History

इनके बग़ैर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास अधूरा है…

Md Umar Ashraf for BeyondHeadlines

आज का दिन मेरे लिए ख़ास है. क्योंकि आज के ही दिन एक ऐसे शख़्स ने इस दुनिया में अपनी आंखें खोली, जिसके नाम के बिना शायद भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास अधूरा है. इस शख्स ने ना सिर्फ़ स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया, बल्कि उस समय भारत की विदेश-निति को मज़बूती प्रदान की, जब भारत खुद अंग्रेज़ो का गुलाम था. यक़ीनन ये नाम था —डा. मुख़्तार अहमद अंसारी…

डॉ. मुख़्तार अहमद अंसारी का जन्म 25 दिसम्बर 1880 को उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर ज़िले के युसूफपुर में एक अंसारी परिवार में हुआ था. 1896 में उन्होंने विक्टोरिया हाई स्कूल, ग़ाज़ीपुर में शुरुआती शिक्षा ग्रहण की और बाद में वे हैदराबाद चले गए, जहां पहले से ही उनके दो भाई मौजूद थे.

अंसारी ने मद्रास मेडिकल कालेज में शिक्षा ग्रहण की और निज़ाम स्टेट द्वारा मिले छात्रवृत्ति पर आगे की पढाई के लिए इंग्लैंड चले गए. 1905 में अंसारी ने वहां एमडी और एमएस की उपाधि प्राप्त की और सफल परीक्षाथिर्यों में सबसे शीर्ष पर रहें. जिसके कारण लंदन के लाक अस्पताल में केवल एकमात्र भारतीय होते हुए कुलसचिव के रूप में नियुक्त किये गये.

इस चयन पर कुछ नस्लवादी अंग्रेज़ों ने बहुत हो-हल्ला मचाया. तब मेडिकल काउंसिल ने स्पष्टीकरण दिया कि उनका चयन योग्यता के आधार पर किया गया है. लेकिन, जो विवाद उठाया गया, उससे डॉक्टर मुख्तार अंसारी वहां बहुत लोकप्रिय हो गए.

बाद में लंदन के चारिंग क्रॉस अस्पताल में हाउस सर्जन के रूप में नियुक्त हुए. अस्पताल ने डॉ. अंसारी की सर्जरी के क्षेत्र में उल्लेखनीय सेवाओं को स्वीकार किया. सर्जरी में उनकी कामयाबी का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि चरिंग क्रॉस होस्पिटल में आज भी उनके सम्मान में एक वार्ड का नाम है, जिसे अंसारी रोगी कक्ष के नाम से जाना जाता है.

लंदन में लम्बे समय तक रहने के दौरान डॉ. अंसारी का ध्यान भारतीय राष्ट्रीय घटनाक्रम की तरफ़ तब आकर्षित हुआ, जब वो लंदन आने वाले कुछ हिन्दुस्तानी नेताओं से मिले और उनकी मेहमान-नवाज़ी की.

लंदन में वह मोतीलाल नेहरु, हकीम अजमल खान और जवाहरलाल नेहरू से मिले और उनके आजीवन मित्र बन गए. विदेश में आरामदायक जीवन बिताने के बहुत सारे बढ़िया अवसर मिलने के बावजूद डॉ. मुख्तार अहमद 1910 में हिंदुस्तान लौट आएं. हैदराबाद तथा अपने गृहनगर यूसुफ़पुर में थोड़े समय तक रहने के बाद उन्होंने दिल्ली में फ़तेहपुरी मस्जिद के पास दवाखाना खोला और मोरीगेट के निकट निवास बनाया.

बाद में दरियागंज में रहने के लिए आएं. उन्होंने लाल सुलतान सिंह से जो मकान खरीदा उसका, नाम रखा- दारूस-सलाम. बाद में वह मकान उसी तरह की राष्ट्रीय स्तर की राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बना. ठीक वैसे ही जैसे इलाहाबाद में आनंद भवन था. इस मकान में गाँधी जी सहित कई राष्ट्रवादी ठहर चुके हैं. उन दिनों दिल्ली में चुनिंदे भारतियों के पास ही अपनी कार थी. उनमें एक डॉक्टर अंसारी भी थे.

डॉ. अंसारी हिंदुस्तान की आज़ादी के आन्दोलन के प्रति जागरूक थे और दिल्ली आते ही उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ही के सदस्य बन गए. वे जहां मशहूर डॉक्टर थें. वहीं क़ौम परस्त इंसान भी थे. ग़रीबों का मुफ्त इलाज करने के लिए भी उन्हें जाना जाता था.

उनकी शोहरत का पताका दूर-दूर तक लहराता था. इसी दौरान उनकी मुलाक़ात मौलाना मोहम्मद अली जौहर से हुई और शुरुआती राजनीति में उन पर मौलाना मुहम्मद अली का बहुत प्रभाव था. यही कारण है डॉ. मुख़्तार अहमद अंसारी 1912-13 में हुए बालकन युद्ध में ख़िलाफ़त उस्मानिया के समर्थन में रेड क्रिसेंट के बैनर तले मेडिकल टीम की नुमाईंदगी दिसम्बर 1912 में की थी, जिसमें उनके साथ मौलाना मोहम्मद अली जौहर सहित दीगर कई लोग शामिल थे.

चुंकि मिलिट्री मदद करने पर अंग्रेज़ों ने पाबंदी लगा दी थी, इसलिए डॉ. मुख़्तार अहमद अंसारी ने 25 डॉक्टर की टीम बनाई और मर्द-नर्स की एक टीम बनाई, जिसमें उनकी मदद करने के लिए काफ़ी तादाद में छात्रों ने हिस्सा लिया. इनमें कुछ नौजवान काफ़ी रईस घरानों से ताल्लुक़ रखते थे और इनमें अधिकतर इंगलैड में  पढ़ने वाले छात्र थे. 

इस काम के लिए डॉ. मुख़्तार अहमद अंसारी को “तमग़ा-ए-उस्मानिया” से नवाज़ा गया था, जो उस समय वहां का सबसे बड़ा अवार्ड था. ये अवार्ड फ़ौजी कारनामों के लिए उस्मानी सल्तनत द्वारा दिया जाता था.

ये मिशन 7 माह तक चला और 10 जुलाई 1913 की शाम को दिल्ली स्टेशन पर 30 हज़ार से अधिक लोगों की भीड़ डॉ. अंसारी और उनके साथियों के स्वागत के लिए खड़ी थी. इन लोगों का जगह-जगह बहुत सम्मान हुआ. रेड क्रिसेंट के बैनर तले डॉ. मुख़्तार अहमद अंसारी के ज़रिये किए गए काम के लिए उन्हें ख़िलाफ़त के ज़वाल बाद भी याद किया गया और उनके कारनामों का ज़िक्र ख़ुद मुस्तफ़ा कमाल पाशा ने इक़बाल शैदाई को इंटरव्यु देते वक़्त किया था और उसने हिन्दुस्तान का शुक्र भी अदा किया था.

ध्यान रहे कि हिन्दुस्तान में रेड क्रॉस सोसाईटी 1920 में वजूद में आई, जबकि डॉ. मुख़्तार अहमद अंसारी ने उस्मानिया सल्तनत के समर्थन में 1912 में ही रेड क्रिसेंट सोसाईटी को अपनी सेवाएं देनी शुरी कर दी थी.

बताते चलें कि अभी हाल में ही भारत दौरे पर आए तुर्की के सदर रजब तय्यिब एरदोगान ने जामिया मिल्लिया इस्लामिया के ज़रिए मिले डॉक्टरेट की उपाधि पर शुक्रीया अदा करते हुए डॉ. मुख़्तार अहमद अंसारी के कारनामों को याद किया था.

खैर, ये अलग बात है कि डॉ. मुख़्तार अहमद अंसारी के इस मिशन को मुस्लिम नेताओं ने संगठित किया था, लेकिन इसने हिंदुस्तान के नेताओं के लिये रास्ता खोल दिया ताकि वे अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर अपना पक्ष पेश करें और इसे प्रोत्साहित करें, ताकि संसार के नक्शे में भारत को स्थापित किया जा सके. जिसका पहला असर दिसम्बर 1915 में काबुल में बनी आरज़ी हुकूमत के तौर पर देखा गया, जिसमें राजा महेंद्र प्रताप राष्ट्रपति बने और मौलवी बरकतुल्लाह भोपाली प्रधानमंत्री और इस आरज़ी हुकूमत को तुर्की सरकार ने मान्यता दी.

यही वो समय था जब कांग्रेस और मुस्लिम लीग अपने राजनीतिक लक्ष्यों में एक दूसरे के क़रीब थे और दोनों में से किसी ने भी दोनों मोर्चों पर साथ-साथ अपने आप को व्यक्त करने में किसी कठिनाई का सामना नहीं किया.

इस प्रकार डॉ. अंसारी स्वयं को दोनों क्षेत्रों से स्थापित करने में सफल हो गये और 1916 की लखनऊ संधि में मुख्य भूमिका निभाई, जिसके अन्दर मुस्लिम लीग तथा कांग्रेस समानुपाती प्रतिनिधित्व के विचार पर सहमत हो गए. 

1918 में दिल्ली में होने वाले मुस्लिम लीग के सालाना अधिवेशन में उन्होंने अध्यक्ष पद संभाला. उनके निर्भय तथा बेधड़क अध्यक्षीय भाषण को, जिसमें उन्होंने खिलाफ़त का पक्ष लिया और पूर्ण स्वतंत्रता की मांग पर बिना शर्त सहयोग का वायदा किया, सरकार ने गैर-क़ानूनी माना.

1920 में एक बार फिर से वह ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के नागपुर अधिवेश के अध्यक्ष बने और वहां पर उसी समय मद्रास के विजयराघवाचरियार की अध्यक्षता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा ऑल इंडिया खिलाफ़त कमेटी से मिलें, जिसके अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद थे. तीन संगठनों का संयुक्त अधिवेशन हुआ.

डॉ. अंसारी खिलाफ़त आंदोलन के एक मुखर समर्थक थे और उन्होंने तुर्की के सुलतान को हटाने के मुस्तफा कमाल के निर्णय के खिलाफ़ मुद्दे पर ख़िलाफ़त कमिटी, लीग और कांग्रेस पार्टी को एक साथ लाने और ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा तुर्की की आज़ादी की मान्यता का विरोध करने के लिए काम किया.

असहयोग आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. वहीं आन्दोलन में शामिल छात्रों के शिक्षा का ध्यान रखा. उन्होंने बनारस में राष्ट्रवादी विश्वविद्यालय काशी विद्यापीठ और दिल्ली में जामिया मिल्लिया इस्लामिया स्थापित करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया.

10 फ़रवरी सन 1920 को काशी विद्यापीठ की स्थापना हुई. 29 अक्टूबर 1920 को अलीगढ में जामिया मिल्लिया इस्लामिया की स्थापना हुई. डॉ. मुख़्तार अहमद अंसारी जामिया मिल्लिया इस्लामिया की फाउंडेशन समिति के सदस्य और संस्थापकों में से एक थे. वे आजीवन उसके संरक्षक रहे. डॉ.

अंसारी ने जामिया की स्थापना को बिना शर्त समर्थन दिया. 1925 में जामिया को अलीगढ़ से दिल्ली लाया गया. तिब्बिया कॉलेज के पास बीडनपुरा, क़रोलबाग में जामिया को बसाया गया. हकीम अजमल खान की मृत्यु के बाद वह इसके कुलपति निर्वाचित हुए. उनके विचारों का ही प्रभाव था कि जामिया मिल्लिया इस्लामिया ने इस्लाम और राष्ट्रवाद में समन्वय का रास्ता अपनाया. उन्होंने जामिया के बारे में कहा था कि, जहां हमने एक ओर सच्चे मुसलमान पैदा करने की कोशिश की, वहीं देश सेवा की भावना भी जागृत की.

डॉ. अंसारी मुस्लिम लीग की तरह कांग्रेस में भी ऊंचे पद पर थे. अपने पूरे जीवन पर वह कांग्रेस कार्य-समिति के सदस्य रहे. 1920, 1922, 1926, 1929, 1931 तथा 1932 में वह इसके महासचिव थे तथा सन‌ 1927 ई. में 42वें कांग्रेस अधिवेशन के सभापति हुए, जिसकी बैठक मद्रास में हुई थी. इस अधिवेशन के अवसर पर अध्यक्ष पद से बोलते हुए इन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता पर विशेष बल दिया था. उनके भाषण से प्रेरित होकर पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पारित हुआ. उनके ही प्रयास से कुछ साल बाद स्वराज पार्टी को फिर से जिंदा किया गया.

1928 ई. में लखनऊ में होने वाले सर्वदलीय सम्मेलन का इन्होंने सभापतित्व किया था और नेहरू रिपोर्ट का समर्थन किया. डॉ. अंसारी भारतीय मुस्लिम राष्ट्रवादियों की एक नई पीढ़ी में से एक थे, जिसमें मौलाना आज़ाद, मुहम्मद अली जिन्ना जैसे लोग शामिल थे. वे आम भारतीय मुसलमानों के मुद्दों के बारे में बहुत भावुक थे, लेकिन जिन्ना के विपरीत अलग मतदाताओं के सख्ती से खिलाफ़ थे. उन्होंने जिन्ना के इस दृष्टिकोण का विरोध किया था कि केवल मुस्लिम लीग ही भारत के मुस्लिम समुदायों की प्रतिनिधि हो सकती है.

डॉक्टर अंसारी के प्रयास से ही 1934 में डॉ. राजेंद्र प्रसाद और जिन्ना में बातचीत हुई. लेकिन वो प्रयास विफल रहा. इससे डॉक्टर अंसारी को धक्का लगा. उनकी सेहत गिर रही थी. इस कारण भी उन्होंने कांग्रेस के सभी पदों से इस्तीफ़ा दे दिया. उन्हें फुरसत के कुछ पल मिले. एक किताब लिखी. दूसरी तरफ़ जामिया मिल्लिया इस्लामिया पर वे ध्यान देने लगे.

उन्हीं का फैसला था कि ओखला में जामिया को बसाया जाए. वर्तमान जामिया की परिकल्पना उन्होंने ही की थी. ज़मीनें भी उन्होंने ही ख़रीदीं. इस वजह से साठ हज़ार का कर्ज़ हो गया. उस ज़माने के हिसाब से यह क़र्ज़ बहुत ज़्यादा था. अब्दुल मजीद ख्वाजा और डॉ. अंसारी ने पूरे भारत का दौरा कर चंदा इकठ्ठा किया और आखिर 1 मार्च 1935 को ओखला में जामिया की बुनियाद रखी गई. बुनियाद का पत्थर सबसे कम उम्र के विद्यार्थी अब्दुल अज़ीज़ ने रखवाया गया. डॉ. मुख़्तार जामिया मिल्लिया इस्लामिया के अमीर-ए-जामिया (कुलाधिपति) रहे और डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन को कुलपति बनाया.

रामपुर के नवाब के निमंत्रण पर मसूरी गये. लौटते समय ट्रेन में 10 मई, 1936 की रात को डॉ. अंसारी को दिल का दौरा पड़ा और उनका दिल रेल के डिब्बे में आखिरी बार धड़का. उनके शरीर को उनके प्रिय जामिया मिल्लिया इस्लामिया की गोद में अन्ततः लेटा दिया गया. उनकी क़ब्र जामिया मिलिया इस्लामिया में है. उनके निधन पर महात्मा गांधी ने कहा —‘शायद ही किसी मृत्यु ने इतना विचलित और उदास किया हो जितना डॉ. मुख़्तार की मौत ने.’

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