Edit/Op-Ed

मुज़फ़्फ़रनगर के गुनाहगार…

Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines

मुज़फ़्फ़रनगर के रहनुमा भी अब सरकार के हाथों बिक गए हैं. कल तक सरकार को कटघरे में खड़ा करने और दंगा पीड़ितों के ज़ख्मों पर मरहम लगाने का दावा करने वालों ने एक झटके में अपना ईमान बदल लिया है.

मुस्लिम नेताओं ने मुज़फ़्फ़रनगर के नाम पर सड़क से लेकर संसद तक हंगामे की खानापूरी कर ली, उन तक़दीर के मारे दंगा पीड़ितों के हालात पर नज़र डालने भी गए. कुछ सियासतदान जो मीडिया के आगे ऐलान करके वाह-वाही लूटने के खातिर उन कैम्पों में पहुंचे भी, वो मीडिया के कैमरों के फ्लैश बंद होने के पहले ही वहां से घिसक लिए.

दिल्ली से लेकर लखनऊ तक जमकर बयानबाज़ी होती रही, मगर किसी भी मुस्लिम नेता ने इन कैम्पों में एक घंटा भी गुज़ारना मुनासिब नहीं समझा. अब हालत यह है कि एक-एक करके कैम्प और ज़िन्दगानियां दोनों ही उजाड़ी जा रही हैं और मुस्लिम नेताओं के घरों में नए साल का जश्न पैर पसार रहा है. उत्तर प्रदेश के तो सारे मुस्लिम नेताओं के ज़बान को लकवा मार गया है. कोई सपा सरकार के इस ज़ुल्म पर मुंह खोलने तक को तैयार नहीं है.

सच तो यह है कि मुज़फ्फ़रनगर के पूरे मसले पर नेताओं ने सिर्फ अपनी राजनीति की है. किसी को भी इस मसले के हल से कोई मतलब नहीं है. यह कितनी हैरान कर देने वाली बात है कि जेल से निकलने के फौरन बाद लालू प्रसाद यादव को मुज़फ्फरनगर की याद आई ताकि उनसे दूर हो चुके मुस्लिम वोटर्स को फिर से अपने साथ किया जा सके.

लालू लोई कैम्प भी पहुंचे, जहां उनके पहुंचने से पहले ही 100 परिवारों से अधिक के तंबुओं पर सरकारी बुलडोजर चल चुका था. और लालू के जाने के साथ ही पूरा कैम्प ही साफ कर दिया गया. लेकिन अब लालू को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. उन्हें जितना मीडिया कवरेज चाहिए था, मुलायम की मेहरबानी से उससे कहीं अधिक कवरेज मिल गई. यही नहीं, इसी लालू प्रसाद यादव के साथ मुसलमानों के प्रसिद्ध राज्यसभा सांसद मोहम्मद अदीब भी थे. लेकिन सरकारी ज़ुल्म पर उनका मुंह भी बंद ही रहा. लालू के साथ-साथ यह जनाब भी सिर्फ मदद के आश्वासन देकर चलते बने. और इनके जाते के साथ ही दंगा पीड़ितों का वो टूटा-फूटा तंबू भी हमेशा के लिए खत्म कर दिया गया. खैर छोड़िए नेताओं की बात… इनका तो काम ही हर मसले पर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकना होता है.

आईए अब नज़र मुसलमानों के सबसे हमदर्द यानी मिल्ली रहनुमाओं पर डालते हैं… मुसलमानों के नाम पर धंधा करने वाली इन मिल्ली रहनुमाओं की स्वयंसेवी व धार्मिक संस्थाओं ने मुज़फ्फरनगर के नाम पर जमकर इमदाद बटोरी. जमिअत उलेमा हिन्द की दावे पर यक़ीन किया जाए (जिसे उन्होंने विज्ञापन के तौर पर उर्दू अख़बारों में प्रकाशित कराया है) तो अकेले तकरीबन 42 हज़ार कम्बल व रज़ाई महमूद मदनी ने बांट दिए हैं. दो करोड़ के आस-पास इन पीड़ितों को राशन बांट दिया. (अभी अरशद मदनी के दावे व विज्ञापन अलग हैं. और जब अरशद मदनी वाली जमिअत उर्दू अखबारों में विज्ञापन छपवाएगी तो फिर जमाअत-ए-इस्लामी हिन्द कहां पीछे रहने वाली. लाखों कम्बल व रज़ाई बांटने का दावा तो यह दोनों मिलकर कर ही देंगे. राशन के नाम पर कितने का दावा करेंगे, यह उपर वाला ही बेहतर जानता है.) मगर उसके बाद भी कैम्पों में बच्चे ठंड और कुपोषण से मरते रहे… कंपकपाती रातों में ठिठूरते रहे… कांपते रहे… और अब उनके सर पर से प्लास्टीक का अस्थायी छत भी छीन लिया गया. लेकिन इससे इन्हें कहां फर्क पड़ने वाला है. इनके लिए समलैंगिकता पर बहस करना अधिक अहम है.

यह कितना अजीब है कि पहले जमिअत जैसी संस्था अखिलेश सरकार को बर्खास्त करने की मांग करती है. लेकिन जैसे ही अखिलेश सरकार उन्हें राहत शिविरों में काम करने के लिए पैसे दे देती है, सारा विरोध खत्म हो जाता है. फिर शुरू होती है सरकार स्पोंसर्ड असली दुकानदारी… शायद यह दुकानदारी चलाने का ही असर है कि उन्हें भी मुलायम सिंह की तरह कैम्पों में रहने वाले लोग राजनीतिक नज़र आने लगते हैं. मदरसों के कैम्पस से इन बेसहारों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है. जैसे ही कैम्प का कोई आदमी सरकार के खिलाफ कुछ भी बोलता है, उसे फौरन चुप करा दिया जाता है.

ऐसा हम सिर्फ जमिअत के बारे में ही नहीं कह रहे हैं. यही सोच जमाअत-ए-इस्लामी की भी रही. वो भी मानते हैं कि कैम्पों में रहने वाले लोग फर्जी हैं और ज़बरदस्ती रह रहे हैं अखिलेश सरकार को बदनाम करने के लिए… यही वजह है कि दिल में इंसानियत का जज़्बा रखने वाले हर इन्सान को मुज़फ्फरनगर के कैम्पों से ज़बरदस्ती निकाले जाने पर सदमा है सिवाए कौम के इन ठेकेदारों के…

बिके हुए यह उलेमा अब तक यही बयान देते नज़र आ रहे हैं कि पीड़ितों को अपने घर लौट जाना चाहिए. लेकिन इनसे जाकर कोई पूछे कि बलात्कार जैसी घटनाओं के बाद मुसलमान कैसे गावं लौट जाए? जब उनकी लड़कियां राहत शिविरों में जाट दंगाईयों की शिकार हो जाती हैं, तो गांव में क्या होगा?  मुज़फ्फरनगर के जोगिया खेड़ा दंगा पीडि़त कैंप में दो लड़कियों से बलात्कार की घटना और पिछले दिनों मोहम्मदपुर रायसिन में हुये तेहरे हत्याकांड ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि प्रदेश की सपा सरकार के संरक्षण में जाट दंगाईयों के हौसले बुलंद हैं.

ज़रा सोचिए! जिस क्षेत्र में सेना लगी हो, वहां मां बहनों को सरकार सुरक्षा नहीं दे पा रही हो, तो गांवों में सरकार उन्हें क्या सुरक्षा दे पाएगी? जहां अभी कुछ ही दिनों पहले उन्होंने अपनों को मारे जाते, आबरु लुटते, घरों में आग लगाते और किसी तरह से गन्ने के जंगलों में छुपकर खुद को बचाया हो और वह भी तब जब सरकार खुद दंगाईयों के पक्ष में काम कर रही हो ऐसे हालात में वे कैसे गांव जाएं? सच तो यह सरकार इन दंगा पीड़ितों की रक्षा के सवाल पर कभी भी ईमानदार नहीं रही. अगर सरकार मुसलमानों को सुरक्षा देने के सवाल पर ईमानदार होती तो उन्हें अपने वादे के मुताबिक लोहिया आवास योजना के तहत आवास उपलब्ध करा देती.

कहानी यहीं खत्म नहीं होती… मुसलमानों के मुद्दे उछालने का दंभ भरने वाली उर्दू मीडिया को भी इस दौरान लकवा मारे रहा. सिवाए जज़्बाती लेखों व मिल्ली संस्थानों के रहनुमाओं की तारीफ़ के सिवा किसी भी उर्दू मीडिया ने ऐसी कोई भी ख़बर या पहल नहीं की, जो उन मज़लूम, दर्द के मारे बदनसीबों के खातिर उम्मीद या राहत का पैग़ाम लेकर आती. वो मेनस्ट्रीम मीडिया (जिस पर अल्पसंख्यकों की उपेक्षा का आरोप लगता रहा है) ने भी इस मसले पर खुलकर दंगा पीड़ितों का साथ दिया, मगर हमारी उर्दू मीडिया फिर भी गर्म लिहाफ में मुंह ढ़ापे सोया रहा. और सोये भी क्यों न? आखिर इन ज़्यादातर अख़बारों के मालिक तो इन्हीं मिल्ली संस्थाओं के रहनुमा हैं, या फिर इन्हीं के दम-खम व पैसों से यह उर्दू मीडिया चल पा रही है.

मुज़फ्फरनगर एक आईना है, जो अल्पसंख्यकों के हितों के राजनित करने वाले नेताओं और संस्थाओं को अपना चेहरा पहचानने पर मजबूर करता है. यह वक़्त जागने का है और ऐसे मौक़ा-परस्त चेहरों को पहचानने का है. और साथ में यह भी समझने का है कि आखिर मुसलमानों की तकलीफें, उनकी गरीबी और उनके पिछड़ेपन की असली वजह क्या है?

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