अन्ना और रामदेव का गठबंधन: मतभेद के साथ मनभेद भी…

Beyond Headlines
Beyond Headlines
5 Min Read

आशीष महर्षि

जिस बात का डर था, वही हुआ. अन्‍ना हजारे के आंदोलन से लोग विमुख होने लगे हैं. जंतर-मंतर से नदारद भीड़ तो यही इशारा कर रही है. आंदोलन से जुड़े लोग इसका सारा दोष मीडिया पर मढ़ रहे हैं. कहा जा रहा है कि मीडिया बिक चुका है, कॉपरेरेट के दबाव में है, इसलिए अन्‍ना के आंदोलन को कवर नहीं कर रहा है. हालांकि सच्‍चाई इससे एकदम अलग है.

टीम अन्‍ना और उनके समर्थक हताश हैं, निस्तेज हैं. इसमें उनकी गलती भी नहीं है. जिस आंदोलन ने पूरे देश को एक साथ खड़ा कर दिया था, आज उसी आंदोलन में लोगों की भागीदारी न के बराबर है. यह स्थिति वाक़ई हताश कर देने वाली है. टीम अन्‍ना ने भाजपा से पल्‍ला झाड़ा. कई कारपोरेट कंपनियों से पल्‍ला झाड़ा. संघ से पल्‍ला झाड़ा. नतीजा, पिछली बार जहां रामलीला मैदान में पैर रखने तक की जगह नहीं थी, आज वहीं जंतर-मंतर पर लोग पैर तक नहीं रख रहे हैं.


एक आंदोलन कैसे जोश से शुरू होता है और फिर निजी महत्वाकांक्षाओं, मनमुटाव के कारण बिखरता जाता है, टीम अन्‍ना का आंदोलन इसका बेहतर उदाहरण है. अन्‍ना को छोड़कर आज इस आंदोलन से जुड़े तमाम लोगों की साख का संकट है. अन्‍ना आते हैं तो भारी भीड़ जुटती है, लेकिन केजरीवाल के साथ आज सौ लोग भी खड़े नजर नहीं आते. इस आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत रही, लोगों का भावुकता के साथ अन्‍ना से जुड़ना. लेकिन सबसे बड़ी कमजोरी भी यही बनी. जो लोग भावुकता के साथ जुड़े थे, उन्‍हें जब अन्‍ना की कोर टीम के अहं और अड़ियल रवैये का भान हुआ, तो वे दूर छिटकने लगे.

सोचिए, पिछली बार जो मीडिया अन्‍ना आंदोलन के पल-पल की खबरें दिखा रहा था, छाप रहा था, तो अब क्‍यों नहीं? दरअसल ख़बर बनने के लिए किसी इवेंट या घटना में ख़बर का पुट होना चाहिए. अन्‍ना का आंदोलन अब यह धीरे-धीरे खोता जा रहा है. मुंबई के बाद अब दिल्‍ली में भी आंदोलन का पिटना टीम अन्ना के भविष्य के लिए कई सवाल खड़े कर रहा है.

बीते एक साल में टीम अन्‍ना के बारे में कई तरह की बातें सामने आईं. अरविंद केजरीवाल पर आयकर विभाग ने उंगली उठाई. किरण बेदी ने विमान की टिकट का पैसा बचाया तो भूषण बाप-बेटे की जोड़ी पर भी तरह-तरह के आरोप लगे.

जिस तरह मौजूदा दौर में देश में सरकार चलाने के लिए गठबंधन की आवश्‍यकता पड़ती है, वैसे ही अन्‍ना और बाबा रामदेव ने भी आंदोलन के लिए गठबंधन किया. लेकिन यकीन मानिए, दोनों में न सिर्फ मतभेद, बल्कि मनभेद भी हैं. टीम अन्‍ना शुरू से प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने की बात करती कर रही है, लेकिन रामदेव का स्‍टैंड इससे अलग है. रामदेव को संघ के साथ से कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन टीम अन्‍ना ने कभी खुलकर ऐसे संगठनों का समर्थन नहीं स्वीकारा. टीम अन्‍ना और रामदेव की कथनी और करनी के अंतर ने भी आंदोलन को कमजोर किया है.

टीम अन्‍ना का रवैया शुरू से ही तानाशाही भरा रहा है. जनलोकपाल बिल को लेकर पूरी टीम जिस प्रकार अड़ी रही और अभी भी अड़ी है, उससे भी जनता में गलत संदेश गया. आखिर आपकी ही सोच हमेशा सही नहीं हो सकती. सामने वाले की राय भी मायने रखती है. उनका अड़ियल रवैया आंदोलन के लोकतंत्र पर सवाल खड़ा करता है. कोर कमेटी में जिन दूसरे सदस्‍यों ने अपनी राय रखनी चाही, उन्हें बाहर का रास्‍ता दिखा दिया गया. आंदोलन में अब टोपी बिकने लगी, टी-शर्ट बिकने लगी. यह आंदोलन न होकर एक मेला बन गया. ऐसे आंदोलनों का हश्र क्‍या होता है, यह पहले ही पता चल गया था.

Share This Article