जामिया की मुसलमानों से बेवफाई, जानिए MCRC का सच…

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अफ़रोज़ आलम साहिल

भारतीय मीडिया संस्थानों में मुसलमान पत्रकारों की संख्या बेहद कम है. ठीक वैसे ही जैसे भारतीय सेना या पुलिस सेवा में. शायद आप यह जानकर भी न चौंके कि इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्यूनिकेशन, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय और दिल्ली यूनिवर्सिटी के पत्रकारिता कोर्सों में भी मुसलमान छात्रों की संख्या नाममात्र ही है. लेकिन अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय का दर्जा रखने वाली जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के मॉस कम्यूनिकेशन एंड रिसर्च सेंटर का आंकड़ा आपको चौंका सकता है.

जिस तरह दिल्ली के पब्लिक स्कूलों में मुसलमान छात्रों को दाखिला पाने में दिक्कत होती है. शायद उससे ज्यादा दिक्कत एमसीआरसी में दाखिला पाने में हो रही है. सबसे हैरत की बात यह है कि यूनिवर्सिटी ने अपने नियम बनाकर अल्पसंख्यक संस्थानों में मुसलमानों के लिए 50 फीसदी कोटे को भी ताक पर रख दिया है.

जामिया मिल्लिया इस्लामिया को 22 फरवरी 2011 को ही राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान आयोग (एनसीएमईआई) ने अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान का दर्जा दिया था.

जामिया को अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान का दर्जा देते हुए एनसीएमईआई के अध्यक्ष जस्टिस एम.एस.ए. सिद्दिकी ने कहा था- “ हमें यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि जामिया की नींव मुसलमानों के हित के लिए मुसलमानों ने रखी थी और इसने कभी भी अल्पसंख्यक संस्था होने की अपनी पहचान नहीं खोई. जामिया का निर्माण ही मुसलमानों की शिक्षा को मुसलमानों के हाथ में रखने के लिए किया गया था.”

लेकिन जामिया के सबसे मशहूर सेंटर ए.जे.के. मास कम्यूनिकेशन एंड रिसर्ज सेंटर के आंकड़े आपको चौंका देंगे. इस सेन्टर के सबसे जाना-माना कोर्स है मास कम्यूनिकेशन में एमए. इस कोर्स और सेंटर में आरक्षण की चर्चा प्रकाश झा ने अपनी फिल्म ‘आरक्षण’ में भी की थी. कोर्स में कुल 50 सीटें हैं जिसमें से 25 सीटें खास-तौर पर मुस्लिम स्टूडेन्ट्स के लिए रिजर्व हैं. लेकिन इस बार सिर्फ 18 मुसलिम स्टूडेंट्स को ही सेलेक्ट किया गया.

यह आम धारणा है कि मुसलमान छात्र इस तरह के कोर्सेज में फॉर्म ही नहीं भरते. लेकिन हम आपको बताते चले कि इस बार कुल 1428 स्टूडेंट्स ने फॉर्म भरे थे, जिसमें मुस्लिम स्टूडेंट्स की संख्या 415 थी. जामिया और यूजीसी के नियम के अनुसार 150 स्टूडेन्ट्स को इंटरव्यू के लिए कॉल किया जाना था, पर इस बार यह संख्या सिर्फ 90 रही. इन 90 स्टूडेन्ट्स में मुस्लिम स्टूडेंट्स की संख्या सिर्फ 19 थी, जबकि नियम के अनुसार यह संख्या कम से कम 75 होनी चाहिए थी. जब इस संबंध में हमने इस सेन्टर के डायरेक्टर ओबैद सिद्दिकी से बात की तो उनका कहना था कि इंटरव्यू में सेलेक्शन के लिए लिखित परीक्षा में कम से कम 36% नम्बर लाना ज़रूरी होता था, जो सिर्फ 90 स्टूडेन्ट्स ही ला पाए. जबकि टेस्ट देने वाले मुस्लिम स्टूडेन्ट्स का मानना है कि ऐसा जान बूझ कर किया जा रहा है. इस संबंध में मुस्लिम स्टूडेन्ट्स ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान आयोग, राष्ट्रीय पिछड़ा कल्याण आयोग, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग, मानव संसाधन मंत्रालय, एवं जामिया मिल्लिया के पदाधिकारियों को पत्र लिखकर शिकायत भी की है.

अपनी इस शिकायत में स्टूडेन्ट्स ने लिखा है कि अगर जामिया में ही अल्पसंख्यकों के साथ ऐसा किया जाएगा तो मुस्लिम छात्र अवसाद का शिकार हो जाएंगे. छात्रों ने अपने पत्र में लिखा, ‘हम जेनरल एप्लीकेन्ट्स के खिलाफ नहीं हैं. आप उन्हें ज़रूर एडमिशन दें, तभी तो गांधी जी और रविन्द्र नाथ टैगोर ने जो सेक्यूलरिज्म का ख्वाब देखा था वो पूरा होगा, पर हमारा हक़ जो हमें हमारे भारतीय संवीधान ने दिया है, वो हमसे ग़लत तरीके से छीना जा रहा है, जो बिल्कुल बर्दाश्त से बाहर है. सच्चर कमिटी जो मुस्लिम को हर लिहाज़ से बैकवार्ड होने की बात कर रहा है, उसका एक अहम कारण यह भी है कि हमें जो सहुलतें संविधान से मिली हैं वो भी सही से नहीं मिल पा रही हैं. अगर हमें ही मास कम्यूनिकेशन करने का मौक़ा नहीं दिया जाएगा तो कल को हमारी आवाज़ जो दब गई है उसे मीडिया और सिनेमा के माध्यम से कौन उठाएगा.’

खैर, यह मामला सिर्फ इस सेन्टर के इसी कोर्स का नहीं है. दूसरे कोर्सेज में भी यही स्थिती है. जैसे इस सेन्टर के पीजी डिप्लोमा डेवलवमेंट कम्यूनिकेशन में कुल 40 सीटें हैं. इन 40 सीटों के लिए इन्टरव्यू में 36 स्टूडेन्ट्स को ही कॉल किया गया, जिसमें मुस्लिम स्टूडेन्ट्स की संख्या सिर्फ 8 थी.

लेकिन यहां सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि जो मुसलमान छात्र इन कोर्सेज में दाखिले के लिए सलेक्ट भी हो गए हैं वो भी दाखिला हीं ले पा रहे हैं. कारण है इस साल फीस में हुई बेतहाशा बढ़ोत्तरी.  मास कम्यूनिकेशन में एमए की फीस में 38, 600 रूपये की जबरदस्त बढ़ोत्तरी की गई है. पिछले साल इस कोर्स की फीस कुल 91,120 रूपये थी, वहीं इस बार इस बार यह रकम बढ़ कर 1,29,720 रूपये हो गई हैं. हमने सलेक्ट होने वाले कई स्टूडेन्ट्स से मुलाकात की तो उनका यही कहना था कि घर के हालात ऐसे नहीं है कि हम दाखिला शायद ही ले पाएं. 2-3 स्टूडेन्ट्स ने यह भी बताया कि वो बैंको का चक्कर काट रहे हैं ताकि एजुकेशन लोन मिल जाए, पर वो भी मुसलमानों को शायद मिलना मुश्किल है. एक छात्र ने तो दाखिला लेकर फिर अपना दाखिला कैंसिल करवा दिया. इस तरह से 18 में से 5 छात्र दाखिला नहीं ले पाएं. यानी अब 13 छात्र ही दाखिला ले सकें हैं. वो भी परेशान हैं कि आगे का खर्च वो कैसे वहन करेंगे? यह कहानी सिर्फ मास कम्यूनिकेशन की नहीं, बाकी कोर्सेज का भी यही हाल है.

इस संबंध में सेन्टर के डायरेक्टर ओबैद सिद्दिकी से बात की तो उनका कहना था कि लगातार बढ़ रही महंगाई के कारण हम फीस बढ़ाने पर मजबूर हैं. जामिया टीचर्स एसोशियशन के एक पूर्व सदस्य का इस मामले में कहना है कि फीस में इतना ज़बरदस्त इजाफा काफी हैरानी की बात है. जब हमने इस बारे में मीडिया कोआर्डिनेटर से बात करने का प्रयास किया तो पता चला मीडिया कोआर्डिनेटर विदेश दौरे पर हैं.

अब सवाल यह है कि जामिया ने किस आधार पर मुसलिम बच्चों का हक छीन लिया? लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि मुस्लिम अपनी कौम की आवाज़ बनने की कोशिश करने वाले मुस्लिम छात्र अब क्या करें? अपनी ही यूनिवर्सिटी की इस बेवफाई के बाद वो कहां जाए?

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