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क्या सच में एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है?

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published June 30, 2012 1 View
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तबस्सुम जहाँ

सखियों गावहु मंगलचार… या फिर देव असुर गन्धर्व किन्नर

ये पक्तियां ‘रामचरित्र मानस’ की हैं जिसमे त्रेता युग में साफ -साफ किन्नर जाति की स्थिति बताई गई है. ‘सखी’ अर्थात किन्नर… जो मंगल-कामना करते हुए सीता को राम के गले में वरमाला डालने के लिए उत्साहित करते हैं और जिनके आशीर्वाद के साथ राम-जानकी विवाह संपन्न होता है. द्वापर-युग में इन्द्रलोक की एक अप्सरा द्वारा अर्जुन को नंपुसक बनने का शाप दिए जाने तथा अज्ञातवास के दौरान उनके किन्नर वेश धारण करके मत्स्य नरेश के राजभवन में आश्रय लिए जाने का वृतांत मिलता है.

हम सभी जानते हैं कि यदि कृष्ण के सुझाव पर किन्नर शिखंडी को सामने करके भीष्म वध ना किया गया होता तो धर्म पर अधर्म की विजय ना होती और विष्णु का कृष्ण अवतार लेने का मकसद कुछ हद तक निरर्थक ही रहता. किन्नर वे जाति हैं जिसने देवताओं यक्षो गन्धर्वों के साथ स्थान पाया है. भारतीय हिंदु संस्कृति में प्राचीन काल से ही किन्नरों का गौरवपूर्ण स्थान रहा है. दूसरे शब्दों में कहा जाये तो किन्नरों के बिना भारतीय संस्कृति अधूरी है. भारत में तुर्कों, अफगानों व मुगलों के समय में भी किन्नर शाही हरम में निवास करते थे.

समय का पहिया घूमा और किन्नर जाति पर धीरे-धीरे मानों वज्रपात सा होता गया, जो किन्नर जाति भारतीय संस्कृति का मुख्य हिस्सा थें वे बिखरने लगी और उसकी हालत बद से बदतर होने लगी. इनकी बदहाली का सबसे बड़ा कारण भारतीय संस्कृति के वे ठेकेदार हैं जो इस अमूल्य धरोहर की रक्षा न कर सके और समय के साथ इनको न्याय न दिलवा सके. आज मस्जिद, मंदिर और सेतु के लिए सैंकड़ों संगठन व लोग आवाज़ उठा रहे हैं, परन्तु क्या वे भूल गए हैं कि किन्नर जाति भी वैदिक काल से ही भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं. क्या हमें इनकी रक्षा नहीं करनी चाहिए या फिर हम पत्थरों व बुतों जैसी बेजान चीज़ों के लिए लड़कर भारतीय संस्कृति की रक्षा की दुहाई देते रहेंगे.

आज किन्नर (हिजड़ा) क्या है एक जाति सूचक शब्द या गाली? हम समाज में नाई को नाई नहीं बोल सकते, धोबी को धोबी नहीं बोल सकते, जमादार को जमादार नहीं बोल सकते, लेकिन किन्नर को हिजड़ा कह कर उसका अपमान ज़रूर कर सकते हैं.

‘एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है’ अर्थात नपुसंक बना देता है ये डायलॉग ये बताता है कि मनुष्य को समाज में क्या उसकी सेक्स-पावर से ही पहचाना जाना चाहिए, या फिर मात्र सेक्स-पावर ही उसे पुरुषत्व प्रदान करता है, क्या दया-करुणा-क्षमा-प्रेम-धैर्य-शक्ति जैसे गुण पुरुष को पुरुष होने का अहसास नहीं कराते. यदि ऐसा है तो हमारे महान ब्रह्मचारी गुरु गौरखनाथ तथा बाद में आदि नाथपंथी गुरूओं ने अपनी साधना और तपस्या द्वारा समाज में ऊंच-नीच का भेद ख़त्म किया.

ज्ञानमार्गी व योगमार्गी गुरूओं ने विषय वासनाओ का बहिष्कार करके समाज का उद्धार किया. केवल यही नहीं, ईसाई धर्म में भी नन और मंक बनकर और ब्रह्मचर्य व्रत लेकर समाज में परोपकार के कार्य किये जाते हैं. इन सब उदाहरणों से ये स्पष्ट है कि गृहस्थ जीवन के बिना केवल ब्रह्मचर्य द्वारा समाज में दूसरे तरीक़े अपनाकर मनुष्य देवताओं से भी ऊंचा स्थान पा सकता है. ये माना कि किन्नर हिजड़े होते हैं, फिर भी उनमें दया-ममता-करुणा-प्रेम-धैर्य-क्षमा आदि मानवीय मूल्य हमारी तरह ही बल्कि हमसे भी ज्यादा कूट-कूट कर भरे होते हैं.

आज के समय में जब समाज के अन्य वर्ग व जाति के लोग मात्र आरक्षण पाने के लिए सरकार की करोड़ों की सम्पत्ति फूंक देते हैं, विरोध की आढ़ लेकर समाज में कदाचार फैलाते हैं, मंदिर-मस्जिद का सहारा लेकर साम्प्रदायिक द्वेष व दंगे भड़काते हैं, कम वेतन व भत्ते की आढ़ लेकर किसी न किसी किसी बहाने सरकार को झुकाते हैं, उसी समाज में क्या अपने किसी किन्नर को सरकारी बस में आग लगाते देखा है? रेलगाड़ी को बीच पटरी पर असमय रोकते देखा है? या कहीं तोड़-फोड़ करते देखा है?

किन्नर लोग समाज को नुकसान नही पहुंचाते वह तो अपनी बदहाली पर आज खून के आंसू रो रहे हैं. आज उनको सँभालने वाला कोई नहीं है. आज कोई संगठन या संस्था नहीं है जो किन्नरों की आवाज़ बनकर सामने आये, उनके लिए आरक्षण की मांग करें या उन्हें भी सरकारी पदों पर नियुक्तियों की सिफारिश करें.

किन्नर समाज आज भी शिक्षा व राजनीतिक अधिकारों से वंचित है. इसके बावजूद भी सरकारी तथा गैर-सरकारी संस्थाएं या मानव अधिकार आयोग किन्नरों की उपेक्षा कर रहा है. ऐसी हालत में किन्नर करें भी तो क्या करें?

आज ज़रूरत है कि कोई संगठन इनकी आवाज़ बनकर सामने आये और भारतीय संस्कृति में सदियों से महत्वपूर्ण रहे किन्नर समाज की रक्षा करें…

(लेखिका जामिया मिल्लिया इस्लामिया के हिन्दी विभाग में शोध-छात्रा हैं.)

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