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Reading: एक सच्चे आंदोलनकारी की दर्द भरी दास्तां
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BeyondHeadlines > Exclusive > एक सच्चे आंदोलनकारी की दर्द भरी दास्तां
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एक सच्चे आंदोलनकारी की दर्द भरी दास्तां

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published August 29, 2012 3 Views
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10 Min Read
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Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines

कहावत है कि “भूखे पेट क्रांति नहीं होती… और जो भूखे पेट क्रांति करता है, वो ‘त्यागी’ कहलाता है.” बिहार के पश्चिम चम्पारण ज़िला के ठाकुर प्रसाद त्यागी इसी त्याग की मिसाल हैं.

त्यागी बाबा अपने जिन्दगी के 60 से अधिक वसंत देख चुके हैं, लेकिन आज भी उनके दिलों में वही जोश व जज़्बा है, जो जोश व जज़्बा जेपी आंदोलन के समय थी. जेपी आंदोलन के सिपाही रहे त्यागी बाबा के लिए जेपी आज भी आदर्श हैं. आज भी इनका सारा दिन आंदोलन व संघर्ष में निकल जाता है. भू-माफिया व बिहार के प्रसिद्ध अधिकारियों व गुंडो की धमकियां भी इनके मिशन को नहीं रोक पाईं. इन दिनों में त्यागी बाबा बेतिया मेडिकल कॉलेज और केन्द्रीय विद्यालय की ज़मीन के लिए संघर्षरत हैं. त्यागी बाबा मानते हैं कि चंपारण की मिट्टी में क्रांति की तासीर है. चाहे अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ़ बापू का सत्याग्रह हो या लोकतंत्र की रक्षा के लिए जेपी की संपूर्ण क्रांति. चंपारण की धरती ने ही उसे ऊर्जा प्रदान की. ऐसे में कैसे किसी की धमकी से मैं डर सकता हूं. उनका मानना है कि भ्रष्ट सरकारों से अपने अधिकार पाने के लिए अब भी ‘जंग’ व ‘त्याग’ की ज़रूरत है.

बैजनाथ प्रसाद के इस पुत्र का सारा जीवन जन-कल्याण के लिए आंदोलन व संघर्ष को ही समर्पित रहा. संघर्ष करते-करते जवानी कब हाथों से निकल गई, उन्हें पता ही नहीं चला. 1951 में सोशलिस्ट पार्टी के छात्र विंग ‘समाजवादी युवजन सभा’ से जुड़े. काफी दिनों तक सचिव भी रहे. उसके बाद सोशलिस्ट पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता बन गएं. आरंभ से ही वो आंदोलनकारी मूड के रहे. 1957 में जब बेतिया के लिबर्टी सिनेमा के मालिकों ने टिकट का दाम बढ़ा दिया तो त्यागी बाबा ने अहिंसक आंदोलन किया. सैकड़ों लोगों को लेकर सिनेमा घर के सामने ही सड़क पर लेट गए. सिनेमा घर के गुंडों ने इनके पूरे शरीर पर पान खाकर थूकते रहे, पर त्यागी जी पर इसका कोई असर नहीं हुआ, अंततः सिनेमा घर की टिकट की बढ़ी कीमतें वापस ले ली गई.

नागरिकों के ‘स्वास्थ्य अधिकार’ दिलाने के लिए सबसे पहले त्यागी जी ने 1962 में आंदोलन छेड़ा. ये आंदोलन बेतिया के एम.जे.के. अस्पताल में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ था. 5 साल के इनके आंदोलन से जब व्यवस्था नहीं सुधरी तो ठाकुर त्यागी 1967 में अपने सहयोगियों के साथ अनशन पर बैठ गए. (उस समय अनशन का अपना एक अलग महत्व था.) आख़िरकार इस अनशन से काफी हद तक व्यवस्था में बदलाव आया.

1970 में उन्होंने कर्पूरी ठाकूर एवं रामानंद तिवारी के नेतृत्व में भूमि आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई. 1972-73 में बेतिया के छोटा रमना की भूमि को उन्होंने यहां के दबंगों से मुक्त कराकर उसे शहीद पार्क बनवाने की अपील की. उस समय के एसडीओ जी.एस. कंग ने इनकी मदद की और छोटा रमना की ज़मीन को दबंगों से मुक्त कराकर शहीद पार्क के चहार-दिवारी का निर्माण करवा दिया.

16 मार्च 1974 को जेपी आंदोलन बेतिया में शुरू हुआ. जेपी के इस सम्पूर्ण क्रांति में इन्होंने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. इस दौरान अपने कई साथियों के साथ बेतिया, मुज़फ्फरपूर व भागलपूर के जेलों में बंद रहें. बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतिश कुमार भी इनके साथ इनके ही बैरक में बंद रहे थे. 22 मई 1974 को जेल से छूटने के बाद भी उन्होंने ज़िले में जेपी आंदोलन को जारी रखा. इसके लिए भी उन्हें डेढ़ माह डीआईआर एवं 9 महीने मीसा में बंद रहना पड़ा.

1980 में ‘महारानी जानकी कुंअर मेडिकल कॉलेज निर्माण संघर्ष समिति’ का गठन किया. तब से लेकर आज तक उनका यह संघर्ष जारी है. इस बीच सैकड़ों बार धरना-प्रदर्शन किए तथा मेडिकल  कॉलेज की भूमि को अतिक्रमण से मुक्त कराने के लिए मुक़दमा लड़ते रहे. कॉलेज की स्थापना के लिए वर्ष 2004 में हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की, जिसमें सरकार व बेतिया राज को पार्टी बनाया. वो बताते हैं कि बेतिया मेडिकल कॉलेज का सपना सिर्फ उनका ही नहीं, बल्कि चंद्रशेखर व जार्ज फर्नाडिस भी चाहते थे कि बेतिया में मेडिकल कॉलेज खुले. वो उन दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि 1970 में जब वो कर्पूरी ठाकूर एवं रामानंद तिवारी के नेतृत्व में भूमि आंदोलन कर रहे थे, तब शिवानंद तिवारी के पिता रामानंद तिवारी मझौलिया मिल के लालगढ़ फार्म पर गंभीर रूप से घायल हो गए. उस समय बेतिया अस्पताल में दाखिल कराया गया. सुविधा न होने की वजह से उन्हें पटना रेफर कर दिया गया. जिसकी वजह से पूरा आंदोलन प्रभावित हुआ था. वो बताते हैं कि कितनी अजीब बात है कि यहां मरीजों को दिल्ली-पटना रेफर किया जाता है. बेचारे मरीज़ रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं. जबकि बेतिया मेडिकल कॉलेज के लिए पहले से ही पर्याप्त धन व ज़मीन मौजूद है. खुद बेतिया रानी अपने राज में बेतिया में मेडिकल कॉलेज खुलवाना चाहती थी, बल्कि इसके लिए उन्होंने 1947 में ही ज़मीन और 30 लाख रूपये का अनुदान  भी दिया था, जो सरकारी खज़ाने में जमा है.

बहरहाल, त्यागी बाबा के अभियान को सफलता भी मिलने लगी. 2009 में तत्कालीन ज़िला अधिकारी दिलीप कुमार ने बेतिया मेडिकल कॉलेज की दो तरफ से चहार-दिवारी करवाई. त्यागी बाबा के आंदोलन का ही असर है कि सरकार व प्रशासन ने यहां पर मेडिकल कॉलेज खोलने का प्रस्ताव दिया. चार बार एमसीआई की टीम भी आ चुकी है. कॉलेज को आर्यभट्ट विश्वविद्यालय, पटना ने मान्यता भी दे दी है. अब सिर्फ एमसीआई की हरी झंडी का इंतज़ार है. जब BeyondHeadlines ने पूछा कि समस्या कहां है तो वो बताते हैं कि दरअसल समस्या घर में ही है, क्योंकि यहां के विधायक व सांसद व यहां के डॉक्टर ही नहीं चाहते हैं कि बेतिया में मेडिकल कॉलेज खुले, क्योंकि मेडिकल कॉलेज के खुल जाने से सांसद जो खुद डॉक्टर हैं और यहां के डॉक्टरों की दुकानदारी  बंद हो जाएगी. हालांकि वो बताते हैं कि बिहार के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री चंद्रमोहन राय व पूर्णमासी राम (सांसद, गोपालगंज) उनके साथ हैं. और सबसे ज़्यादा खुशी उन्हें इस बात की है कि सम्पूर्ण चम्पारण की जनता उनके साथ है.

यहीं नहीं, बिहार में जेपी आंदोलनकारियों को पेंशन के लिए भी संघर्ष किया. ‘बिहार प्रदेश-1974 जेपी आंदोलनकारी संयोजन समिति, पटना’ के राज्य संयोजक भी हैं. नीतिश कुमार के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद 2006 में जेपी आंदोलन-कारियों की एक बैठक नगर के महाराजा पुस्तकालय में हुई. पर नीतिश कुमार पटना अपने दरबार में पहुंचते ही मीटिंग में हुए तमाम बातों को भूल गए तो त्यागी बाबा ने 11 अक्टूबर 2006 को जेपी जयंती के अवसर पर पटना में प्रदर्शन किया. आखिरकार मेहनत रंग लाई और चार सालों के बाद पेंशन चालू कर दी गई.

मज़ेदार बात यह है कि आंदोलन करके पेंशन चालू कराने वाले त्यागी बाबा खुद पेंशन से महरूम हैं. जब वो इस संबंध में बिहार के गृह विभाग में गए तो उनसे रिश्वत की मांग की गई. उन्होंने रिश्वत देने के बजाए संघर्ष करना ज़्यादा मुनासिब समझा. आरटीआई के माध्यम से सारे सरकारी कागज़ात जमा किए, जो ये बताते हैं कि उनको 20 जून 1976 को Maintenance of Internal Security Act-1971 के तहत डीएम के आदेश से बेतिया जेल में नज़रबंद किया गया था. 3 जुलाई 1976 को बिहार के गृह विभाग ने भी इसकी पुष्टि की थी. इसके अलावा आरटीआई से इनके पास वो सारे सबूत मौजूद हैं जो ये साबित करते हैं कि वो पेंशन के योग्य हैं. लेकिन गृह विभाग के अधिकारियों ने इन्हें अयोग्य क़रार दे दिया था. वो इस संबंध में पटना हाई कोर्ट में रिट पेटिशन (CWJC-7556/2012) भी 16 अप्रैल, 2012 को दायर की है. पर अब तक सुनवाई की कोई तारीख उन्हें नहीं मिली है. उनका मानना है कि अपने हक़ के लिए चाहे लाखों खर्च कर देंगे, लेकिन रिश्वत नहीं देंगे, और आगे के लिए एक ऐसा सिस्टम बना कर जाएंगे कि किसी को अपने पेंशन के लिए रिश्वत न देनी पड़े.

TAGGED:Afroz Alam SahilBettiah Medical CollegeThakur Prasad Tyagiठाकुर प्रसाद त्यागी
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