‘ब्रांड’ के नाम पर मरीज़ों को लूट रही हैं दवा कंपनियां

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आशुतोष कुमार सिंह

भारत एक लोक कल्याणकारी राज्य है. इस देश में गरीबों को जिस तरीके से लूटा जा रहा है, उसे देखकर दुःखद आश्चर्य होता है. जिसको जहां लूटने का मौका मिल रहा है, वह वहां लूटने में जुटा है. इस बार मैं दवा कंपनियों की लूट की बात करने जा रहा हूं.

दवा कारोबार से जुड़े लोग जानते हैं कि इस कारोबार में दो तरीके से दवाइयाँ बेची जाती है. एक जेनरिक के नाम पर दूसरी एथिकल के नाम पर. जेनरिक और एथिकल को लेकर आम लोगों में यह भ्रम है कि एथिकल दवाइयां असली होती हैं और जेनरिक नकली. जबकि वास्तविकता यह है कि जेनरिक और एथिकल केवल बाजार की बनाई हुई दवा बेचने की तरकीबे हैं. जहाँ जेनरिक दवाइयां डायरेक्ट मार्केट में आती हैं और एथिकल दवाइयों को बेचने के लिए एक सांगठनिक ढांचा विकसित किया जाता है. परिणाम स्वरूप एथिकल दवाइयां मरीजों तक पहुंचते-पहुंचते अपनी लागत मूल्य से अप टू 1500 प्रतिशत मंहगी बिकती हैं. और वही जेनरिक दवाइयाँ डायरेक्ट मार्केट में आती हैं, उनको लेकर कोई खास मार्केटिंग नहीं होती है. ऐसे में जेनरिक एथिकल दवाइयों की अपेक्षाकृत कम मूल्य पर बेची जाती हैं.

 

खैर, इन बातों पर चर्चा करने से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि यह जाना जाए कि एथिकल दवा के नाम पर कंपनियाँ मरीजों को कैसे लूट रही हैं…

कुछ एंटीबायोटिक दवाइयों के उदाहरण के साथ अपनी बात शुरू करूंगा. बुखार से लेकर कटे, जले में आम तौर पर जिस सॉल्ट का इस्तेमाल अंग्रेजी दवाइयों में किया जाता हैं वे हैं- अमौक्सीसिलिन, सिप्रोफ्लाक्सासिन, एजिथ्रोमाइसिन, ओ-फ्लॉक्सासिन, अमौक्सीसिलिन+कलॉक्सा-साइकिलिन. इन सॉल्ट्स को लेकर देश की बड़ी-बड़ी कंपनियाँ अपनी ब्रांड नेम के साथ दवा बनाती हैं. जैसे सिप्रोफ्लाक्सासिन सॉल्ट लेकर ‘एफडीसी’ जाक्सन (ZOXAN), ‘सिपला’ सिपलॉक्स (CIPLOX) और ‘रैनबैक्सी’ सिफरान (CIFRAN) नामक दवा बनाती हैं. सबसे चौंकाने वाली बात यह हैं कि एक ही सॉल्ट से बनाई गई दवाओं की एम.आर.पी. तुलनात्मक रूप से ज़मीन-आसमान का फर्क लिए हुए हैं. सिफरान-500 मि.ग्रा. का एम.आर.पी. 99.50 रूपये प्रति 10 टैबलेट है, वहीं सिपलॉक्स का एम.आर.पी. 93.36 रूपये प्रति 10 टैबलेट हैं. आश्चर्यजनक तरीके से इसी सॉल्ट को लेकर एफडीसी जाक्सन 500 मि.ग्रा. 55 रूपये में बेचती है.

यहाँ पर यह ध्यान देने वाली बात है कि सेम सॉल्ट की दवा एक तरफ एक कंपनी 55 रूपये में बेच रही है, वही दूसरी तरफ दूसरी दवा कंपनी 99.50 रूपये में बेचती है. यानी 44.50 रूपये ज्यादा मूल्य के साथ. एक दूसरी एंटीबायोटिक है ओफ्लाक्सासिन… इस सॉल्ट को लेकर सिपला कंपनी ओ-फ्लॉक्स नामक दवा बनाती है और एफडीसी जो (ZO) नामक दवा बनाती है, वही रैनबैक्सी जैनोसिन नामक दवा बनाती है. ज़रा इनकी एम.आर.पी पर ध्यान दीजिये- जैनोसिन 400 मि.ग्रा. प्रति पांच टैबलेट 102 रूपये यानी 10 टैबलेट का मूल्य 204 रूपये, ओफ्लॉक्स-400 मि.ग्रा. का एम.आर.पी है 144 रूपये प्रति 10 टैबलेट. वही एफ.डी.सी इसी दवा को जो 400 मि.ग्रा. के रूप में 70 रूपये में बेच रही है. वही ओफ्लाक्सासिन 200 मि.ग्रा. प्रति 10 टैबलेट सिपला 88 रूपये में बेच रही है तो एफडीसी प्रति 10 टैबलेट 39.75 रूपये में बेच रही है.

इसी तरह अमौक्सीसिलिन और क्लाक्सासाइकिलिन के कंबीनेशन से बनी दवा एफ.डी.सी फ्लेमीक्लॉक्स एल-बी.के नाम पर 60.25 रूपये में बेच रही तो वही इसी साल्ट के साथ सिपला नोभाक्लॉक्स प्रति 9 कैप्सुल 53.50 रूपये में बेच रही है. जबकि इसी बाजार में अलकेम इसी दवा को नोडीमॉक्स प्लस नाम से प्रति 10 कैप्सुल 23 रूपये में बेच रही है. इसी तरह एजिथ्रोमाइसिन साल्ट से निर्मित दवा जैथ्रिन 500 मि.ग्रा को एफडीसी 66 रूपये प्रति 3 टैबलेट बेचती है तो सिपला एजेडइइ नाम से 71 रूपये में, अजीबैक्ट नाम से इपका 70 रूपये में, अजिथ्राल 92.50 रूपये में तो मोलेकुले इंडिया प्रा. लि. 65 रूपये में बेच रही है.

ऐसे में यह अहम सवाल है कि हमारे देश में एथिकल और ब्रांड के नाम पर जिस तरह से दवा कंपनियाँ आम मरीजों को लूट रही है, इसकी भनक हमारी सरकार को है भी कि नहीं. अगर नहीं है तो शर्म की बात है और अगर जानकारी होते हुए इन्हें लुटने की आज़ादी दी जा रही है तो यह और भी शर्म की बात है.

(लेखक संस्कार पत्रिका से जुड़े हैं.)

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