दावों का ज़ोर… मगर ये दिल मांगे कुछ और

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Bhaskar Guha Niyogi for BeyondHeadlines

वाराणसी : चुनाव प्रचार भले ही थम गया हो, पर आम मतदाता इस बार कुछ और सोच रहा है. सालों का धैर्य जबाब दे रहा है.हाथ आया नहीं कुछ, आये तो बहुत इधर…सच कहे तो बनारस, काशी, वाराणसी चाहे किसी भी नाम से पुकार लिजिए पर इस शहर के मिजाज में जितना फक्कड़पन और मस्ती है, उतना ही विरोध और अक्खड़पन भी.

मन-मिजाज मिला तो ठीक, नहीं तो फिर आप अपने रास्ते. समस्याओं से जूझता ये शहर आपको हंसता ही मिलेगा. शहर के किसी भी नुक्कड़ पर खड़े होकर आप इस शहर के  मिजाज को परख सकते हैं. गालिब ने इस काबा-ए-हिन्दुस्तान कहा तो ईरानी शायर शेख अली हाजी इस शहर के मुरीद हो कर रह गए.

पांखड और आडम्बर के विरोध का कबीराना मिजाज इस शहर की धरोहर है. सियासत यहां चाहे जो भी खेल खेले पर गंगा-जमुनी तहजीब ताने-बाने की तरह आपसी रिश्तों में आज भी कायम है. पर सियासत से लगातार मिलने वाली उपेक्षा के चलते शहर का आम मतदाता का मिजाज उखड़ा हुआ है.

बिजली, सड़क, पानी, मंदी की मार का शिकार बंद होते उद्योग धंधो के बीच सियासत की वादाखिलाफी से परेशां लोगों की नज़र उस प्रत्याशी को तलाश रही है, जिसमें अपनापन होने के साथ ही शहर के लिए ज़मीनी सतह पर कुछ कर गुज़रने का जज़्बा हो, जो उनके बीच का हो उनके साथ खड़ा हो.

मरहूम राष्ट्रवादी शायर नजीर बनारसी के साहबजादे मोहम्मद ज़हीर जिन्होंने वक्त के कई उतार चढ़ाव देखे है, कहते हैं जो बनारसीपन को साथ लेकर चले हमे वो पंसद है.

77 साल की उम्र में ज़हीर साहब कहते है.बना-रस बिगड़ा रस हो चला है. चारों तरफ समस्याएं है, पर उनका हल नहीं. ऐसे में कोई ऐसा चाहिए जिसके पास गंगा-जमुनी तहजीब की समझ हो और शहर को संवारने का जज्बा भी.

गृहणी आशा पाण्डेय कहती हैभष्ट्राचार ने बेड़ा गर्क किया तो महंगाई ने जीना दुश्वार जोशी जी ने कुछ नहीं किया ऐसे में प्रत्याशी ऐसा हो जो हमारे मौलिक सुविधाओं में सुधार ला सके.

उनका कहना है कि इस बार अगर कोई महिला बनारस का प्रतिनिधित्व करती तो यहां की बिगड़ी व्यवस्था पटरी पर लौट आती. बनारसी वस्त्र उद्योग से जुड़े दानिश चाहते हैं किफिर कही गुजरात न हो साथ ही बेहतर बिजली, पानी, सड़के उनकी प्राथमिकता हैं. दानिश कहते हैं वोट विकास और सुरक्षा के नाम पर दे तो बेहतर होगा.

एकाउन्टेंट लल्लू प्रसाद तिवारी का कहना है कि पं. कमलापति त्रिपाठी के बाद किसी ने बनारस के लिए कुछ नहीं किया, उन्हें ऐसा प्रत्याशी चाहिए जो बनारस का हो और शहर के सुख-दुख में साथ खड़ा हो.

निजी व्यापार से जुड़े राजेश शुक्ला साफ लफ्जों में कहते है इसकी कोई गांरटी नहीं है मोदी जीतने के बाद यहीं के बने रहेंगे. डा0 जोशी के कार्यकाल को फेल मानते हुए कहते हैं कि शहर में कुछ नहीं बचा आधारभूत ढ़ांचा बिखर रहा है. उद्योग मर रहे हैया फिर पलायन ऐसे में कोई बड़ी बात नहीं कि इस बड़ी लड़ाई में बनारस हार जाये.

नसरीन बेगम, कायनात फातिमा, नसरीन बानो को भाषण नहीं काम चाहिए. उनका कहना है कि बिजली, पानी, सड़के शहर में है ही नहीं. साथ ही महिलाओं की सुरक्षा की भी कोई गांरटी नहीं है. ऐसे में प्रत्याशी ऐसा चाहिए जो सबकी सुने सबके लिए करें न कि किसी खास तबके और सम्प्रदाय के लिए.

डा. आरिफ का मानना है कि शहर में रोज़गार, सड़के, बिजली, पानी सभी खस्ताहाल है, न माफिया न बड़ा नाम और न बांटने वाले की ज़रूरत है. वो कहते कि वोट तो उसे देना चाहिए जो सरल, सहज और आसानी से उपलब्ध हो. साथ ही इस शहर की साझा संस्कृति को आगे ले जाने वाला हो.

निजी व्यावसाय से जुड़े धीरेन्द्र पाठक सीधे कहते है कि सब छलावा है, कुछ नहीं बदलने वाला बनारस से….

मतलब साध रहे सियासत करने वालो का क्या बिगड़ा और क्या बिगड़ेगा, ये तो पता नहीं पर बनारस क्या बदलेगा?

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