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Reading: कम होती देश-भक्ति: भविष्य के लिए ख़तरा
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BeyondHeadlines > India > कम होती देश-भक्ति: भविष्य के लिए ख़तरा
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कम होती देश-भक्ति: भविष्य के लिए ख़तरा

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published January 27, 2013 1 View
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5 Min Read
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Akhtarul Iman for BeyondHeadlines

संसार की तमाम तर कौमें अपनी मातृभूमि से बेपनाह प्यार व अक़ीदत रखती हैं. यह स्नेह व प्यार प्रकृति का एक हिस्सा है. यही वो जज़्बा है जो किसी भी देश को इज्ज़त, तरक्की और सुरक्षा प्रदान करती है, बल्कि इस जज्बे की अनुपस्तिथी में देश की अखंडता भी ख़तरे में पड़ जाती है. यही वो जज्बा है जिस के कारण देश के सरहदों की सुरक्षा में शहादत पेश करके भी इंसान अपने वतन की इज्ज़त को क़ायम रखना चाहता है. ज़ालिम अंग्रेजों के खिलाफ हिंदुस्तानियों का यही वो जज्बा था जिसके कारण देश को आजादी मिली.

1857 की जंग-ए-आज़ादी हो या लगातार 1947 तक की आज़ादी का संघर्ष… इसी देश-भक्ति के पाक जज्बे ने हिन्दू-मुस्लिम, सिख-ईसाई, गोरा-काला, अमीर-गरीब सबको एक डोर में बांध रखा था. उम्मीद तो ये थी कि मुल्क की आज़ादी के बाद देश-भक्ति की उस लहर को और उर्जा मिलेगी. वो भावना आज़ादी के साथ और चमक उठेगा. लेकिन ना जाने क्यूं अब देश-भक्ति का जज्बा हमारे देशवासियों में लागातार कम होता जा रहा है.

देश की आज़ादी से पहले अंग्रेजों के मुक़ाबले में सारे हिन्दुस्तानी एक थे. मगर आज़ादी के बाद धर्म के नाम पर लोग बंटने लगे. भाषा और  कल्चर के नाम पर दूरियां बढ़ती गईं. फिर कोई हिन्दू हो गया तो कोई मुसलमान. कोई मराठी हो गया तो कोई बंगाली. कोई आसामी हो गया और कोई पंजाबी. इसका नतीजा यह हुआ कि हिन्दुस्तानी की जगह लोग छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट गए. हो सकता है कि यह जज्बा प्राकृतिक या फितरी हो, मगर देश-भक्ति या क़ौमियत के सामने इसकी कोई हैसियत नहीं…

लेकिन यह भी एक हक़ीक़त है कि इस पर्सनल आईडेंटिटी वाली मानसिकता का रुझान सत्ता पक्ष की जानिब से इन्साफ की जगह ज़ुल्म, रवादारी की जगह बेमरव्वती की वजह से ही जन्म लिया हो. जिस जात-बिरादरी के लोगों को सत्ता में हिस्सा मिला, उसने अपनी ज़ात-बिरादरी और अपने इलाके का सिर्फ ख्याल ही नहीं रखा, बल्कि दूसरों के अधिकारों का हनन बी किया. ज़ाहिर है, वंचित वर्ग में ऐसे लोगों के लिए प्यार की जगह नफ़रत का पैदा होना सवाभाविक है. यही वजह है कि आज क्षेत्रवाद, साम्प्रदायिकता और भाषा बंदी का माहौल पैदा हो रहा है जो हमारे देश के लिए एक संगीन खतरा है.

दूसरी तरफ हम यह भी कह सकते हैं कि मानव के ज़ेहन और सोच की रचना में आस-पास के वातावरण और किताबों का बड़ा दखल होता है. अगर हम देखें तो पिछले कई सालों से राष्ट्रीय एकता की जगह नफ़रत फैलाने वाली किताबों को अधिक महत्व दिया गया. इतिहास को बिगाड़ कर पेश किया गया. राष्ट्रीय भाषाओं की जगह अंग्रेजी भाषा का परिचलन ने भी हमारी नई पीढ़ी को हमारी सांस्कृतिक व सामाजिक जीवन के मूल भावनाओं से दूर करने का काम किया. मैं अंग्रेजी भाषा के विरोधी नहीं हूं, बल्कि आज के ज़माने की ज़रूरतों को देखकर मैं इस भाषा का प्रचारक भी हूं, लेकिन बड़ी शिद्दत के साथ इस बात को महसूस कर रहा हूँ कि अंग्रेजी पाठ्यक्रम में हिन्दुस्तानी तहज़ीब, सामाजिक जीवन और भारतीय संस्कार को शामिल किया जाना चाहिए. महाभारत से लेकर रामायण तक, ग़ालिब की बेमिसाल शायरी से लेकर इक़बाल के फिलॉस्फी तक, टैगोर की कहानियों से लेकर मुंशी प्रेमचंद की सामाजिक कहानियों तक को अंग्रेजी के पाठ्यक्रमों में शामिल किए जाने की ज़रूरत है, ताकि हमारे बच्चों का रिश्ता देश के साथ और मज़बूत हो सके. इस हकीक़त से कौन इंकार कर सकता है कि आज जो बच्चे सिर्फ अंग्रेजी मीडियम से अपनी शिक्षा प्राप्त करते हैं वो यूरोप के संस्कार, वहां की समाजी ज़िन्दगी, वहां की म्यूजिक, यहां तक कि वहां के फिलोस्फर्स से जितने वाकिफ होते हैं, लेकिन उतना ही, अपने मुल्क के महान पुरूषों और यहां के सभ्यता से वंचित रह जाते हैं. यही वो कारण है, जिसकी वजह से देश-भक्ति रफ्ता रफ्ता कम होती जाती है. दुनिया के दुसरे देश जैसे चीन, जापान, जर्मनी, फ्रांस, रूस इत्यादी में जो देश-भक्ति का जज्बा है, उसकी बड़ी वजह वहां की नस्लों के सामने उनके अपने देश के संस्कार, भाषा, सामाजिक जीवन का पेश किया जाना है. इस के साथ-साथ देश की व्यवस्था इन्साफ-पसंद है. मज़हब, जात-बिरदारी के नाम पर स्टेट नाइंसाफी नहीं करती है.

(लेखक किशनगंज, बिहार में विधायक हैं.) 

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