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सिर्फ तदबीर से काम लूंगा तक़रीर से बिल्कुल नहीं

शाहिद कबीर

वक़्त अपनी चाल चल चुका था. सुबह उठा तो बिस्तर अपनी कहानी कह रहा था मगर वह नहीं था जिसकी कहानी कही जा चुकी है. मैं अंगडाई लेते हुआ  उठा. सारा बदन रात की थकन से चूर था. बहुत जोर लगा कर बिस्तर छोड़ना पड़ा. बाथरूम में गया तो सामने शीशे मैं उसकी लिपिस्टिक के निशान दिखाई दिए.  एक लम्हे के लिए महसूस हुआ जैसे कोई मेरे गालों को अपने खूबसूरत होठों से सहला रहा है.  मैं उन साँसों की गहराई में डूबता चला गया. उसकी गरम-गरम सांसें आहों में तब्दील होने लगी. चारों तरफ से चीख पुकार का शोर बरपा था.  मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था.

देखते ही देखते लिपिस्टिक के निशान लाल गहरे धब्बों में तब्दील हो गए.  मेरे दोनों कानों से पानी के फव्वारे फूटने लगे. आखों में ज़र्दी उतर आई.  मैं चीखना चाहता था मगर किसी चीज़ ने मेरे गले को इतनी जोर से दबाया की चाहकर भी मैं कुछ नहीं कर सका. हाथ पैर ठंडे पड़ने लगे. पल भर के लिए एहसास हुआ मानो  मेरा आखिरी वक्त आ चुका है. मैंने हाथ पैर ढीले छोड़ दिए और हार मान कर अपने आप को वक्त के हवाले कर दिया. बाहर से कमरे के दरवाज़े के खुलने की आवाज़ आई और किसी ने आवाज़ लगाई. आवाज़ सुन कर मेरे अंदर न जाने कहाँ से ताकात आ गई.  मैंने बाथरूम का दरवाज़ा पकड़ कर अंदर की ओर ज़ोर से खींचा और झटके से बाहर आ गया.

सामने होटल के बैरे को देखकर मेरी जान में जान आई.  वह मुझे देख कर घबरा कर कहने लगा- “साहेब, आप क्या बाथरूम में बंद हो गये थे.  आप के कपडे भी गीले हो गये हैं.  मैं बहुत देर से आपके रूम की घंटी बजा रहा था मगर आपने दरवाज़ा नहीं खोला. तब मैं  ‘मास्टर की’ लेकर आया. यह बाथरूम अक्सर बंद हो जाता है.  आप फ्रेश हो जाएं. मैं आप के लिए दूसरा टावेल लेकर आता हूँ.”

वह जाते जाते रुका और मुड कर कहने लगा- “साहेब रात तो अच्छी गुज़री है न ?” और एक रहस्यमय मुस्कराहट के साथ वहाँ से चला गया.

मैं धीरे-धीरे बाथरूम के दरवाज़े की तरफ देखने लगा.  मेरा चेहरा शीशे में साफ़ दिखाई दे रहा था.  लिपिस्टिक के निशान अभी भी मेरे गालों पर थे.  सारी चीज़ें अपनी जगह दुरुस्त थीं. मेरी जान मैं जान आई . मैं लंबी लंबी सांसें भरता हुआ बिस्तर पर आकर बैठ गया. उन सिलवटों को देखकर रात के माहौल में खो गया जहां एक हसीन खूबसूरत दोशीज़ा मेरी बाहों में मचल रही थी.  वह बहुत कम उम्र की थी. मुझे उसे छूते हुए भी डर लग रहा था .

मैंने उस से मजाक करते हुए कहा, “तुम इतनी खूबसूरत हो और खानदानी भी लगती हो फिर ये सब क्यों?  उसका जवाब था, “रात की तारीकी में तक़रीर नहीं तदबीर ज़रूरी है… बेहतर होगा आप तदबीर की जानिब क़दम बढ़ाएं .”

वह मेरे और क़रीब आ गयी. उसने अपने पतले पतले होंठ मेरे गालों पे रख दिए. उसकी  गरम- गरम साँसें मेरी रूह से टकराने लगी. मेरे अंदर अंगारे से भड़कने  लगे.

अचानक मेरी नींद टूट गई.  मैं पसीने से शराबोर था. मैंने तौबा की कि आज के बाद सिर्फ तदबीर से काम लूंगा तक़रीर से बिलकुल नहीं…

(लेखक मुंबई में फिल्म निर्देशन और इप्टा से जुड़े हैं,  इसके अलावा अपना खुद का एक कबीराथियेटर ग्रुप भी चला रहे हैं.)

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