आशुतोष कुमार सिंह
देश में फैले दवाइयों के मकड़जाल को जितना समझने का प्रयास कर रहा हूं, उतना ही उलझते जा रहा हूं. इसकी गहराइयों में जितना डूब रहा हूं, कुछ देर बाद मालुम चल रहा है कि अभी तो मैं ऊपर ही ऊपर तैर रहा हूं. खैर, जब ओखल में सिर डाल ही दिया है तो मूसल से काहे का डर….
ज़रा गौर से सिपला कंपनी की इस रेट लिस्ट को पढिए… तीन दवाइयों को हाइलाइट किया गया है. उस पर ज़रा और गौर फ़रमाइए… एम-सिप 500 मिली. के एक इंजेक्शन का एम.आर.पी 72 रूपये बताया गया है और इसी का स्टॉकिस्ट प्राइस 7.42 रुपये है. सेटसिप टैबलेट प्रति 10 टैबलेट का एम.आर.पी 33.65 है जबकि स्टॉकिस्ट प्राइस 1.88 रूपये है. इसी तरह सेफटाज इंजेक्शन का मूल्य देखिए… एम.आर.पी 355 रूपये और स्टॉकिस्ट प्राइस 66 रूपये है. सरकारी नियम यह कहता है कि कंपनियां लागत मूल्य से अधिकतम 100 प्रतिशत तक एम.आर.पी रख सकती हैं. इस नियम का पालन कितना हो रहा है.आप खुद देख सकते हैं.
पिछले डेढ़ महीने से चल रहे ‘कंट्रोल एम.एम.आर.पी’ अभियान का कुछ सकारात्मक असर दिखने तो शुरू हुए हैं, लेकिन यह ऊंट के मुंह में जीरा का फोरन भी नहीं है. सरकार जल्द ही नेशनल फार्मास्यूटिकल्स पॉलिसी 2011 लाने वाली है. इसमें भी गरीबों के हित की रक्षा होता नज़र नहीं आ रहा है.
स्पष्ट रहे कि देश में दवाइयों के मूल्य को कंट्रोल करने के लिए सरकार ने नेशनल फार्मास्यूटिकल्स प्राइसिंग अथारिटी का गठन किया है. जब से यह गठित हुई है तब से अभी तक नई फार्मा नीति देश में नहीं बन पायी है. महज़ 74 दवाइयों को नेशनल नेसेसिटी मेडिसिन लिस्ट में डालकर सरकार अपनी जवाबदेही की इतिश्री समझ रही है.
मैं सरकार से जानना चाहता हूं कि देश में जब सरकारी अस्पताल है, सरकारी डाक्टर हैं तो फिर सरकारी केमिस्ट क्यों नहीं है? देश की नागरिकों की जान को कोई लोक-कल्याणकारी सरकार प्राइवेट सेक्टर के भरोसे कैसे छोड़ सकती है? पिछले डेढ़ महीने से दवा कंपनियों की लूट की खबर प्रकाशित एवं प्रसारित हो रही है अभी तक सरकार इन कंपनियों के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई क्यों नहीं की है?