिस के विचारों को अपनाने की ज़रूरत है. मूनिस का विचार हैं- शोषण के ख़िलाफ़ बुलंद आवाज़, हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे के लिए हर मुमकिन प्रयास और शासकीय दमन के ख़िलाफ़ लड़ने का जज़्बा. मौजूदा हालात में हमें इन ख़्यालों को न ज़ेहन में पैदा करना है, बल्कि अपने किरदार में भी उतारना है.

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