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BeyondHeadlines > Exclusive > मुज़फ्फ़रनगर : ज़िन्दगी के पटरी पर लौटने की उम्मीद की जा सकती है?
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मुज़फ्फ़रनगर : ज़िन्दगी के पटरी पर लौटने की उम्मीद की जा सकती है?

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published January 17, 2014 1 View
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10 Min Read
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Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines

सरकार कहती है वापस गांव जाओ. लेकिन गांव वाले कहते हैं कि अब तुम्हारा यहां क्या है? राहत कैम्पों पर बुलडोजर चल चुका है. ज़िन्दगियां खुले आसमान के नीचे सिसक रही हैं. दंगा पीड़ितों के सामने सभी रास्ते बंद से हो गए हैं.

काकड़ा गांव के शहज़ाद की कहानी दंगा पीड़ितों के बेबसी को बयां करती हैं. शहज़ाद बताता है कि दंगे में उसका सब कुछ बर्बाद हो गया. घर की चारदीवारी को छोड़ खुले आसमान के नीचे इन कैम्पों में टेंट लगाकर रह रहा है. कैम्पों में रहते हुए संघर्ष कर अपनी ज़िन्दगी को पटरी पर लाने की क़वायद पता नहीं कब पूरी होगी. अब दंगे के तकरीबन चार महीने बाद सोचा कि वापस गांव जाकर अपने घर की बची हुई कड़ियां और मलबा ले आए. इसके लिए पास के शाहपूर थाने में पुलिस को आवेदन दिया. पुलिस ने गांव जाने की इजाज़त दे दी. वो दो पीएसी जवानों के साथ अपने घर काकड़ा गांव पहुंचा. शहज़ाद के साथ उसका भाई भी था. गांव में पहुंचने के बाद पुलिस जवानों के सामने ही दोनों भाईयों के साथ बदतमीज़ियां की गईं और जान से मारने की धमकी भी दी गई.

शाम में ट्रैक्टर पर सामान लादकर शहज़ाद अपने भाई के साथ वापस भेज ही रहा था कि पुलिस के आंखों के सामने ही पास खड़ी उसकी बाइक (स्पेलेंडर) को चार-पांच लोगों ने मिलकर आग के हवाले कर दिया. पुलिस मूकदर्शक बनकर तमाशा देखती रही. तुरंत उसने इसकी सूचना शाहपूर थाने को दी. सूचना मिलने के कुछ देर बाद पुलिस पहुंची, तब तक उसकी गाड़ा पूरी तरह जल चुकी थी.

इस मामले में शहज़ाद ने दिनांक 30 दिसम्बर, 2013 को एक एफआईआर (नं. 323/13) भी दर्ज कराई है. इस एफआईआर में  तीन लोग नीटू, रूपेश और अमित को नामज़द किया गया है. लेकिन पुलिस की ओर से अब तक कोई कार्रवाई नहीं की गई है. शाहपूर कैम्पों में रह रहे दंगा पीड़ितों की यह भी शिकायत है कि वो भी गांव वापस जाकर अपना सामान लाना चाहते हैं, पर पुलिस ने अब उनसे आवेदन स्वीकार करना बंद कर दिया है. ऐसे में हम क्या करें? अकेले गांव जा नहीं जा सकते और वैसे भी इस घटना के बाद गांव के जाट दंगाईयों का मनोबल और बढ़ गया है.

स्पष्ट रहे कि दिसम्बर के आखिरी हफ्तों में कुटबा गांव में मांगेराम बालियान के घर में क्षेत्र के 12 गांव के लोगों की पंचायत हुई थी. पंचायत में विस्थापितों को चेतावनी दी गई थी कि अपना सामान ले जाने के लिए वह पुलिस के साथ ही गांव में घुसें. बगैर पुलिस के हम कोई सामान नहीं ले जाने देंगे.

इस सिलसिले में हम अपनी टीम के साथ शाहपूर थाने पहुंचे. थाने में हमारी मुलाकात सब-इंस्पेक्टर सर्वेश सिहं से हुई. हमने उन्हें घटना के बारे में बताया और इस घटना पर लिए गए एक्शन के बारे में पूछा तो उनका कहना था कि इस घटना की जांच एस.आई.टी. की टीम कर रही है. लेकिन जैसे ही हमने एफआईआर की बात की तो तुरंत वो बताने लगे कि उसकी जांच चल रही है. अब तक के कार्रवाई के बारे में पूछे जाने पर उनका कहना था कि हमने आरोपियों के घरों पर दबिश दी थी पर वो अब फ़रार हैं.

बातचीत का क्रम आगे बढ़ने पर वो बताने लगे कि दरअसल, शहज़ाद व उसके भाई ने अपनी गाड़ी में आग खुद ही लगाई है. इसके लिए उनके पास कई बयान हैं कि लोगों ने शहज़ाद को बताया कि ‘तुम्हारी गाड़ी जल रही है, तो उसने कहा कि जलने दो.’ और यह बताने के बाद वो अपने मोबाईल में लोगों के बयानों की विडियो दिखाने लगे. इसके बाद उन्होंने यह भी बताया कि आगे देखिए अभी क्या-क्या होता है? हम किसी को छोड़ेंगे नहीं, चाहे वो कोई भी हो. और शहज़ाद ने गाड़ी में आग लगने के बाद पहले पुलिस को फोन करने के बजाए मीडिया के लोगों को फोन किया. इससे आप उसका मक़सद समझ सकते हैं.

जब हम लोगों ने उनसे पूछा कि आपकी पुलिस तो उसके साथ ही गई थी. तो उन्होंने हामी भरते हुए बताया कि दो पीएसी जवानों को हमने उसके साथ भेजा था. और उनकी देख-रेख में वो पूरे दिन अपना सामान लाने का काम किया. आगे जब हमने यह भी पूछा कि जब दो जवान उसके साथ थे, तो शहज़ाद ने गाड़ी में कैसे लगा दी? और कोई क्यों अपनी ही गाड़ी में आग लगाएगा? तो इस सवाल पर सर्वेश सिंह खामोश रहें. हां! इतना ज़रूर था कि हमारे चलने के समय इतना ज़रूर कहा कि देखिए आप लोग हमारी नौकरी बचाए रखिएगा…

अब हम अपनी टीम के साथ काकड़ा पहुंचे. यहां एक अलग ही मंज़र देखने को मिला. ज़्यादात घर जले हुए मिले. इन घरों में हर तरफ सामान बिखड़ा पड़ा था. पर यहां के लोगों का कहना कि मुसलमान बहुत लालची होते हैं. सिर्फ 5 लाख के लालच में वो वापस आकर अपने घरों का यह हाल कर दिया. और अब लालच में कैम्पों में रह रहे हैं ताकि सरकार उन्हें पांच लाख का मुवाअज़ा दे दे. कुछ ने यह भी बताया कि उनके सर पर गांव के लोगों का काफी क़र्ज़ा था इसलिए वो अपने घर छोड़कर भाग गए. हालांकि डॉ. योगेन्द्र यादव को गांव से मुसलमानों के चले का ग़म ज़रूर था. वो बताने लगे कि सबसे अधिक प्रभावित उनका क्लिनीक हुआ है. सारे मरीज़ तो अब कैम्पों में हैं और वो शायद ही वापस गांव लौट कर आएं.

दिलचस्प बात यह रही कि हमें गांव में नीटू भी मिल गया, जो इस केस में नामज़द है और पुलिस जिसे फ़रार बता रही है. वो बताने लगा पुलिस गांव के तीन निर्दोष लोगों को पकड़कर ले गई थी. हमने अगले दिन सड़क जाम कर दी. उसके बाद से पुलिस की हिम्मत नहीं है कि वो गांव आ सके. जब हमने उसे बाताया कि पुलिस तो आप लोगों को फरार बता रही है तो उसका स्पष्ट तौर पर कहना था कि अरे हम क्यों भागेंगे. हम तीनों अपने घरों में हैं. इसी गांव में हैं. पुलिस जब चाहे, हमें बुला सकती है…. अब तो शहज़ाद व उसके भाई ही जेल जाएंगे.

इसके बाद हमारी टीम गांव के प्रधान रविन्द्र चौधरी के घर पहुंची. तो उन्होंने भी वही बताया जो हमें आरोपी नीटू ने बताया था. साथ ही वो यह भी बताने लगे कि गांव मुसलमानों के लिए पूरी तरह से सुरक्षित है. इसकी मिसाल उन्होंने तुरंत देने की कोशिश की. उनके घर के कैम्पस में बैठे एक नाई को दिखाते हुए बताया कि देखिए यह मुसलमान है. इसे तो कोई डर नहीं है. साथ ही उनसे हमें घटना वाले दिन के अगले दिन की दैनिक जागरण अखबार की प्रति भी मिली, जिसमें उनका बयान छपा था- ‘हम गांव वाले तो विस्थापित मुस्लिम भाईयों की वापसी का इंतज़ार कर रहे हैं. यह घटना काकड़ा को बदनाम करने की साज़िश है. दरअसल, खुद को पीड़ित दिखाकर मुआवज़ा पाने के लिए दोनों युवकों ने यह फर्जी मामला रचा. मामला पूरी तरह संदिग्ध है.’

साथ में इस अखबार ने यह भी प्रकाशित किया था कि विस्थापितों को पंचायत के ज़रिए चेतावनी दी गई थी कि अपना सामान ले जाने के लिए वह पुलिस के साथ गांव में घुसे, बावजूद इसके यह दोनों भाई पुलिस को अपने साथ नहीं ले गए.

अब ज़रा उपर लिखे सब-इंस्पेक्टर साहब के बयान को भी पढ़ लीजिए, जिसमें उन्होंने बताया है कि वो दोनों दो पीएसी जवानों के साथ गए थे. और घटना के जानकारी सबसे पहले मीडिया को दी गई ताकि उनका फायदा हो सके…

अब सवाल गंभीरता के साथ सोचने का है कि मीडिया की खबरों से शहज़ाद को क्या फायदा होने वाला था जो उसने पहले मीडिया के लोगों को बुलाया. और अगर बुलाया तो उसका क्या फायदा हुआ?  साथ ही यह भी सोचने का विषय है कि सरकार जहां नज़र फेर ले. पुलिस अपनी ज़िम्मेदारी से पीछे हट जाए. चलते-फिरते ज़िन्दा लोग सिर्फ वोट बैंक बनकर रह जाएं तो क्या वहां फिर से ज़िन्दगी के पटरी पर लौटने की उम्मीद की जा सकती है?

(नोट : हमारी टीम में Australian Catholic University के एसोसियट प्रोफेसर Irfan Ahmad, BeyondHeadlines के एडिटर Kamala Kanta Dash, जर्नलिस्ट Debby Rai, AMITY University में जर्नलिज़्म के छात्र Amit Bhaskar और INSAAN International Foundation के उपाध्यक्ष व सीनियर फोटोग्राफर Gufran Khan शामिल थे. इन सब लोगों का इस स्टोरी में काफी महत्वपूर्ण योगदान रहा है.)

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