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तेलंगाना : पिछले 7 दिनों में 19 छात्रों ने की आत्महत्या, आख़िर क्या है वजह?

Faiz Ashraf for BeyobdHeadlines

तेलंगाना से एक बेहद दुखद ख़बर आ रही है. वहां पिछले 7 दिनों में 19 छात्रों ने आत्महत्या कर ली है. ये वो छात्र हैं, जो तेलंगाना में हुई दसवीं और बारहवीं की बोर्ड परीक्षाओं में फ़ेल हो गए थे. वहां इस साल तक़रीबन 9.74 लाख विद्यार्थियों ने परीक्षा दी थी, जिनमें से 3.50 लाख विद्यार्थी उत्तीर्ण नहीं हो पाए. तेलंगाना के अभिभावक संघ परीक्षाओं में हुई गड़बड़ी और कॉपियों की दुबारा जांच की मांग उठा रहे हैं. 

इतने सारे विद्यार्थियों के उत्तीर्ण न हो पाने का कारण चाहे जो भी हो, मगर ये सवाल अपनी जगह यथासंभव बना हुआ है कि किसी परीक्षा में फ़ेल होने के बाद बच्चे आत्महत्या क्यों कर लेते हैं? 

इस जटिल सवाल का बेहद सरल जवाब है— हमारा समाज और सामाजिक दबाव. भारत की सामाजिक संरचना कुछ इस प्रकार की है कि व्यक्ति को व्यक्तिगत आज़ादी होने के बावजूद वह ख़ुद से जुड़े अहम फ़ैसले पूरी तरह स्वतंत्र होकर नहीं ले सकता, बल्की उसका ये फ़ैसला पूरा समाज मिलकर करता है. 

मसलन हम किससे शादी करेंगे, या हमारा पहनावा किस प्रकार का होगा, या हम क्या पढ़ेंगे या हमारा करियर विकल्प क्या होगा? ये वो फ़ैसले हैं जो किसी भी व्यक्ति के जीवन के लिए बेहद महत्वपूर्ण और बुनियादी हैं, मगर इन्हीं फ़ैसलों को लेते वक़्त हमारे ऊपर भयंकर सामाजिक दबाव होता है. 

हर साल ऐसे अंगिनत विद्यार्थी उन विषयों में परीक्षा देते हैं, जिन्हें वो पढ़ना ही नहीं चाहते होंगे. कुछ फ़ेल होते हैं और कुछ पास होकर आर्थिक प्रणाली का हिस्सा हो जाते हैं. और ज़्यादातर जीवन में निराश रहते हैं. शहरी युवा आबादी में बढ़ते डिप्रेशन के कई कारणों में ये भी एक कारण है. 

इसी सिक्के का दूसरा पहलू ये है कि हमारे समाज ने शिक्षा की जो व्याख्या की है उसका केवल एक ही उद्देश है पैसे कमाना. अच्छी पढ़ाई वो है जो अच्छी नौकरी देती हो और अच्छी नौकरी वो है जो ज़्यादा पैसा देती हो. यही कारण है कि साल दर साल हम आईआईटी और आईएएस में सफ़ल हुए लोगों को सेलिब्रेट करते हैं, जबकि इन लोगों का योगदान समाज या देश के सामूहिक अंतःकरण को बढ़ाने में नगण्य है. और उल्टा हम लेखकों और बुद्धिजीवियों को फ़िज़ूल समझते हैं. 

यहां पर मैं अपना अनुभव साझा करना ज़रूरी समझता हूं. बचपन से ही मुझे कुछ भी पढ़ जाने में और विशेषकर साहित्य और इतिहास पढ़ने में रुचि रही. दसवीं की परीक्षा में मुझे इन्हीं विषयों में सबसे ज़्यादा अंक हासिल हुए थे.  मैंने 90 के क़रीब अंक प्राप्त किए. मैं 12वीं में आर्ट्स लेकर आगे की पढ़ाई करना चाहता था और उससे आगे दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास या राजनीति विज्ञान में स्नातक करना चाहता था. (उस समय मैंने जेएनयू या जामिया का नाम तक नहीं सुना था.) ये बिहार में उस समय की बात है जब बचपन में पेचकस पकड़ कर बिजली का फ्यूज़ ठीक कर देने पर आपको इंजीनियर घोषित किया जाता था और खानदान की नाक सिर्फ़ घर की लड़की के प्रेम विवाह करने से ही नहीं, बल्कि लड़कों के 12वीं में साइन्स विशेषकर पीसीएम यानी फ़िज़िक्स, केमिस्ट्री और मैथ्स के अलावा कुछ और लेने से भी कट जाती थी. हालांकि अब स्थिति में व्यापक सुधार आया है. 

नतीजतन मुझे भी पीसीएम लेना पड़ा और मेरे अनुमान के मुताबिक़ मैं फ़ेल हो गया. फ़ेल होने के बावजूद मेरे आसपास के लोग मुझे कोटा भेजने के लिए तैयार थे. हालांकि इन सबके बाद भी मेरे ज़हन में कभी आत्महत्या का विचार नहीं आया. और क्यों नहीं आया इसकी वजह मेरे बेहद दूरदर्शी और दोस्त जैसे अब्बा रहे हैं. उन्होंने मेरी बात को समझा और आगे पढ़ने के लिए मुझे दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में भेजा. 

12वीं में फ़ेल होने का खामियाज़ा मैंने अपना एक साल और बेशक़ीमती आत्मविश्वास खोकर चुकाया है. आत्मविश्वास जिसे अभी भी दुबारा पाने की जद्दोजहद कर रहा हूं, लेकिन मैं निराश नही हूं. 

फ़ेल हो जाना हार क़तई नही है, रुक जाना हार है. और आपको किसी भी परिस्थिति में रुकना नही हैं. फ़ेल होना  कागज़ पर कुछ कम अंकों के छपे होने से ज़्यादा कुछ नहीं है और अगर आप रुकते नहीं हैं तो यक़ीनन उस काग़ज़ के टुकड़े को बदल सकते हैं. ये अभिभावकों की ज़िम्मेदारी बनती है कि अपने बच्चों की प्रतिभा को पहचानें और उन्हें सामाजिक दबाव से लड़ना सिखाएं. 

मुझे ये लिखने का हौसला इस बार साल सिविल सर्विसेज़ में पास हुए एक कैंडिडेट से मिला है जो कभी 12वीं में मैथ्स में फ़ेल हो गए थे और उन्होंने सार्वजनिक मंच से इस बात को क़ुबूल किया. उनका शुक्रिया…

(लेखक ने जामिया के पॉलिटिकल साईंस डिपार्टमेंट से बीए और एमए की पढ़ाई की है और फिलहाल सिविल सर्विसेज़ की तैयारी कर रहे हैं.)

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