Abhishek Upadhayay for BeyondHeadlines
जै़बुन्निसा अनवर काज़ी की उम्र 70 साल की है. मुंबई बम धमाकों के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उनकी सजा भी पांच साल तय कर दी है. ज़ैबुन्निसा का कसूर इतना था कि संजय दत्त तक जो एके-56 पहुंचाए गए, वह उनकी टूटी दीवारों वाली खोली में कुछ समय के लिए रखे गए थे. यही हथियार फिर संजय दत्त को दे दिए गए. दत्त को हैंड ग्रेनेड समेत अन्य हथियार भी दिए गए थे. अबू सलेम और अनीस इब्राहिम से भी मिले थे दत्त साहब. पर ज़ैबुन्निसा न तो अबू सलेम को जानती थी, न अनीस को और न ही दाऊद को. उसने तो एके-56 को नष्ट करने का ठेका भी नहीं दिया था. पर सजा उसे बराबर ही हुई.
अब ज़ैबुन्निसा कोई देशभक्तों के परिवार से तो नहीं आती है, न ! उसकी सात पीढ़ियों में भी क्या कोई “सेक्युलर” पैदा हुआ था? इस बात की गवाही या फिर सबूत कौन दे? वह तो इतनी कम ज़र्फ ठहरी कि देश की दशा और दिशा तय करने वाले दिग्विजय सिंह उसे जानते तक नहीं हैं. ज़ैबुन्निसा का नामुराद बाप तो सारी उम्र अपने खानदान के लिए रोटियों का बंदोबस्त करने में ही गुज़र गया. वैसे भी गरीबी रेखा के नीचे वाले देश के लिए कब सोचते हैं? ये ठेका तो 20 साल तक करोड़ों की कमाई का दर्द सहने वाले, सुबह शाम विह्स्की के नशे में “SUFFER” करने वाले… और डोले शोले बनाकर मनमाफिक अप्सराओं के साथ “शब्द शब्द” निशब्द होने वाले किसी त्यागी और सन्यासी महापुरुष के पास ही हो सकता है.
संजय दत्त ने 20 साल तक क्या दर्द सहा है? वाकई बड़ी सहानुभूति होती है! ईश्वर माफ करें अगर व्यंग की नीयत से कुछ लिख रहा हूं. ज़ैबुन्निसा- तुम्हारे होने या न होने से इस देश को कोई फर्क नहीं पड़ता है. दिग्विजय सिंह तो जानते तक नहीं हैं. काटजू साहब के पास संविधान की जो मोटी किताब मौजूद है, तुम्हारा नाम तो उसकी प्रस्तावना से ही खारिज किया जा चुका है… और ये मायानगरी की नामचीन हस्तियां! इनके घर में काम करने वाली बाई भी हर रोज़ ऐसे लकदक कपड़ों में निकलती है जो तुमने बचपन से अब तक कि किसी ईद में भी नहीं पहने होंगे. तो 70 साल की ज़ैबुन्निसा काज़ी- तुम जब तक भी जिंदा रहो, अपने खानदान के नाम पर और अपनी वल्दियत के नाम पर, इस देश से माफी मांगती रहो. माफी मांगो अपने उस बेगैरत बाप के नाम पर जो तुम्हें एक सेक्युलर और देशभक्त खानदान का वारिस बनाए बगैर ही इस दुनिया से कूच कर गया. माफी मांगो अपनी उस मां के नाम पर जो “मदर इंडिया” जैसे महान शब्द में न तो “मदर” का अर्थ जानती थी और न ही “इंडिया” का. और आखिर में उम्र को अलविदा करने से पहले अपनी इस नादानी के नाम पर तौबा करती जाओ कि एक भरी पूरी जिंदगी जी चुकने के बावजूद तुम इतना भी नहीं समझ सकीं कि तुम जैसा गरीब कभी देशभक्त नहीं होता है… कभी सेक्यूलर नहीं होता है… और कभी रिहा भी नहीं होता है… तब भी जब वह जेल से बाहर होता है. ज़ैबुन्निसा- यही तुम्हारी नियति है…
