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संघ का सियासी ड्रामा…

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published March 18, 2014 2 Views
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8 Min Read
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Anil Yadav for BeyondHeadlines

मौलाना मौदूदी का पाकिस्तान को एक इस्लामी राष्ट्र के रूप में देखने का जो सपना था, उसमें पारिवारिक सम्बन्धों, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक मसलों, नागरिक अधिकारों, न्यायपालिका इत्यादि को इस्लामी शरियत के अनुसार डील किए जाने की व्यवस्था थी.

उन्होंने नागरिकों की दो श्रेणी बनायी थी. एक मुस्लिम और दूसरे जिम्मी. उन्होंने अपनी किताब ’मीनिंग ऑफ कुरान’ में लिखा है कि ‘राष्ट्र गैर-मुस्लिम को तभी सुरक्षा दे सकता है, जब वे दोयम दर्जे की जिंदगी गुजारने के लिए तैयार हो जायें, और जजिया तथा शरियत के कानून को माने.’

इस संदर्भ को अगर आगे बढ़ाया जाए तो हम पाते हैं कि आज हिन्दुस्तान और पाकिस्तान मौदूदी और गोलवलकर के सपनों का मुल्क बनने की राह पर चल पड़े हैं. अभी हाल ही में नरेन्द्र मोदी ने पूर्वोत्तर की एक रैली में कहा था कि पूरी दुनिया में हिन्दुओं पर जहां कहीं अत्याचार होगा, वह भारत ही आयेंगे, क्योंकि उनके लिए भारत अब सुरक्षित होगा.

वास्तव में मोदी जिस राजनीति से आते हैं, उसका उद्देश्य ही भारत को हिन्दू राष्ट्र में बदलने का है, और मोदी जो आज-कल बोलते हैं, उसमें संघ परिवार का हस्तक्षेप होता है. 19 जनवरी 2014 को सोशल साइटों पर ‘माई आइडिया ऑफ इण्डिया’ के कार्यक्रम के तहत सभी नये स्वयंसेवकों से यह लिखने के लिए कहा गया कि प्रधानमंत्री के तौर पर वह मोदी से क्या चाहते हैं? इन सारे नोट्स को मोदी के भाषणों में शामिल किया जाता है.

संघ के लोग नेपाल के धर्मनिरपेक्ष घोषित हो जाने के बाद अब भारत को ही ‘हिन्दू राष्ट्र’ के रूप में देखना पसंद करते हैं. आज मोदी भले मीडिया के माध्यम से यह प्रचारित करने में लगे हैं कि उनकी रैली-सभाओं के लिए मुसलमान अपनी ज़मीन दे रहा है, परन्तु यदि हम इतिहास की गर्त में डुबकी लगाएं तो हकीक़त कुछ दूसरी ही है.

इतिहास के पास कई ऐसे गवाह हैं, जिनका सामना संघ परिवार या भाजपा के लोग नहीं कर सकते हैं. इसका एक नमूना हम ‘आर्गनाइज़र’ में प्रकाशित हुए लेख ‘लेट मुहम्मद गो टू द माउण्टेन’ में देख सकते है- मुसलमान महसूस करते हैं कि स्वतन्त्र भारत में उनके साथ अच्छा सलूक नहीं किया गया, लेकिन हिन्दू गहरे तौर पर महसूस करता है कि मुसलमानों ने पिछले 1000 वर्षों से उनके साथ बदसलूकी की है. मेरी इच्छा है कि भारतीय मुस्लिम प्रतीकात्मक क़दम उठाकर ‘सॉरी’ कहें. इससे देश में एक महान मनोवैज्ञानिक परिवर्तन आएगा (3 जून, 1979, पृष्ठ-7)

यह सारी चीजें सिर्फ इसलिए कि एक समुदाय को अहसास करवाया जाए कि वह दोयम दर्जे का नागरिक हैं.

संघ के लोगों की यह धारणा रही है कि देश के मुसलमानों की वफादारी देश के सीमा-पार के मुल्कों से है. आरएसएस हमेशा आग्रहपूर्वक यह विचार प्रकट करता रहा है कि पाकिस्तान की स्थापना मुसलमानों के देश के रूप में हुई. अतः उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिए.

खुद गोलवलकर ने ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में लिखा है कि देश में ‘अनेक छोटे-छोटे पाकिस्तान’ हैं. बड़े मार्के की बात है कि ‘वी आर आवर नेशनहुड डिफाइन’ जिसे संघ के आन्दोलन का वैचारिक घोषणा-पत्र समझा जाता है, अपने शीर्षक से ही घोषित करता है कि इसके अन्दर जिस राष्ट्रीयता की बात की गयी है वह ‘हम’ और ‘वे’ में अंतर करती है.

जाहिर है कि वह ‘हम’ में भारत में रहने वाले सभी लोग नहीं हैं. कुछ ‘वे’ भी हैं जो गैर हिन्दू है. ध्यान देने की बात है कि संघ के लोग भौगोलिक राष्ट्रवाद नहीं, बल्कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की वकालत करते हैं. तभी तो मोदी सांस्कृतिक रूप से दूसरे देशों में रहने वाले हिन्दुओं की सुरक्षा की गारण्टी ले रहे हैं, जबकि ‘भौगोलिक राष्ट्रवाद’ के अन्तर्गत ‘सुरक्षा की गारण्टी’ मुलसमानों को नहीं दे रहे हैं. गोलवलकर और उनके साथी मुसलमानों को कोई अधिकार नहीं देना चाहते हैं, यही कारण है कि भारत पाक संघर्ष में उच्चतम देश भक्ति और पराक्रम दिखाने पर जब वीर अब्दुल हमीद और कीलर बंधु को सम्मानित किया गया तो गोलवलकर ने आपत्ति की थी. (स्वतन्त्र भारत-दिसम्बर 24, 1965)

हालांकि कभी-कभी संघ के ही इशारे पर भाजपा के नेता धर्मनिरपेक्षता का ड्रामा भी करती है. यह संघ का पुराना ट्रेंड रहा है. एक दौर में अटल बिहारी इसके सटीक उदाहरण रहे हैं. अटल बिहारी बाजपेयी बतौर विदेश मंत्री व प्रधानमंत्री नेहरू की गुटनिरपेक्ष विदेश नीति पर चले. अरब के देशों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किया. पाकिस्तान की यात्रा पर गये और संघ परिवार ‘उर्दू’ जिसे एक खास तबके की भाषा समझता है में अच्छी-खासी शायरी भी की.

यह सारी चीजे संघ परिवार के वैचारिक रूप से प्रतिकूल थी, परन्तु यह भी संघ परिवार के ही रणनीति का एक प्रमुख हिस्सा रहा है. जैसा कि देशराज गोयल ने अपनी किताब ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक’ में लिखा है कि ‘आरएसएस से वाजपेयी के अलग होने का सवाल ही पैदा नहीं होता है. यह पूरी समझदारी के साथ किया जा रहा है. अगर वाजपेयी की कुछ अदाओं से साम्प्रदायिकता का कलंक धुल जाएं तो आरएसएस का क्या नुक़सान होगा.’ (पृष्ठ संख्या-152)

अब चुनाव के समय भाजपा के तमाम नेता यही फार्मूला अपना रहे हैं. भाजपा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह का माफी मांगना-सिर झुकाना इसी रणनीति का एक हिस्सा है. माफी मांगने से इंसाफ के लिए भटक रहे लोगों के जीवनचर्या में क्या कोई परिवर्तन होगा?

संघ की शाखाओं में एक कहानी बार-बार सुनाई जाती है कि शिवाजी ने अपनी विजय के उपरांत अपना राजमुकुट और राजदण्ड रामदास के चरणों में रख दिया था. रामदास ने उन्हें अपना प्रतिनिधि बनाकर शासन करने की आज्ञा दी. हो सकता है कि इससे शिवाजी को शासन करने में मदद मिली हो, परन्तु आरएसएस की दृष्टि से यह उसके और राजनीति के सम्बन्धों का आदर्श है. यानी राजसत्ता को संघ के आगे झुकना चाहिए और उसी की रणनीति के तहत ही काम करना चाहिए.

मोदी बार-बार स्वयं को सेवक कहते हैं. वस्तुतः वह जनता के सेवक नहीं हैं बल्कि दलित, वंचित, अल्पसंख्यक विरोधी संघ के सेवक हैं. संघ में वैचारिक रूप से ऐसा परिवर्तन कभी नहीं हो सकता है, क्योंकि रूढि़वादी विचार ही उसके अस्तित्व का आधार है. इसलिए राजनाथ की मुसलमानों से माफी केवल एक सियासी नाटक से ज्यादा कुछ नहीं था, जिसकी पूरी पटकथा ही नागपुर से लिखी जा रही है.

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