…कौन सुने यहां दिल की जुबां, दर्द भरी ये दास्तां

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Bhaskar Guha Niyogi for BeyondHeadlines

वाराणसी : कभी इस शहर की रूह में कला और संगीत अठखेलियां किया करती थी. दिल से निकली और गले से होते हुए ठुमरी, चैती, कजली, की बंदिशे और तानें जब फिजा में करवट लेती थी, तो टेढ़ी-मेढ़ी गलियों एक आवाज़ आती थी संवरिया देख ज़रा इस ओर. इनके कद्रदान सांवरियें तो न जाने कहां चले गए तो बेरस और कड़वी राजनीति ने तो इससे अपना सरोकार ही खत्म कर डाला.

गलियां तो आज भी वहीं है, मगर अब बग़ल वाली कुछ ज्यादा ही जान मार रही है. नहीं तो भारत रत्न खां साहब के स्मृति में लगे शिलापट्ट पर लटकते जूते, या नृत्य साम्राज्ञिनी सितारा देवी के नाम का शिलापटट ऐसे ही टूट कर बेबस गिरा पड़ा थोड़े कहता ‘‘ मेरे जानिसार चले गये‘‘

शहर के कला-संस्कृति के साधक कला-संस्कृति के लगातार हो रही उपेक्षा के चलते दुःखी हैं. उनका मानना है कि बनारस का जो संगीत है, वो गुम हो रहा है. बनारस घराना खतरे में है. यहां से कलाकार पलायन कर रहे हैं.

जाने-माने सितार वादक पं. शिवनाथ मिश्र और उनके पुत्र देवब्रत मिश्र का कहना है कि बनारस के संगीत को सहेजने और आगे बढ़ाने में किसी की कोई रूचि नहीं है. जबकि बनारस की संगीत यहां की धड़कन है. अगर धड़कन ही रूक गई तो फिर शहर की पहचान कहा कायम रहेगी.

उनका कहना है कि शहर के प्रतिनिधित्व करने वालो को इस तरफ भी ध्यान देना चाहिए. साथ ही बनारस में संगीत ऐकडमी की स्थापना करनी चाहिए, जिससे बनारस की संगीत अपनी लय को न खोये.

मशहूर शहनाई वादक मरहूम बिस्मिल्लिा खां के सबसे छोटे बेटे नाजिम हुसैन का कहना है कि कलाकार आज उपेक्षा का शिकार हैं, उनके तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता. होने जा रहे चुनावों में एक-दूसरे पर लगाये जा रहे स्तरहीन आरोपों के बारे में मरहूम खां साहब को याद करते हुए नाजिम कहते है कि पिता जी कहा करते थे कि इन सियासतदानों को कम से कम दो सुर और दो बोल सिख लेना चाहिए, जिससे जुबान में मिठास आ जायेगी.

वैसे लोकसभा चुनाव के सबसे हॉट सीट यहां की कला और संगीत को लेकर सबसे ठंडी बनी हुई है. यहां से चुनाव लड़ रहे किसी भी दल के लिए यहां का कला-संगीत कोई मुद्दा नहीं है. तभी तो यहां के मरहूम शायर नजीर बनारसी के साहबजादे ज़हीर कहते है, बना रहे बना-रस तब तो मजा है, नहीं तो सब बेमजा.

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