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Reading: ‘मिस्टर क्लीन’ क्यों बन गए ‘अलीबाबा 40 चोर’?
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BeyondHeadlines > India > ‘मिस्टर क्लीन’ क्यों बन गए ‘अलीबाबा 40 चोर’?
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‘मिस्टर क्लीन’ क्यों बन गए ‘अलीबाबा 40 चोर’?

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published May 23, 2013 2 Views
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16 Min Read
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मनमोहन सिंह ने पहले ही कहा था कि अगर सिस्टम कमजोर होगा, तो तरक्की नहीं होगी. लेकिन खुद उन्होंने इस दिशा में कुछ खास नहीं किया… 

Anurag Bakshi for BeyondHeadlines

अगर कोई मुझसे पूछे कि इस सरकार की सबसे बड़ी कामयाबी आप क्या मानते हैं? मेरा सीधा सा जवाब होगा कि ‘जो सरकार चार महीने देश पर शासन करने के लायक नहीं थी, उसने चार साल पूरा किया. यही इस सरकार की सबसे बड़ी कामयाबी है.’

आम जनता में आम राय ही यह बन चुकी है कि यह एक कमजोर सरकार है. जनता तो यह भी मानने लगी है कि यह सरकार नीतियों को पूरा नहीं कर सकती. यह सरकार की कमियों की वजह से ही हुआ है. इसके बाद अगर दूसरी बड़ी कमी देखें, तो बेरोज़गारी, महंगाई जैसी पारंपरिक मुश्किलें और दूसरी आतंकी हमले, आर्थिक मंदी, बढ़ते भ्रष्टाचार जैसी नई चुनौतियां, सरकार आर्थिक मोर्चे पर असफल रही है.

वैसे तो यूपीए-2 शुरू से ही विवादों में रहा है. लेकिन पिछले एक साल से सरकार की इतनी छीछा-लेदर हो चुकी है कि अब प्रधानमंत्री समेत किसी भी मंत्री की कोई विश्वसनीयता नहीं रह गई है. सूत्रों के अनुसार आजकल कांग्रेस के दिग्गज काफी परेशान हैं. वजह ये कि उन्हें सरकार के चार साल का रिपोर्ट कार्ड तैयार करने की जिम्मेदारी दी गई है. कहा गया है कि रिपोर्ट कार्ड ऐसा हो जिससे देश में सरकार की एक साफ सुथरी छवि बने…

अंदर की बात तो ये है कि पार्टी में पहले तो इसी बात को लेकर काफी समय तक विवाद रहा कि ये रिपोर्ट कार्ड कौन तैयार करे? सरकार बनाएगी रिपोर्ट कार्ड या फिर पार्टी के नेताओं को ये जिम्मेदारी दी जाए? सूत्र बताते हैं कि पार्टी नेताओं ने तो रिपोर्ट कार्ड कि जिम्मेदारी लेने से मना ही कर दिया था.

खुल कर तो कोई बोलता नहीं. लेकिन उनका मानना यही था कि ‘गोबर’ सरकार के मंत्री करते फिरें और वो उसे साफ करते रहें. ऐसा कब तक चलेगा?

मनमोहन सिंह की अगुआई में सरकार का प्रदर्शन तो वाकई निराशाजनक रहा ही. इस दौरान संवैधानिक संस्थाओं को भी कमजोर करने की साजिश की गई. चोरी पकड़े जाने पर केंद्र सरकार के मंत्रियों ने सीएजी के खिलाफ बातें कीं. सीबीआई के दुरुपयोग का मामला सबके सामने है. यूपीए-2 में प्रधानमंत्री कार्यालय, वित्त मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय, गृह मंत्रालय, रेल मंत्रालय, संचार मंत्रालय, कोयला मंत्रालय और कानून मंत्रालय समेत कई और मंत्रालयों की भूमिका संदिग्ध पाई गई और दर्जन भर मंत्रियों पर भी गंभीर आरोप लगे. लेकिन सीबीआई है तो सरकार को कोई खतरा भी नहीं है.

Report Card of UPA-2 (Photo Courtesy: commons.wikimedia.org)

यूपीए-2 सरकार के शपथ ग्रहण के पहले ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बहुत कोशिश की कि उनकी सरकार में डीएमके कोटे से ए. राजा और टीआर बालू को मंत्री न बनाया जाए. मनमोहन सिंह इन दोनों को अपनी सरकार में लेने के बिल्कुल खिलाफ थे. लेकिन टीआर बालू को तो मंत्री न बनाने पर डीएमके प्रमुख करुणानिधि तैयार हो गए. पर राजा के मामले में वो पीछे हटने को बिल्कुल तैयार नहीं हुए. बल्कि डीएमके ने ना सिर्फ राजा को मंत्री बनाने पर जोर दिया. दबाव ये भी बनाया कि उन्हें टेली कम्यूनिकेशन मंत्रालय ही दिया जाए. ऐसे में आसानी से समझा जा सकता है कि डीएमके और राजा के सामने प्रधानमंत्री ने उसी समय घुटने टेक दिए थे. उन्हें मंत्री बनाना और मनचाहा विभाग देना मजबूरी थी.

पद की गरिमा होती है (प्रधानमंत्री जानते हैं). अगर रेल मंत्रालय उस वक्त ममता बनर्जी को नहीं देते तो उन्हें तृणमूल कांग्रेस का भी समर्थन नहीं मिलता. मंत्रालय के नाम पर सभी दलों से प्रधानमंत्री को समझौता करना पड़ा. सरकार के शपथ के पहले ही पार्टी और सहयोगी दलों ने मनमोहन सिंह को जिस हद तक घुटनों पर ला खड़ा किया था. मनमोहन सिंह की जगह कोई दूसरा होता तो वो प्रधानमंत्री बनने से साफ इनकार कर देता. रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ भ्रष्टाचार मामले के कारण उन्हें भी रक्षात्मक होना पड़ा.

सीबीआई के इस्तेमाल की चर्चा ना की जाए तो मुझे लगता है कि बात मुकम्मल नहीं होगी. अब देखिए सरकार के दो सबसे बड़े घटक दल यानी डीएमके और टीएमसी सरकार से समर्थन वापस लेकर बाहर हो गए. फिर भी सरकार की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा.

यूपी राजनीति में एक दूसरे के कट्टर विरोधी मुलायम सिंह यादव और मायावती दिल्ली की सरकार के साथ बुरी तरह चिपके हुए है. मुंह खोलने की हिम्मत नहीं है इन नेताओ में… इसकी वजह केंद्र की सरकार का बढि़या काम नहीं है. बल्कि सीबीआई का डंडा है.

दोनों के खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति का मामला विचाराधीन है. बेचारे मुलायम सिंह तो अपना दर्द छिपा भी नहीं पाते हैं. उन्होंने तो कई मौंको पर कहा कि समर्थन वापस लें तो ये सरकार हमारे पीछे सीबीआई को लगा देगी.

अब ये अलग बात है कि जिस सीबीआई के दम पर केंद्र की सरकार चल रही है. वही सीबीआई आज प्रधानमंत्री के गले की ऐसी हड्डी बन गई है. जिसे ना वो निगल पा रहे हैं और ना ही उगल पा रहे हैं.

सच तो ये है कि कहीं अगले चुनाव में कांग्रेस की सरकार नहीं बन पाई तो यही मनमोहन सिंह बेचारे सीबीआई मुख्यालय में कोल ब्लॉक आवंटन के मामले में पूछताछ के लिए तलब होते रहेंगे. बहरहाल, आज तो ये कहा ही जा सकता है कि दो बड़े दल उनका समर्थन छोड़कर चले गए. लेकिन उन्होंने सरकार पर आंच नहीं आने दी. ये भी तो सरकार की कामयाबी है.

एक समय में यही मनमोहन सिंह ‘मिस्टर क्लीन’ कहे जाते थे. आज उन्हें लोग ‘अलीबाबा 40 चोर’ कह रहे हैं. कोई ‘चोरों का सरदार’ बता रहा है. ईमानदारी की बात तो यही है कि उनकी मिस्टर क्लीन की छवि अब पूरी तरह समाप्त हो गई है.

कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर सुरेश कलमाड़ी को और टूजी मामले में सरकार के कैबिनेट मंत्री ए. राजा को जेल जाना पड़ा. इतना ही नहीं गठबंधन की सांसद कनिमोझी तक जेल गईं. ये ऐसा घोटाला था कि सरकार पूरी तरह बैकफुट पर आ गई. लेकिन प्रधानमंत्री ने इसे गठबंधन की मजबूरी बताकर पूरा दोष डीएमके पर मढ़ने की कोशिश की.

इसी बीच आदर्श सोसायटी घोटाले में महाराष्ट्र के उस वक्त मुख्यमंत्री रहे अशोक चव्हाण कटघरे में आ गए और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. लोकपाल के लिए अन्ना के आंदोलन से भी भ्रष्टाचार से निपटने की तो बात दूर, यह सरकार उससे उपजे जनाक्रोश को भी समझने में नाकाम रही. सिविल सोसाइटी और मीडिया की सक्रियता से कुछ मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा.

इन कलंक कथाओं ने सरकार की छवि को मटियामेट करने में बड़ी भूमिका निभाई. जबकि रामदेव के आंदोलन को पुलिस के बल पर कुचलने से देश भर मे तीखी प्रतिक्रिया हुई. दिल्ली में गैंग रेप कांड से भी सरकार की छवि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा.

टूजी घोटाले को लेकर सरकार बुरी तरह घिरी हुई थी. संसद और सड़क तक प्रदर्शन हो ही रहे थे. इसी बीच जेल से बाहर आए पूर्व मंत्री ए राजा ने साफ किया कि उन्होंने जो भी फैसले लिए उन सबकी जानकारी वित्तमंत्री पी चिदंबरम और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को थी. उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिसकी जानकारी इन दोनों नेताओं को पहले से ना रही हो.

अगर राजा की ये बात सच है तो प्रधानमंत्री को अपनी रिपोर्ट कार्ड में इसका भी खुलासा करना चाहिए. खैर टूजी को लेकर प्रधानमंत्री घिरे ही थे कि इस बीच कोयला घोटाला सामने आ गया. इस घोटाले में तो साफ-साफ कहा गया कि कोल ब्लॉक आवंटन में पीएमओ शामिल है और जिस दौरान ये आवंटन हुए थे.

उस समय कोयला मंत्रालय भी प्रधानमंत्री के ही पास था. मामला काफी उलझा हुआ था. आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने पूरे मामले की जांच सीबीआई को दी. सीबीआई की स्टे्टस रिपोर्ट में छेड़छाड़ की साजिश का पर्दाफाश होने के बाद बेचारे कानून मंत्री अश्वनी कुमार को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा. हालांकि विपक्ष प्रधानमंत्री का इस्तीफा मांग रहा है. क्योंकि कानून मंत्री तो प्रधानमंत्री को ही बचाने के लिए सीबीआई की रिपोर्ट में बदलाव करा रहे थे.

मैं भी इस बात से समहत हूं कि प्रधानमंत्री को जांच होने तक पद पर रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है. हेलीकॉप्टर घोटाले में भी सरकार की काफी किरकिरी हुई है. सेना के मामले में ज्यादा चर्चा नहीं हो पाई. लेकिन ट्रकों का सौदा काफी विवादित रहा है. रेलवे में प्रमोशन के लिए घूसखोरी में रेलमंत्री का भांजा रंगे हाथ पकड़ा गया. इसके बाद विपक्ष और मीडिया के भारी शोर-शराबे के बाद रेलमंत्री का इस्तीफा हुआ.

प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने के बाद सरकार में प्रधानमंत्री का कद तेजी से बढ़ा. पिछले साल मंत्रिपरिषद में हुए बदलावों से यह बात स्पष्ट हो जाती है. पर इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि प्रणब मुखर्जी जैसे अनुभवी नेता के राष्ट्रपति भवन पहुंचने के बाद यह सरकार कई मोर्चों पर बेहद असहाय नज़र आई है.

मनमोहन सरकार की कमजोरी और अनुभवहीनता विदेश नीति के मामले में भी देखने को मिली. सरकार दावा करती है कि अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी से रिश्ते बेहतर हुए हैं. लेकिन पड़ोसी देशों के साथ हमारे रिश्ते क्यों लगातार खराब होते जा रहे हैं? पाकिस्तानी सीमा पर तो तनाव बना ही रहता था अब चीन की सीमाएं भी सुरक्षित नहीं रहीं… यहां तक की श्रीलंका, मालदीव देशों के साथ भी हमारी कूटनीति कमजोर साबित हुई है. पाकिस्तान के साथ सीमा पार से आतंकवाद का मामला हो या फिर पाक सैनिकों द्वारा  भारतीय सैनिकों की हत्या और फिर सिर काट ले जाने जैसी अपमान की घटना.

इतना ही नहीं सरबजीत की रिहाई का मामला… हर बार पाक सरकार भारत सरकार की कोशिशों पर पानी फेरती रही. लेकिन हम राजदूत को तलब कर आपत्ति जताने के अलावा कुछ नहीं कर पाए. आज देखा जा रहा है कि चीन के सैनिक भी भारतीय सीमा में लगातार घुसपैठ कर रहे हैं. हम अपने सीमावर्ती इलाके में विकास के काम तक नहीं कर पा रहे हैं.

हालात ये है कि बीजिंग में दिल्ली की शिकायतें रद्दी की टोकरी में डाल दी जा रही हैं. पाकिस्तान या चीन के साथ रिश्ते में हम उग्र रवैया नहीं अपना सकते. यह बात देश को समझाने में सरकार विफल रही है. इसे सरकार की नाकामी नहीं तो भला क्या कहा जाए?

पड़ोसी मुल्कों से बेहतर रिश्ते की उम्मीद इस सरकार से करना बेईमानी है. ये सरकार देश मे राज्यों के साथ मतभेद करती है. कई बार ऐसे मामले देखने को मिले जहां केंद्र व राज्य सरकार के बीच दूरियां साफ नज़र आईं. जहां राज्यों द्वारा संघीय ढांचे की दुहाई देकर केंद्र सरकार के एनसीटीसी बिल की राह में रोड़ा अटकाया गया. वहीं दूसरी ओर राज्यों के विरोध के चलते केंद्र सरकार अब तक आरपीएफ बिल नहीं ला पा रही. एनसीटीसी मामले पर तो मोदी, नीतीश, ममता, जयललिता, नवीन पटनायक मुख्यमंत्री केंद्र सरकार के खिलाफ बाकायदा लामबंद हो गए थे.

राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति और एफडीआई को लेकर भी कई बार टकराव देखने को मिला. जिस तरह एफडीआई के मसले पर राज्यों की अनदेखी की गई. वही केंद्र और राज्यों के संबंधो को बताने के लिए पर्याप्त है.

आखिर में बात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्र की… देश को उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री कमजोर ही सही, लेकिन उनके रहने से देश की अर्थव्यवस्था तो मज़बूत रहेगी तो इस मोर्चे पर भी मनमोहन सिंह फेल रहे हैं. हालांकि ये बात तो सही है कि मंदी के दौर में जहां दुनिया की बड़ी-बड़ी इकॉनामी गच्चा खा गईं, वहीं सरकार ने एक के बाद एक एहतियाती क़दम उठाकर देश की अर्थव्यवस्था को संभाले रखा.

इस दौरान जहां अमेरिका की ग्रोथ रेट 1 से 2 फीसदी और यूरोपीय देशों की जीडीपी 1 फीसदी से भी कम हो गई थी. वहीं देश की ग्रोथ रेट 5/6 फीसदी और उससे ज्यादा बनी रही. लेकिन सरकार बढ़ती महंगाई पर रोक नहीं लगा पाई. जो प्रधानमंत्री और सरकार की एक बड़ी कमजोरी मानी गई. कृषि उत्पादों की मांग और आपूर्ति में आया अंतर, डीजल और पेट्रोल ने महंगाई की दर को नई गति दी. बढ़ती कीमतें जनता की जेब पर भारी बोझ साबित हुई. एलपीजी पर सब्सिडी की वापसी ने महिलाओं के घरेलू बजट को बिगाड़ कर रख दिया.

योजना आयोग ने गरीबों की थाली के रेट निर्धारण में हकीकत की अनदेखी कर गरीबों की गरीबी का मजाक बनाया. खासकर तब, जब डॉ. मनमोहन सिंह खुद प्रधानमंत्री हैं. जब वह प्रधानमंत्री बने थे, तो जनता ने यही सोचा था कि अब भारत आर्थिक ताकत बन जाएगा. लेकिन हुआ उल्टा, सरकार को आंकड़ों से ज्यादा खुश होने की ज़रूरत नहीं है. भारत में आज सबसे बड़ी कमजोरी है, यहां की कार्यप्रणाली का कमजोर होना…

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