Abhishek Upadhyay for BeyondHeadlines
आज समझ में आया कि ध्यानचंद को भारत रत्न क्यूं नहीं मिला. उनके साथ राजीव शुक्ला जैसी महान राजनीतिक हस्ती नहीं थी, जिसके होते कुछ भी असंभव नहीं है. उनके साथ कोई मुकेश अंबानी जैसी ताक़त नहीं थी जो अपनी टीम के लिए ही सही, उनकी खरीद कर सकती. उनकी बोली उठा सकती…
ध्यानचंद दादा किसी शरद पवार को भी नहीं जानते थे, जिसके हाथों की फिरकी महाराष्ट्र की चीनी मिलों से लेकर देश के खेत खलिहानों और खेल के मैदानों तक सबका नसीब तय कर देती. ध्यानचंद दादा बहुत सादे आदमी थे. हाकी के जादूगर को हाकी के अलावा और कुछ भी नहीं आता था.
साल 1979 तक जिए मगर इतना भी जुगाड़ नहीं कर पाए कि कोई संसद तक ही पहुंचा देता. तीन बार ओलंपिक का स्वर्ण पदक जितवाया. तीन बार… एम्सटर्डम… लांस एंजेल्स… बर्लिन… तीन ओलंपिक… बांग्लादेश और श्रीलंका के खिलाफ अपना जौहर दिखाकर महान नहीं हुए थे दादा. जब खेले टीम जीती. खुद का शतक बनाने और गिराने में जिंदगी नहीं बीती उनकी. सेना में बतौर एक साधारण सिपाही भर्ती हुए थे. हिटलर से लेकर सर डान ब्रैडमैन तक सब उनके मुरीद थे.
अगर दादा आज होते तो हकीक़त समझ पाते कि खेल के क्षेत्र का पहला भारत रत्न मिला भी तो कैसे मिला. बताइए एक और बिचारे अकेले दादा, रत्नों से भरे अपने इतिहास के साथ…. हमारे पिता, हमारी मां, हमारे दादा… हमारी दादी… हमारे नाना और नानी की स्मृतियों में गाते… गुनगुनाते… हाकी लेकर आकाश की ओर विजय का इशारा करते…. देश का सिर ऊंचा करते…. मगर अकेले…. बिल्कुल अकेले…. और दूसरी ओर देश के नए नवेले “भारत रत्न” और साथ में उनका भारी भरकम लाव लश्कर जिसमें शामिल हैं आदरणीय राजीव शुक्ला, शरद पवार, मुकेश अंबानी, प्रफुल्ल पटेल और हां बात बात पर बांह मरोड़ने वाले राहुल भैय्या भी (मैच देखने गए थे और “भारत रत्न” के आउट होते ही उठकर चले गए… भारत की टीम को खेलते देखने थोड़े न गए थे… ऐसे में फैसला यही होना था…दादा…
खैर… लेने दीजिए उन्हें भारत रत्न… ये तो इतिहास तय करेगा कि असली भारत रत्न कौन है… आज एक बार फिर से दादा को दिल से सलाम…. दिल के रेशे रेशे से सलाम!
