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Reading: नरेन्द्र मोदी का ‘गुजरात’ : एक कुपोषित राज्य
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BeyondHeadlines > Exclusive > नरेन्द्र मोदी का ‘गुजरात’ : एक कुपोषित राज्य
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नरेन्द्र मोदी का ‘गुजरात’ : एक कुपोषित राज्य

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published September 17, 2013
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6 Min Read
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Fahmina Hussain for BeyondHeadlines

हममें से सभी यही सोचते हैं कि ‘कुपोषण’ एक बीमारी है. लेकिन सच तो यह है कि ‘कुपोषण’ सामाजिक-राजनैतिक कारणों का एक परिणाम है.

हमारे यहां कुपोषण की शुरुआत मां के गर्भ से ही हो जाती है और लड़कियों व महिलाओं में तो जीवन भर पौष्टिक भोजन का अभाव बना रहता है. इससे न केवल व्यक्तिगत स्तर पर स्वास्थ्य की हानि होती है बल्कि भावी पीढ़ी को भी क्षति पहुंचने की आशंका बनी रहती है.  जब भूख और गरीबी राजनैतिक एजेंडा की प्राथमिकता नहीं होती तब ‘कुपोषण’ नामक यह बीमारी लोगों के ज़बान पर आती है…

real story of gujarat developmentइसी राजनीतिक एजेंडा और प्राथमिकता के बीच नरेंद्र मोदी का विकास का चेहरा कहीं न कहीं धुंधला पड़ रहा है. मोदी अपनी तस्वीर की डेंटिंग-पेंटिंग में शिद्दत से जुटे हुए हैं. वो अपनी छवि को ‘विकास पुरुष’ के तौर पर दर्शाना चाहते हैं. सिर्फ देश में ही नहीं पूरी दुनिया में. और इसके लिए वो जनता का पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं. मोदी के प्रोपेगंडा के लिए विदेशी कम्पनी ‘APCO’ लगा हुआ है. और इन सब मीडिया में यह खबर दबा दी गई कि भुखमरी और कुपोषण के मामले में गुजरात की हालत बहुत खराब है.

नेशनल काउन्सिल ऑफ इकोनोमी रिसर्च 2011 के आंकडों के मुताबिक भुखमरी और कुपोषण के मामले में गुजरात अव्वल है और गुजरात के 44.6 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं. वहीं शून्य से पांच वर्ष की आयु के 66 प्रतिशत बच्चे गंभीर रूप से कुपोषण से ग्रस्त हैं और साक्षरता में 16वें स्थान से गिरकर 18वें स्थान पर आ गया है.

इसके अलावा हाल में जारी इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टिट्यूट-2012 के आंकड़ों के मुताबिक गुजरात के 49.6 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं. गुजरात की 22.3 फीसदी आबादी भी कुपोषित है. टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित इंडियन ह्यूमन डेवेलेपमेंट रिपोर्ट-2011 के आकंड़ें भी ये बात साबित करते हैं कि गुजरात जैसे विकसित राज्य में अनुसूचित जनजाति के 69 फीसदी बच्चे गंभीर रुप से कुपोषण से ग्रस्त हैं. शिशु मृत्यु दर के मामले में गुजरात अन्य राज्यों से आगे है.

भ्रूण हत्या भी गुजरात में एक गंभीर मुद्दा है. गुजरात का लिंग अनुपात भी देश के औसत लिंग अनुपात से नीचे है. 2001 में गुजरात का लिंग अनुपात 921 था जो 2011 में घटकर 918 हो गया. जबकि भारत का औसत लिंग अनुपात 1000 पुरुषों पर 940 महिलाएं हैं.

यही नहीं, टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक गुजरात में 15 से 49 साल के बीच करीब 50 फीसदी महिलाएं अनीमियां से ग्रसित हैं. इसके लिए नरेंद्र मोदी अजीबो-गरीब तर्क देते हुए कहते हैं कि ब्यूटी कॉन्शियस होने की वजह से लड़कियां खाना नहीं खातीं.

दूसरी तरफ, सूरत नगर निगम के कमिश्नर ने खुद सरकार को लिखा है कि सिर्फ 78 पैसे में बच्चों को दोपहर का भोजन देना संभव नहीं. लेकिन सरकार उनके खाने पर खर्च करने को तैयार नहीं. मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के मुताबिक गुजरात दुनिया के सामने तरक्की की मिसाल है. लेकिन सूरत के कमिश्नर की चिट्ठी इस विकास के लिये बड़ा प्रश्न चिन्ह है.

कमिश्नर ने अपने पत्र में यह भी लिखा है ‘सूरत शहर में 1004 आंगनवाड़ी केंद्र हैं. नियम के मुताबिक तीन से छह साल के 25000 बच्चों को दोपहर का भोजन देने के लिए दो संस्थाओं को 78 पैसे प्रति बच्चे के हिसाब से भुगतान किया जाता है. इतने कम पैसे में बच्चों को पौष्टिक आहार देना संभव नहीं है. इसका नतीजा ये है कि बच्चे कुपोषण का शिकार हैं.’

2010-11 में जहां राज्य के 34 फीसदी बच्चे कुपोषित थे. एक साल बाद कुपोषित बच्चों का आंकड़ा 46 फीसदी के पार हो गया. गुजरात के दस जिलो में दिसंबर-2012 तक 3 लाख 73 हजार बच्चे कुपोषित पाए गए. अकेले पंचमहाल जिले में तक़रीबन 73 हजार बच्चे कुपोषित पाए गए हैं.

बहरहाल, कुपोषण के मुद्दे पर गुजरात सरकार के पास कोई ठोस जवाब नहीं है. मोदी की नज़र में गुजरात और स्वर्ग में बहुत फर्क नहीं है. लेकिन यह स्वर्ग उद्योगपतियों को चाहे जितना लुभाए, गरीबों के पेट भरने का इंतजाम वहां भी नहीं है.

इंस्टीट्यूट ऑफ अप्लाइड मैनपॉवर रिसर्च के सर्वेक्षण में कहा है दलितों और आदिवासियों के बीच भुखमरी की स्थिति है. रिपोर्ट का हवाला देते हुए केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश ने यहाँ तक कहा कि ‘कुपोषण और भुखमरी के सूचकांक में गुजरात कुछ उत्तर भारतीय राज्यों से भी निचले पायदान पर है.’

विश्व बैंक की रिपोर्ट भी कहती है कि बच्चों की कुल मौतों में से आधी केवल न्यूनतम भोजन न मिलने के कारण होती हैं. मलेरिया, डायरिया और निमोनिया से होने वाली बाल मृत्यु की घटनाओं के लिए कुपोषण की स्थिति 50 फीसद से भी ज्यादा जिम्मेदार है. बहरहाल, कुपोषण से निपटने के लिए ठोस रणनीति बनानी होगी, क्योंकि यह एक बहुआयामी समस्या है. केन्द्र और राज्य सरकारों को जहां सामाजिक उत्थान वाली योजनाओं के तंत्र को दुरुस्त करना होगा, वहीं समाज में जागरूकता लानी होगी.

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