Soutik Biswas
उन जुझारूओं का नाम आम आदमी पार्टी (आप) या आम लोगों की पार्टी है, जो जबरदस्त भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के चलते जन्मी और उन हालात में पनपी जो बड़े सियासी दलों के मोहभंग से पैदा हुए.
इसी लहर पर सवार होकर इस पार्टी ने दिल्ली चुनावों में शानदार आगाज किया.
आप ने दिल्ली में 70 में 28 सीटें जीतीं. उससे भी कहीं ज्यादा अहम ये है कि 30 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल कर उसने सत्ताधारी कांग्रेस को रौंदा ही नहीं, बल्कि सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी भाजपा को सकते में डाल दिया.
आप के कारण ही दिल्ली की विधानसभा त्रिशंकु बन गई है और हो सकता है कि फिर से चुनावों के आसार बन जाए.
एक विश्लेषक ने मुझसे कहा कि “लोग बेताबी से बेहतर विकल्प की ओर देख रहे थे और वो उम्मीदों पर खरे उतरे.”
सिर्फ़ एक साल पुरानी पार्टी का इतना शानदार प्रदर्शन ऐसे देश में रहा, जहां राजनीति में प्रवेश कतई आसान नहीं, बल्कि ये एक के बाद एक बाधाएं पेश करता है.
शानदार कामयाबी
किसी ज़माने में बेहद कम बोलने वाले सरकारी अधिकारी से लोकप्रिय नेता बने अरविंद केजरीवाल एक बड़ी ताकत बनकर उभरे हैं, उन्होंने चौथी बार मुख्यमंत्री बनने की उम्मीद लगाए बुजुर्ग कांग्रेसी नेता और मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को हार का स्वाद चखा दिया.
1980 के दशक में आंध्र प्रदेश में उभरी तेलुगूदेशम पार्टी के उदय को छोड़ दें तो देश ने शायद ही कोई ऐसा सियासी आगाज देखा हो.
विश्लेषकों का कहना है कि आप ने खुद को विश्वसनीय विकल्प के रूप में उस जनता के सामने पेश किया, जो भ्रष्टाचार, उदासीन नेताओं और अत्यधिक महंगाई से तंग आ चुकी थी. उन्हें विश्वास हुआ कि ये दल चुनावों में तस्वीर बदल सकता है.
इसी के चलते बीजेपी को अपना मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बदलना पड़ा, 70 अलग-अलग विधानसभाओं के लिए अलग घोषणापत्र तैयार करने पड़े, दक्षता से सोशल मीडिया का इस्तेमाल करना पड़ा. साथ ही लगातार जनोन्मुखी ईमानदार राजनीति का वादा भी करना पड़ा.
एक विश्लेषक ने कहा कि पहली बार देश में भ्रष्टाचार पर एक अलग तरह की बहस दिखी. नई पार्टी के तौर पर आप ने खुद को बदलाव का वाहक, प्रतिष्ठान विरोधी और राजनीतिज्ञ विरोधी के तौर पर पेश किया.
आप का उदय दरअसल पहचान, जाति, संरक्षण, चापलूसी, घरानों का वर्चस्व और धन की संदिग्ध आवाजाही से घिरी सियासत से फिसलन की ओर भी इशारा है.
किसने बनाया खास?
इससे पहले नई पार्टियों का उदय आमतौर पर क्षेत्रीय आधार और पहचान पर आधारित आंदोलनों के ज़रिए होता रहा है, आप ने इनमें से किसी से पहचान नहीं बनाई. ये पहली ऐसी पार्टी भी है जो शहरों से उभरी, जिसके ज्यादातर नेता मध्यवर्ग के हैं.
विश्लेषक प्रताप भानु मेहता ने मुझसे कहा, ये पार्टी शहरी मध्यवर्ग की कल्पना है. उनका कहना है, ”आप पहली ऐसी पार्टी है, जिसने सियासी तकनीक के नए तरीकों का इस्तेमाल कर प्रभावित किया. उसका चुनावी ख़र्चों का मॉडल पारदर्शी और जनता से मिले दान पर आधारित रहा. उसके लिए उन कार्यकर्ताओं ने काम किया जो अपनी नौकरियों और व्यवसाय को कुछ समय के लिए छोड़कर काम करने पहुंचे.”
बेशक इसका जन्म जबरदस्त भ्रष्टाचार विरोधी लहर के ज़रिए ही हुआ, जिसने जनता का ध्यान खींचा. इस पार्टी ने दूसरी पार्टियों को उनकी रणनीति पर फिर से विचार करने पर भी मजबूर किया.
मेहता कहते हैं, ”उन्होंने ख़ासी रचनाशीलता और कल्पनाशीलता भी दिखाई. जोखिम भी लिए. मसलन अरविंद केजरीवाल का शीला दीक्षित के खिलाफ चुनाव लड़ना. आप हमेशा सोच और प्रचार के स्तर पर भी एकदम अलग रही.”
क्या आप इस शानदार प्रदर्शन को भुना पाएगी और खुद के उभार को राष्ट्रीय स्तर की ओर ले जा पाएगी?
दीपांकर गुप्ता जैसे इतिहासकार महसूस करते हैं कि पार्टी को राष्ट्रीय मंच पर जाने से पहले खुद को स्थानीय निकाय चुनावों में लड़कर तैयार करना चाहिए. ये भी उसे अपनी सीमाओं में ही करना चाहिए.
लेकिन केजरीवाल की पार्टी महत्वाकांक्षी है-आप के वरिष्ठ नेताओं ने मुझसे कहा वो पूरे भारत में तीन सौ से ज्यादा आफ़िस खोल चुके हैं और पार्टी की योजना अगले लोकसभा आमचुनावों में लड़ने की है.
उनका कहना है कि ये हमारे लिए एक और अवसर होगा. बहुत से शहरों और राज्यों में पर्याप्त जनसंख्या चलायमान वोटरों की है, जो किसी मुख्य पार्टी से बंधे नहीं हैं और विश्वसनीय विकल्प की ओर देख रहे हैं.
राष्ट्रीय स्तर पर मिलेगी सफलता?
राजनीति संभवानवाओं का खेल है. लेकिन दिल्ली से बाहर सफल होने के लिए आप को भारत की जटिल राजनीति को ही नहीं समझना होगा, बल्कि देश के कई घटकों, वर्गों के साथ भी खुद को जोडऩा होगा.
सत्ता के लिए गठजोड़ किए बगैर पार्टी भला कैसे ख़ुद के बने रहने की उम्मीद कर सकती है. कई और भी सवाल हैं, मसलन – वो भाषाओं की चुनौती और विविधताओं वाले देश में स्थानीय परिस्थितियों से कैसे तालमेल बिठा पाएगी? कैसे उनकी स्थानीय भाषा में बोले बगैर स्थानीय नेटवर्क बना पाएगी?
फिलहाल ये पार्टी बड़े तौर पर दिल्ली केंद्रित ज्यादा दिख रही है और उसके ज्यादातर नेता भी इसी शहर से ताल्लुक रखते हैं.
एक सवाल ये भी है कि क्या आम आदमी पार्टी भी दूसरी पार्टियों की तरह ही भारतीय राजनीति और अफसरशाही की बंधक बन जाएगी? क्या उसके करिश्माई नेता अरविंद केजरीवाल अपनी शख़्सियत को बरक़रार रख पाएंगे? क्या वो अपने आदर्शवाद और व्यावहारिकता में तालमेल बना पाएंगे?
आप के कार्यकर्ता अकसर ये कहते हैं कि वो सत्ता हासिल करने के लिए राजनीति में नहीं आए हैं, बल्कि उनका इरादा समझौतावादी और भ्रष्ट व्यवस्था को बदलने के लिए आए हैं.
इस देश की व्यवस्था बदलने के लिए उन्हें न केवल इसमें हिस्सेदारी करनी होगी बल्कि इसके तहत काम भी करना होगा.
वैसे ये बात भी गंभीरता से कही जा रही है कि आप का उदय भारत की राजनीतिक पार्टियों को एक चेतावनी है कि वो न केवल खुद को जनता से जोड़ें, बल्कि जिम्मेदार बनें. उन्हें जनता को वाकई ये अहसास दिलाना होगा कि वो उनके बारे में सोचते हैं.
विश्लेषक मोहन गुरुस्वामी कहते हैं, “मुझे अब भी ये विश्वास नहीं है कि दिल्ली के लोगों ने पक्के तौर पर एक वैकल्पिक पार्टी के लिए वोट दिया है. ये मुझे ये मौजूदा पार्टियों के खिलाफ दिया गया वोट ज्यादा लगता है.”
अगर भारत की मुख्य पार्टियां अपने आपको नहीं बदलती हैं तो आम आदमी पार्टी राष्ट्रीय राजनीति में एक बड़ी ताकत के तौर पर उभर सकती है, वो भी बड़ी तेज़ी के साथ. (Courtesy: bbc.co.uk/hindi)
